द लीडर। देशभर में होली का त्योहार धूमधाम से मनाया जा रहा है। हर कोई होली के रंगों में रंगा हुआ है। उत्तराखंड में भी अबीर गुलाल के साथ होल्यार गांव से लेकर बाजारों में पहुंचने लगे हैं। देश भर में बच्चे, जवान एवं बूढे सभी होली के रंगों में रंगीन हो गये हैं, लेकिन रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि ब्लाॅक की तल्लानागपुर पट्टी के क्वीली, कुरझण व जौंदला गांव इस उत्साह और हलचल से कोसों दूर हैं।
जी हां यहां न कोई होल्यार आता है और ना ही ग्रामीण एक-दूसरे को रंग लगाया जाता है। 350 साल पहले जब इन गांवों का बसाव हुआ तो कुछ लोगों ने होली खेलने का प्रयास किया, लेकिन कई लोग हैजा बीमारी की चपेट में आ गये।
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इसके बाद फिर से कई सालों बाद होली खेली गई तो वही नौबत आ गई और फिर से लोगों को जान गंवानी पड़ी। दो बार घटना घटने के बाद तीसरी बार किसी ने भी होली खेलने की हिम्मत तक नहीं की।
ऐसा नही है कि, इन गांवों के लोगों को होली मनाना पसंद नहीं है, बल्कि होली तो वो मनाना चाहते हैं, लेकिन होली खेलने के बाद बीमारी फैलने की अफवाहों ने उन्हें परेशान कर दिया है। जिससे लोग मन मारकर होली नहीं खेल पाते हैं। जहां आस-पास के गांवों के बच्चों होली खेलकर मनोरंजन करते हैं, वहीं इन तीन गांवों के बच्चों को होली न मना पाने का हमेशा मलाल रहता है।
नहीं मनाते हैं होली
रुद्रप्रयाग जिला मुख्यालय से करीब 20 किमी दूर बसे क्वीली, कुरझण और जौंदला गांव की बसागत करीब 350 साल पूर्व की बताई जाती है। यहां के ग्रामीण मानते हैं कि जम्मू-कश्मीर से कुछ पुरोहित परिवार अपने यजमान और काश्तकारों के साथ वर्षो पूर्व यहां आकर बस गए थे। ये लोग तब अपनी ईष्टदेवी मां त्रिपुरा सुंदरी की मूर्ति और पूजन सामग्री को भी साथ लेकर आए थे, जिसे गांव में स्थापित किया गया।
मां त्रिपुरा सुंदरी को वैष्णो देवी की बहन माना जाता है। इसके अलावा तीन गांवों के क्षेत्रपाल देवता भेल देव को भी यहां पूजा जाता है। ग्रामीणों का कहना है कि उनकी कुलदेवी और ईष्टदेव भेल देव को होली का हुड़दंग और रंग पसंद नहीं है। इसलिए वे सदियों से होली का त्योहार नहीं मनाते हैं।
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डेढ़ सौ वर्ष पूर्व इन गांवों में दो बार होली खेली गई तो तब यहां हैजा फैल गया था और बीमारी से कई लोगों की मौत हो गई थी। दो बार घटना घटने के बाद तीसरी बार होली का त्यौहार नहीं खेला गया।
लोगों के मन में बसा है डर
ग्रामीण चन्द्रशेखर पुरोहित ने बताया कि कई सालों पहले जब गांव में होली खेली गई तो हैजा (उल्टी-दस्त) जैसी बीमारी के कारण लोगों की मौत होने लगी। इसके बाद कष्ट के निवारण को लेकर ग्रामीणों ने काफी प्रयास किये, जिसमें पता चला कि क्षेत्रपाल व ईष्ट देवी का दोष लगा है और गांव में होली खेलने से यह सब कुछ हुआ है।
इसके बाद कई वर्ष बीत जाने के बाद होली नहीं खेली गई, लेकिन दूसरी बार फिर किसी ग्रामीण ने होली खेली तो घटना की पुनरावृत्ति हो गई। लोग काल कलवित हो गए। इसके बाद तो लोगों के मन में भय सा बन गया और ग्रामीणों ने आज तक होली नहीं खेली है। 71 वर्षीय ग्रामीण चन्द्रशेखर पुरोहित ने बताया कि उन्होंने आज तक गांव में किसी को भी होली खेलते हुए नहीं देखा है।
कुछ लोग इसे देवी का दोष बताते हैं, मगर ज्यादातर क्षेत्रपाल भेल देव का ही दोष मानते हैं। बाकी आस-पास के गांवों में होली खेली जाती है। पुराने लोगों की धारणा यह रही कि जब-जब होली खेली गई, तब-तब परिणाम गलत आये। ऐसे में ग्रामीणों ने होली खेलना ही बंद कर दिया।
अंधविश्वास या आस्था
बहरहाल, अब इसे अंधविश्वास कहें या फिर ग्रामीणों की अपनी ईष्ट देवी मां त्रिपुरा सुंदरी व ईष्ट भेल देव के प्रति अटूट आस्था। लेकिन यह एक ऐसी परम्परा है जो इन तीन गांवों के लोग निभाते आ रहे हैं और अब नई पीढ़ी भी इसका अनुसरण कर रही है।
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