चंबल धीरे बहो….भाग-1

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सुधीर विद्यार्थी

अरे, यह चंबल घाटी है, जिसमें

पहाड़ों के बियावान

अजीब उठान और धंसान-निचाइयां

पठार व दर्रे

छोटी-छोटी दूनें

कंटीले कगार, और

सूखे हुए झरनों की

बहुत-बहुत तंग

और गहरी हैं पथरीली गलियां,

गोल-गोल टीले व खंडहर-गढ़ियां…

बन्दूकें, कारतूस, छर्रे!!

कोई मुझसे कहता है–

‘शांत हो, धीर धरो,

और, उलटे पैर ही निकल जाओ यहां से,

ज़माना ख़राब है,

हवा बदमस्त है,

बात साफ़-साफ़ है,

दर्रों में भयानक चोरों की गश्त है।’

मुक्तिबोध की ‘चंबल की घाटी में’ शीर्षक से लिखी इस कविता का संभावित रचनाकाल 1964 का है जिसे ‘कल्पना’ ने उसी वर्ष अगस्त अंक में प्रकाशित किया था। इस लंबी काव्य-रचना में चंबल के इलाके की भयावहता का तीक्ष्ण वर्णन है। इस कविता के लिखे जाने के बाद चंबल नदी में बहुत पानी बह चुका। अब उस चंबल के बीहड़ बदल चुके हैं। यातायात की सुगमता ने पूरे क्षेत्र का चेहरा तब्दील कर दिया है।

चंबल का इतिहास बहुत पुराना है। यह यमुना की सहायक नदी है जो राजस्थान के कोटा तथा धौलपुर, मध्य प्रदेश के धार, उज्जैन, रतलाम, मंदसौर, भिंड, मुरैना आदि जिलों से होकर बहती हुई दक्षिण की ओर मुड़कर उत्तर प्रदेश के इटावा में पांच नदियों–चंबल, क्वारी, सिंध, यमुना और पहुज का संगम बनाती है जिसे पचनद कहा जाता है।

उत्तर प्रदेश में चंबल का इलाका देखने के लिए मैं इटावा के भरथना कस्बे आ गया हूं। इस जिले का जवाहर नवोदय विद्यालय अभी 11 किमी दूर है। खेतों के बीच घुमावदार पक्के चकरोड से साम्हों गांव तक का रास्ता पूछते-पूछते हम विद्यालय परिसर में दाखिल हो चुके हैं। प्रशासनिक भवन बाहर और भीतर से किसी उदास बस्ती की तरह खामोश है।

रास्तों पर बेतरतीब घास और दूर तक झाडि़यों का साम्राज्य। सब कुछ बे-चेहरा और बदरंग। भीतर जाने वाली मुख्य सड़क पूरी तरह उखड़़ी हुई जिस पर पैदल चलना एक कठिन कवायद है। छोटी बेटी नीलू ने यहां पीजीटी (बायो) में संविदा प्रवक्ता के पद पर कार्यभार ग्रहण किया है। उसे जो आवास दिया गया वह काफी दिनों से बंद है। थोड़ी देर में एक सफाई कर्मचारी ने आकर उसे थोड़ा सुथरा बना दिया है।

इस विस्तारित परिसर को देखकर लगता है कि इसका कोई धनी-धोरी नहीं। मथुरा जि़ले के पैगांव का ‘जनवि’ भी कुछ इसी तरह का बेसहारा लगा जबकि वह इमारत काफी पुरानी है। 2009 में पीलीभीत के ‘जनवि’ में 15 दिनों तक रचनात्मक लेखन की कार्यशाला को संचालित करते रह कर इन विद्यालयों की जो छवि भीतर बनी हुई थी वह इस बार ढहती प्रतीत हुई। ‘लौटना कठिन है’ में मैंने ‘जनवि’ के अपने उन अनुभवों को ही दर्ज किया है जब कार्यशाला के सहभागी छात्र-छात्राओं की लिखावटें मुझे प्रतिक्षण रोमांचित कर रही थीं।

विद्यालय परिसर में झाडि़यों के बीच एक मोर बेफिक्री से कुछ चुग रहा है। हमारी आहट उसे चौकन्ना कर देती है और वह मेस के पीछे ऊंची घास में अदृश्य हो जाता है। इन दिनों यहां छात्रावास खाली पड़़े हैं। छात्र अपने घरों में हैं। कोरोनाकाल में उन्हें ऑनलाइन पढ़़ाने की प्रक्रिया जारी है। सुना कि कुछ गरीब छात्रों के पास मोबाइल नहीं हैं जो इस समय उनकी शिक्षा में बड़ी बाधा है।

तीन-चार किशोर खेल के मैदान की तरफ वॉलीबॉल खेलने आ रहे हैं। वे स्टाफ के परिवारों से हैं। पूरा खेल मैदान बेशुमार फैल चुकी घास से अवरुद्ध है। अपने खेलने भर की जगह का एक टुकड़ा शायद इन बच्चों ने खुद ही साफ कर लिया है।

छात्रों की अनुपस्थिति के चलते पूरे परिसर में अजब सन्नाटा है जिसे पक्षियों की आवाजें भंग नहीं कर पातीं। विद्यालय के बाहर चारो तरफ पक्की सड़क है जिस पर गुजरने वाले टैक्टरों पर तेज गाने बज रहे हैं। दूर खेतों में टैक्टर से जुताई की आवाजें आ रही हैं। किसी खेत में हल-बैल चलते दिखाई नहीं दे रहे।

ग्रामीण जीवन में पशुओं का यह साहचर्य अब हर कहीं टूटने लगा है। कोई बैल या बैलगाड़ी भी दूर तक दिखाई नहीं देती। उतरती धूप में गेहूं की बुआई के बाद खेत में एक युवा जोड़ा खिताई कर रहा है। मैं इस मोहक दृश्य का चित्र उतारने से ठिठक जाता हूं। खेती-किसानी में गांव की स्त्रियों का श्रम प्रायः अनदेखा रहा आया है। खिताई करने वाला पुरुष रुक-रुक कर सिंचाई के लिए आने वाले पानी का मीज़ान लगाकर खेत में नालियां और मेड़ें बनाने में जुटा है।

यह हुनरमंदी का काम है। पूरे खेत का सौंदर्य मुझे देर तक बांधता है। दूर-दूर तक धान के कट चुके खेतों में जुताई के बाद गेहूं बोया जा चुका है। एक समय गेहूूं के खेतों में पहले कोई फसल नहीं उगायी जाती थी जिससे उपज अच्छी हो सके। पर अब अधिक पैदावार के लिए उर्वरक का इस्तेमाल होने लगा है। यह मिट्टी की उर्वरा शक्ति को क्षरित करता है। जानवरों की कमी से गोबर की खाद अब नहीं होती।

जहां तक नज़र जाती है पूरे इलाके में कोई बागायत नहीं है। विद्यालय के बाहरी ओर खाली जगह पर दूर तक यूकेलिप्टिस के घने पौधों की लंबी कतार है जिनके तने बेहद पतले हैं। इस परिसर के मुख्य द्वार के दोनों तरफ अवैध कब्जा होने लगा है जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं।

साम्हों और विद्यालय के बीच कानपुर की ओर जाने वाली दुहरी रेलवे क्रासिंग है जिसके सड़क मार्ग को इस समय निर्माणाधीन पुल का काम चलते छःह महीने के लिए अवरुद्ध कर दिया गया है। यहां आसपास कुछ दुकानें खुल गई हैं जिनमें एक परी ब्यूटी पार्लर और अंग्रेजी शराब का ठेका भी है। फैशन और सौंदर्य की साज-संवार अब गांव के धुरे तक धमक दे रही है और नशा देहाती जीवन का एक जरूरी तत्व हो चला है।

ज्वार, बाजरा और मक्का की फसल पकने-कटने के बाद उसकी लांक के सूखे बोझ (झुआ) जगह-जगह लगे हुए हैं लेकिन धान की पुआल सड़क के किनारे बेतरतीब छितरी पड़ी है। जानवर कम हैं इसलिए इसका इस्तेमाल अब घट चुका है। नए बदलते गांव इन दिनों हमारे लिए बहुत अबूझ हैं।

खेती का बुनियादी ढांचा पूरी तरह तब्दील हो चुका है। मशीन के दखल ने गांवों की तस्वीर को नए फ्रेम में जड़ दिया है। अब किसी प्रेमचंद के लिए ‘दो बैलों की कथा’ लिखना संभव नहीं। ‘पूस की रात’ के हलकू का खेत खाने के लिए नीलगाय की जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियां खुली दस्तक दे रही हैं।

निकट की दोनों छोटी नहरों और बम्बा में इस समय पानी नहीं है। भोगनीपुर प्रखंड की निचली गंग नहर महीने भर से सूखी पड़ी है। पानी न मिलने से रबी की बुआई का काम काफी बाधित रहा जिससे कई गांवों के किसान परेशान रहे। ट्यूबबेल भी कम दिखाई दे रहे। इनमें जो निजी हैं वे महंगी दर पर सिंचाई के लिए हैं। ऐसे में ऊपर की वर्षा का भरोसा इन दिनों किसान की आंखों में डूबने-उछरने लगा है।

चकरनगर क्षेत्र के पचनद में कार्तिक पूर्णिमा पर मेला कम जुटा। कोरोना के चलते दुकानें भी अधिक नहीं आईं। यहां स्नान करने वाले श्रद्धालु वर्ष भर के लिए घरेलू उपयोग की चीजें खरीद कर ले जाते हैं, पर इस बार उन्हें खाली हाथ लौटते देखना आंखों को अखर रहा है। पचनद दूर-दूर तक विख्यात है। इसका विशाल क्षेत्र अत्यंत दर्शनीय है।

विद्यालय में दो कमरों के आवास के पीछे काफी जगह खाली है जिसमें कई तरह के पौधे लगे हैं। आज हमने कुछ जगह साफ की जिसमें सफेद गुड़़हल, सफेद कनेर और बेला लगा है। छोटे संतरे के झाड़ी बन चुके पौधे के पके फलों का स्वाद बहुत तीखा है। करौंदे की हरी पत्तियां खूब चमकीली हैं जिसके गुलाबी खट्टे फल भीतर से तांक-झांक करते बहुत मोहक लग रहे हैं।

सूबे की तराई के मुकाबले दिसम्बर अधियाते भी सर्दी इधर कम है। चंबल के इस इलाके की सूरत अब बदल चुकी है। यहां के बीहड़ कभी कुख्यात दस्युओं की शरणस्थली थे पर अब वैसा नहीं है। चंबल नदी के तटों पर विदेषी पक्षियों की आमद शुरू हो गई है। चंबल सेंचुरी में सहसो पुल से लेकर पचनद तक करीब दो महीने तक यह परिन्दे अपना डेरा जमाएंगे जिनकी निगरानी सेंचुरी अमला करेगा।

इन उड़ने वाले जीवधारियों को मौसम की गहरी समझ होती हैं और न जाने इन्हें किस तरह दूर देश की धरती का अता-पता मिल जाता है। इस अपेक्षाकृत कम ठंडे इलाके में कुछ समय गुजार कर वे सुरक्षित अपनी धरती पर लौट जाएंगे। उनका यह सफरनामा हमें रोमांचित करता है।

(इस रिपोर्ताज के लेखक जाने माने साहित्यकार हैं, उपनिवेशवाद से मुक्ति के क्रांतिकारी संघर्ष पर उनका लेखन अतुलनीय माना जाता है)

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