चौरीचौरा कांड शताब्दी वर्ष में ‘वंदे मातरम’ पर जोर और ‘असहयोग आंदोलन’ को दरकिनार करने का क्या अर्थ है

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आशीष आनंद


उत्तरप्रदेश की योगी सरकार ने आज से चार फरवरी 2022 तक चौरीचौरा कांड शताब्दी वर्ष मनाने के लिए बड़े पैमाने पर कार्यक्रम लांच किया है। पहले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस कार्यक्रम को संबाेधित किया और सरकार ने डाक टिकट भी जारी किया।

प्रधानमंत्री के संबाेधन के प्रमुख बिंदु, कार्यक्रम की बनाई गई रूपरेखा और मीडिया पर चलने वाली खबरों के बीच कुछ खास नजर आता है। पहला, इस कांड की बरसी मनाने में असहयोग आंदोलन का जिक्र न करना और दूसरा वंदे मातरम गीत पर काफी जोर देना।

चौरीचौरा कांड शताब्दी वर्ष पर ऑनलाइन संबोधन में प्रधानमंत्री की प्रमुख बात रही, ”इस घटना को इतिहास में सही स्थान नहीं दिया गया, यह एक स्वत:स्फूर्त आंदोलन था, यह घटना थाने में आग लगाने भर की नहीं थी, बल्कि जन जन के दिल में आग प्रज्ज्वलित हुई थी।”

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PM Modi Chauri Chaura Indians
फोटो, साभार एएनआइ ट़वीटर

पहले तो यही समझने की जरूरत है कि चौरीचौरा कांड की पृष्ठभूमि क्या रही, क्या यह स्वत:स्फूर्त आंदोलन था? चार फरवरी 1922 में यह घटना गोरखपुर जिले के चौरीचौरा में हुई। उससे पहले देश में कई बड़े घटनाक्रम हुए थे।

पहला विश्वयुद्ध 1914 से 1918 तक हुआ। विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय स्पेनिश फ्लू विश्व महामारी फैली, जिसमें सबसे ज्यादा लोग भारत के मरे, लगभग पांच करोड़। इसके बावजूद अंग्रेज सरकार ने ‘रौलट एक्ट‘ लागू करके बुनियादी अधिकारों को कुचलने की कोशिश की।

इस एक्ट के विरोध में मुंबई में मजदूरों की पहली राजनीतिक हड़ताल हुई। यह सिलसिला चल ही रहा था कि जनरल डायर ने 1919 में जलियांवाला हत्याकांड को अंजाम दिया। दमन और गुलामी के खिलाफ भारतीयों के दिलों में ज्वाला धधक रही थी।

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महात्मा गांधी की अगुवाई में चार सितंबर 1920 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हो गया। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्कूल-कॉलेज, कचहरी, नौकरी से लेकर सभी प्रतिष्ठानों का बहिष्कार करने की यह अभूतपूर्व घटना थी।

इसी दौरान खिलाफत आंदोलन के साथ असहयोग आंदोलन को भी जोड़ा गया, जिससे हिंदू-मुस्लिम आबादी मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ उतर सके। असहयोग आंदोलन की आंधी का आलम यह था कि सरकारी आंकड़ों में ही 1921 में 396 मजदूर हड़तालें हुईं, जिसमें छह लाख से ज्यादा मजदूर शामिल हुए।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के बाद पहला आंदोलन था, जिससे अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिल गईं, जिसमें बच्चे से लेकर बूढ़े तक शामिल हो गए। इस आंदोलन से सभी को आस थी कि अब अंग्रेजों के भारत से जाने का वक्त आ गया है। देशभर में जूलूस, धरना, प्रदर्शन, अंग्रेजों द्वारा संचालित संस्थाओं का बहिष्कार खुलकर होने लगा।

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इसी उत्साह के माहौल में चार फरवरी 1922 को आज के उत्तरप्रदेश में गोरखपुर जिले के चौरीचौरा में जुलूस निकाला गया। इस जुलूस को ब्रिटिश पुलिस ने जबरन रोकने की कोशिश की और प्रदर्शकारियों पर फब्तियां कसके मजाक उड़ाया। इस बात से आक्रोशित प्रदर्शनकारी हमलावर हो गए और थाने में आग लगा दी।

आग में घिरकर 22 पुलिसकर्मी मारे गए। वारदात के बाद 12 फरवरी 1922 को कांग्रेस की बारदोली बैठक में महात्मा गांधी ने अहिंसा का पालन न किए जाने की बात कहकर आंदोलन वापस ले लिया। आंदोलन वापस हाेने पर कई प्रमुख लोगों ने ऐतराज जताए और देशभर में हताशा का माहौल पैदा हो गया।

चौरीचौरा की इस घटना को हमेशा इसी पृष्ठभूमि में जाना जाता रहा है। आंदोलन वापस लेने के कदम की आलोचना तब भी मौजूद थी और आज भी मौजूद है। हिंसा और अहिंसा के बीच दो पाले इस समय गांधी और गोडसे के रूप में खिंचे हैं।

असहयोग आंदोलन को नकारना, गांधी को नकारना है। चौरीचौरा की घटना जनता की दमनकारी राज्य के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में दर्ज करना ही इतिहास का न्याय है। इससे पूरे देश को हताशा में जाने से न रोक पाना महात्मा गांधी और कांग्रेस की नाकामी कही जा सकती है।

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वंदे मातरम को लेकर विवाद की आशंका

वंदे मातरम  राष्ट्रगीत है। इस गीत को गाने या न गाने को लेकर पिछले कुछ बरसों में कई बार विवाद हो चुके हैं।

मुस्लिम समुदाय के बीच से इस पर ऐतराज जताया गया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट केरल के एक मामले में किसी के राष्ट्रगान गाने या न गाने को लेकर यह फैसला सुना चुका है कि ऐसा न करना राष्ट्रगान का अपमान नहीं है, यही बात राष्ट्रगीत पर भी लागू होती है।

बहरहाल, सरकार के चौरीचौरा कांड के शताब्दी वर्ष पर कार्यक्रम की रूपरेखा में वंदे मातरम को गाने पर खासा जोर है, ये विद्यालयों से लेकर सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी गाया जाना है।

बच्चों को विशेष तौर पर ऐसे कार्यक्रमों में भागीदार बनाने और वीडियो बनाकर अपलोड करने को कहा गया है। यह आने वाले दिनों में देखने की बात होगी कि इस पर फिर कोई विवाद खड़ा होगा या नहीं। अगले साल ही उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव भी हैं, इसलिए विवाद पैदा होने की आशंकाओं से इनकार भी नहीं किया जा सकता।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनका निजी विचार है)

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