मनीष आज़ाद
उपनिवेशवाद से मुक्ति के संघर्ष में नौसेना विद्रोह वह घटना थी, जिसके बाद अंग्रेजों के पैर उखड़ गए। उन्हें महसूस हो गया कि अब भारत पर सीधे हुकूमत करना मुमकिन नहीं है।
यह विद्रोह सफल होता तो आजादी के लिए डेढ़ साल और इंतजार नहीं करना पड़ता और शायद उस आजादी के ताप-तेवर भी अलग ही होते। यह देश विभाजन की बुनियाद पर मिली आजादी नहीं होती, बल्कि सांप्रदायिक एकता की मजबूत नींव पर भविष्य का ताना बाना तैयार करती।
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इस वर्ष इस बगावत की 75वीं वर्षगांठ है, जो 18-23 फरवरी 1946 में हुई। इस ऐतिहासिक विद्रोह का नेतृत्व एक नौसैनिक एमएस खान कर रहे थे। बॉम्बे, मद्रास, कलकत्ता,कोचीन, विशाखापट्टनम, अंडमान के अलावा विद्रोह का एक महत्वपूर्ण केंद्र कराची भी था।
विद्रोही जहाजों पर अंग्रेजों का झंडा उतारकर कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा एक साथ लहरा रहा था। इसमें हिन्दू-मुस्लिमों की बराबर की भागीदारी थी। फिर भी जाने क्यों यह साझेदारी महात्मा गांधी को रास नहीं आई।
उन्होंने इसे ”हिन्दुओं-मुस्लिमों का अपवित्र गठजोड़” करार दे दिया। तब महात्मा गांधी ने साफ-साफ कहा, ” हम सेना में विद्रोह की इजाजत हरगिज नहीं दे सकते, क्योंकि भविष्य में हमें भी इसी सेना की जरूरत होगी।”
नौसेना विद्रोह के समर्थन में एयरफोर्स, थल सेना और पुलिस की कई यूनिटों में भी विद्रोह शुरू हो गया था। इसके अलावा मुम्बई, कराची जैसे कई औद्योगिक केन्द्रों पर इस विद्रोह के समर्थन में हड़ताल शुरू हो चुकी थी। यह ऐसी सूरत थी कि ‘सत्ता हस्तांतरण’ नहीं, उपनिवेशवादियों को बलपूर्वक भगाकर आजादी की नई इबारत लिख दी जाती।
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इस विद्रोह के एक प्रमुख भागीदार बीसी दत्त अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘म्युटिनी ऑफ इन्नोसेंट’ (Mutiny of the Innocents) में लिखते हैं कि हमने प्लेट में सजाकर इस विद्रोह का नेतृत्व कांग्रेस को समर्पित किया, लेकिन उन्होंने नेतृत्व लेने से न सिर्फ इनकार कर दिया, बल्कि हमें आत्मसमर्पण करने को बाध्य कर दिया।
सरदार पटेल ने पहले दिलासा दिलाया कि आत्मसमर्पण करने पर उन्हें ‘माफ’ कर दिया जाएगा। लेकिन, विद्रोही नौसैनिकों के आत्मसमर्पण करते ही उन्हें अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार करा दिया गया। उनका कोर्ट मार्शल किया गया और उन्हें हमेशा के लिए नौकरी से निकाल दिया गया।
हद तो तब हो गई जब डेढ़ साल बाद देश ‘आजाद’ हुआ और भारत में सत्ता कांग्रेस के पास और पाकिस्तान में मुस्लिम लीग के पास आई। दोनों ही सत्ताओं ने अंग्रेजों के साथ स्वामिभक्ति दिखाते हुए नौसेना विद्रोह के सैनिकों की नौकरी बहाल नहीं की।
उनकी पेंशन वगैरह सब कुछ छीन लिया गया और इन्हें आज़ाद भारत और आज़ाद पाकिस्तान, दोनों में अपने हाल पर छोड़ दिया गया। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा भी नहीं मिल पाया।
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पाकिस्तान के मशहूर इतिहासकार लाल खान कहते हैं, ”अगर यह विद्रोह सफल हो जाता तो हम विभाजन की क्रूर यातना से ही नहीं बचते, बल्कि 10 लाख जिंदगियां भी बच जातीं।”
आत्मसमर्पण के लिए मजबूर होने के बाद नौसेना के विद्रोहियों ने जो अंतिम प्रस्ताव पास किया, जो उस वक़्त की त्रासदी भी है और भविष्य की दृष्टि भी।
प्रस्ताव में लिखा गया- ”हमारा विद्रोह जनता के जीवन मे एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। पहली बार सैनिकों और मजदूरों का खून एक साथ एक लक्ष्य के लिए बहा। हम वर्दी वाले मजदूर इसे कभी नहीं भूलेंगे। हम जानते हैं कि हमारे मजदूर भाई बहन भी इसे कभी नहीं भूलेंगे। आने वाली पीढ़ियां इस विद्रोह से सबक लेकर उस लक्ष्य को हासिल करेंगी जो हम नहीं कर पाए। मजदूर एकता जिंदाबाद।”
यह भी एक तथ्य है कि 1965 में उत्पल दत्त को उनके नाटक ‘कल्लोल’ के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था। उत्पल दत्त का यह नाटक भारत में 1946 में हुए ऐतिहासिक नौसेना विद्रोह पर था।
आजाद भारत में आजादी के संघर्ष की यादगार पर इस तरह की कार्रवाई हैरान करने वाली है। ऐसे मौके पर यह जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि आखिर जो विद्रोह विदेशी शासकाें के खिलाफ था, वह आजाद भारत की सत्ता को नापसंद क्यों रहा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)