सुधीर विद्यार्थी
इटावा प्रायः हमारी यादों के केंद्र में रहा है। प्रसिद्ध क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित की शहादत (21.12.1920) का यह शताब्दी वर्ष है पर यहां किसी को उनकी याद नहीं। वे आगरा की तहसील बाह में बटेश्वर के निकट मई गांव के थे जिन्होंने बाद को इटावा जिले की तहसील औरैया के डीएवी स्कूल में अध्यापन के समय क्रांतिकर्म में संलग्न होकर मातृवेदी’ दल का गठन किया।
वे मैनपुरी दल के नेता थे। 1918 में उत्तर भारत में क्रांतिकारियों पर पहला षड्यंत्र केस मैनपुरी शहर में ही चलाया गया था जिसे उस समय बड़ी ख्याति मिली। इसमें आगरा, शाहजहांपुर, इटावा, औरैया, मैनपुरी, एटा के अनेक युवक थे। इनमें एक औरैया के मुकुन्दीलाल थे।
चंबल धीरे बहो….भाग-1
उन दिनों औरैया पृथक जनपद नहीं बना था। मैनपुरी केस में पकड़े गए बड़े घर के एक युवक दम्मीलाल भी थे जिनके पिता भिखारीलाल मुकदमा चलने पर बहुत घबराए कि बेटे को फांसी हो जाएगी। मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें मशविरा दिया कि बंगाल के बैरिस्टर चितरंजन दास (सीआर दास) के पास चले जाओ। वे ही इस मुकदमे में ठीक से पैरवी कर सकते हैं।
सीआर दास ने यहां आकर इस केस के फरार क्रांतिकारी देवनारायण भारतीय से मुलाकात की। उन्होंने कहा कि बंगाल में नौजवान काफी समय से देश की आजादी के लिए सशस्त्र क्रांति के उद्योग में संलग्न हैं लेकिन उत्तर भारत में इस तरह का पहला प्रयास देखकर वे बहुत प्रसन्न हैं।
देशबंधु दास ने भारतीय जी कंधे पर हाथ रखकर पूछा था, ‘बताओ, इस समय तुम कितनी शक्ति और सामर्थ्य रखते हो ?’ आत्मविश्वास से भरे भारतीय जी ने उत्तर दिया, ‘कहो तो इसी रात को मैनपुरी जेल या शहर को उड़ा दें।’ देशबंधु ने कहा कि इसकी जरूरत नहीं, पर किसी तरह इस केस के मुखबिर रामनारायण को जेल से बाहर निकाल लिया जाए। दल के नेता गेंदालाल दीक्षित भी उस समय जेल में थे।
चंबल धीरे बहो….भाग-2
भारतीय जी ने गहरे तिकड़म से रामनारायण के साथ गेंदालाल दीक्षित को भी बाहर निकाल लिया जिससे मैनपुरी के स्पेशल मजिस्ट्रेट बीएस क्रिस की अदालत में चल रहा मुकदमा कमजोर पड़ गया। बाद को सरकार ने आम माफी देकर सभी को रिहा कर दिया लेकिन मुकुन्दीलाल साढ़े़ छह साल की सजा काट कर ही छूटे। इसके पश्चात उन्होंने काकोरी डकैती में भी हिस्सा लिया जिसमें उन्हें आजीवन कारावास का दंड मिला। कभी ‘भारतवीर’ कहे जाने वाले इस क्रांतिकारी का अंतिम समय बहुत अभावों में व्यतीत हुआ।
इटावा के जिलाधिकारी रहे (एलन ओक्टेवियन ह्यूम (एओ ह्यूम) को कांग्रेस के जन्मदाता के रूप में जाना जाता है जिन्होंने 1885 में इस संस्था की नींव डाली जो इतिहास में लंबे समय तक ‘गॉड सेव द किंग’ जैसी प्रार्थनाएं गाने के लिए मशहूर रही। उसका जंगजू रूप 1921 में ही हमें दिखाई पड़ा।
याद रखा जाना चाहिए कि 1995 में इस शहर में ह्यूम का बुत भी लगाया गया जिसका अनावरण तत्कालीन कांग्रेसी नेता बलराम सिंह यादव ने किया था। यह खेद की बात है कि इस ज़मीन पर शहीद गेंदालाल दीक्षित और क्रांतिकारी मुकुन्दीलाल के स्मारक बनवाने लिए वैसी कोई पहल नहीं की गई।
मैंने कई बार कहा कि मैनपुरी शहर में ‘देशबंधु चितरंजन दास मार्ग’ बने जिससे इस केस में वकील के नाते बंगाल से उत्तर भारत में आने की उनकी स्मृति सजीव बनी रहे। ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ में अंदमान जाने वाले शाहपुर टहला (एटा) के शहीद महावीर सिंह और काला पानी की सजा काटने वाले दूसरे क्रांतिकारी रामचरण लाल शर्मा (डरू नगला) के नाम भी बहुत दिनों तक हमारे लिए विस्मृत ही बने रहे।
आज कौन जाने कि अविनाशी सहाय आर्य इंटर कालेज एटा के प्राचार्य रहते कवि मलखान सिंह सिसौदिया ने अपने कार्यकाल में कालेज पत्रिका के एक अंक में रामचरण लाल शर्मा की काला पानी की गाथा को पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी के सुझाव पर पूरा ही छाप दिया था।
नेशनल बुक ट्रस्ट से मेरे संपादन में वह पुस्तक के रूप में बाद को छपी। खेद है कि अब इटावा, औरैया, मैनपुरी और एटा का यह इलाका अपनी इस ऐतिहासिक पहचान को पूरी तरह विस्मृत कर चुका है। संसदीय चुनावी राजनीति के दुष्परिणाम के चलते एक पूरी इतिहास-विमुख पीढ़ी अपनी सम्पूर्ण क्रांतिकारी चेतना को पैरों तले रौंद रही है जिसे देखने को हम अभिशप्त हैं।
इटावा में रहते मैं यहां जन्मे प्रसिद्ध कवि गंग देव, हिंदी लेखक बाबू गुलाब राय, श्रीनारायण चतुर्वेदी, पंडित भीमसेन शर्मा, गोपाल दास ‘नीरज’ और फिल्म निर्माता-निर्देशक के. आसिफ में बारे में सोच रहा हूं। देव ने स्वयं लिखा है, ‘द्यौरसिया कवि देव को नगर इटावी वास।’ इन्हीं कवि गंग देव पर एक कविता में यश मालवीय ने लिखा है, ‘साथ तुलसी के समय को सिरजते कवि गंग दीखे।’
मैनपुरी और काकोरी दोनों मामलों से जुड़े रहे प्रसिद्ध क्रांतिकारी चन्द्रधर जौहरी का जन्म एटा में ही हुआ था। एक समय गेंदालाल दीक्षित और चन्द्रधर जौहरी की क्रांतिकर्म में सहायता स्वामी लक्ष्मणानंद किया करते थे जिन्होंने पेशेवर डाकुओं को भी संगठन में लेने की योजना बनाई और इस काम के लिए चंबल घाटी में डाकुओं के प्रमुख पंचमसिंह से जाकर मिलकर दल को विस्तारित किया।
जौहरी जी बाद को आगरा के गण्यमान्य नेता बने। वे बहुत सिद्धांतवादी व्यक्ति थे। कांग्रेसी मंत्रिमण्डल बनने पर एक बार मोहनलाल सक्सेना ने उनके घर आकर कहा कि आपको एमएलए बनना चाहिए। इस बार एटा से कायस्थ के चांस हैं इसलिए आप वहां से खड़े हो जाइए। सुनकर जौहरी जी ने दो टूक उत्तर दिया, ‘भाई साहब, यदि वहां से कायस्थ के चांस हैं तब तो मैं कदापि वहां से खड़ा नहीं होऊंगा।
मैं तो सिद्धांततः ही इसको पसंद नहीं करता कि वहां से कायस्थ का चांस है और यहां से जाट का। इसी से जात-पात का प्रश्न बढ़ता जा रहा है।’ मेरे लिए यह याद करना जरूरी है कि चन्द्रशेखर आज़ाद और भगतसिंह की बलिदान अर्धशती पर इटावा में क्रांतिकारियों का एक बड़ा सम्मेलन बुलाया गया था जिसमें मन्मथनाथ गुप्त, हंसराज रहबर, जयदेव कपूूर, दुर्गा भाभी, शम्भूनाथ आज़ाद ने हिस्सेदारी की थी।
शायद स्मृति दुबे ने इस आयोजन में मुझे भी आमंत्रित किया था पर उसमें नहीं पहुंच पाया। उन्होंने कार्यक्रम के कुछ छपे पत्रक भी भेजे थे। संभवतः मन्मथनाथ के वक्तव्य से वहां कुछ विवाद भी हुआ था। शम्भूनाथ जी उन दिनों नक्सलवादियों के प्रभाव में आ गए थे और मन्मथ जी ने इसे लेकर कुछ टिप्पणी की थी।
यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि उन दिनों परिवार नियोजन पर जोर देने के चलते क्रांतिकारियों के मध्य मन्मथ जी को अनेक बार सरकारी योजनाओं का प्रचारक तक कहा गया। इसी को लेकर मन्मथनाथ ने दुर्गा भाभी के नाम एक खुला-पत्र भी जारी किया था।
इस इलाके में आकर मुझे मैनपुरी के कवि लाखन सिंह भदौरिया ‘सौमित्र’ की याद आ रही है जिनसे मेरा संक्षिप्त पत्र-व्यवहार रहा। कभी ‘जनसत्ता’ ने उन पर एक बड़ा स्मृति-लेख प्रकाशित किया था। कवि डॉ. पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’ के करीबी रहे सौमित्र जी और जगत प्रकाश चतुर्वेदी इसी जनपद के निवासी थे।
‘सारिका’ के संपादक रहे प्रसिद्ध हिंदी कथाकार कमलेश्वर ने अपने मैनपुरी वाले पैतृक घर को बेचा तब उसकी खबर अखबारों में छपी थी। पता नहीं कि पुरखों की मिट्टी को खुर्दबुर्द करते हुए तब वे कितने भावुक हुए होंगे। इस इलाके में आकर नगला कटीला (एटा) के मशहूर कवि बलवीर सिंह ‘रंग’ की स्मृति मुझे कचोटती है जिन्होंने कभी कहा था, ‘रंग का रंग तो ज़माने ने बहुत देखा है, क्या आपने कभी बलवीर से बातें की हैं।’
छात्र जीवन में ‘रंग’ के गीत और ग़ज़लों में खूब मेरा मन रमा था। मेरे अपने पूर्वज मैनपुरी और भोगांव से शाहजहांपुर जिले के जलालपुर और फिर खुदागंज में जा बसे। धर्मवीर भारती अपने पिता और मां के घर का स्मरण करते हुए इसी खुदागंज में बीते अपने बचपन, ‘खूबी’ और ‘अइया’ तथा पिता की यादों में बार-बार लौटते रहे। समय के प्रवाह में आगे बढ़ते हमारे पुरखों की देहरियां छूटती चली गईं जिनकी ओर नई पीढ़ी मुंह फेर कर भी देखना नहीं चाहती।
चंबल क्षेत्र की ये चार जुड़वां बस्तियां अपनी ऐतिहासिक विरासत से अब पूरी तरह मुंह फेर चुकी हैं। बकेवर कस्बे के निकट इकदिल में सड़क के किनारे खेतों में बनी लाखा बंजारा की अद्भुत ऐतिहासिक बावड़ी की उपेक्षा देखकर भी हम लज्जित नहीं होते जिसकी साफ-सफाई और मरम्मत करके हम उस विरासत को नई पीढि़यों के लिए संरक्षित कर सकते हैं। यह इस क्षेत्र में पर्यटन के लिए भी उपयोगी कदम होगा।
(इस रिपोर्ताज के लेखक जाने माने साहित्यकार हैं, उपनिवेशवाद से मुक्ति के क्रांतिकारी संघर्ष पर उनका लेखन अतुलनीय माना जाता है)