– दिनेश श्रीनेत
‘आशीर्वाद’ फिल्म हमें अपने बच्चों को, अपनी भावी पीढ़ी को दिखानी चाहिए. शायद अब के समय में उन्हें फिल्म की भावुकता या मेलोड्रामा पसंद न आए मगर इस बात की उम्मीद है कि वे फिल्म के भीतर छिपी कविता को महसूस कर पाएंगे. पुराने दौर की बेहतरीन रचनाओं को देखने-समझने का जरूरी इतिहासबोध भी उनके भीतर विकसित करना भी तो हमारी ही जिम्मेदारी है. (Dinesh Shrinet about Aashirwad Movie)
हमें ये फिल्म बच्चों को इसलिए दिखानी चाहिए ताकि वे समझ सकें कि सच्चाई और ईमानदारी सिर्फ किताबी बातें नहीं हैं. वे यह भी समझ सकें कि सत्य का अनुसरण किसी लाभ के लिए नहीं किया जाता है और सच्चाई के साथ रहने वाला पराजय में भी सुख महसूस करता है. वे यह भी परख सकेंगे कि हार या जीत, सफलता या असफलता महज एक दृष्टिकोण है न कि कोई मूल्य. वे यह देख सकेंगे कि वयस्क होने के बाद भी इंसान के भीतर बच्चे सा कौतुहल बना रह सकता है. कि वो उनके साथ बैठकर रंग-बिरंगे सपने और कहानियां बुन सकता है. यह फिल्म उन्हें समझा सकती है कि गैर-बराबरी की जड़ें जितनी गहरी हैं, उसके पार जाना उतना ही सहज है. कि कलाएं हमारे मन को सुंदर बनाती हैं और दिलों को जोड़ती हैं. कि प्रतीक्षा का भी कोई मोल होता है, कई बार वह प्रतीक्षा जीवन भर जितनी लंबी हो सकती है. यह गांधी का नाम लिए बिना गांधीवादी मूल्यों की फिल्म है, जो समानता, सत्य और प्रायश्चित की बात करती है.
ह्रषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म में एक नेक इंसान के किरदार को अशोक कुमार जितनी सहजता से निभा सकते थे, निभा गए हैं. शिवनाथ चौधरी उर्फ जोगी ठाकुर (अशोक कुमार) अपनी नेकी को बोझ की तरह लादे नहीं फिरता, यही उसका असली और सहज रूप है. नहीं तो वह एक ऊंची जाति में जन्मा जमींदार शिवनाथ चौधरी है, जिसे जन्म और विरासत से सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल है. मगर वह उन्हें छोड़कर ‘जोगी ठाकुर’ के नाम से गांव में लोकप्रिय है. जात-पात माने बिना सबके साथ उठता-बैठता है, संगीत सीखता है और नौटंकी देखने चला जाता है. वो इस गांव के दामाद हैं और सारी प्रापर्टी उनकी पत्नी लीला (वीना) की है, जो बहुत हद तक क्रूर हैं. इस दंपती के रिश्तों में काफी कड़वाहट है. दोनों के जीवन मूल्य अलग हैं.
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जोगी ठाकुर अपनी बेटी को बहुत प्यार करते हैं. निर्देशक ने मां-पिता की तनातनी में उसे अपनी उम्र से ज्यादा समझदार दिखाया है, जो स्वाभाविक लगता है. जोगी ठाकुर की दोस्ती बैजू ढोलकिया से है. अंगरेजी के कवि हरीन्द्रनाथ चटोपाध्याय ने बैजू के रोल में एक अजीबो-गरीब किरदार को स्क्रीन पर जीवंत कर दिया है. एक ढोलक बजाकर गाने वाला एक मस्त मलंग जो बाद में अपनी बेटी के वियोग में पागल हो जाता है. लीला अपने मुनीम की मदद से जोगी ठाकुर को धोखा देकर छोटी जाति वालों की बस्ती जलाने का आदेश दे देती है. जोगी ठाकुर घर छोड़कर चले जाते हैं मगर बेटी की याद उन्हें वापस गांव की तरह खींच लाती है. लौटने पर वे देखते हैं कि उनका प्रिय साथी बैजू अपनी बेटी के गायब होने से पागल हो गया है. उसकी तलाश करने पर जोगी ठाकुर को पता लगता है कि उनके मुनीम ने ही उसे पुराने खंडहर में कैद कर रखा है, उसे छुड़ाने पहुँचे जोगी ठाकुर के हाथों मुनीम की हत्या हो जाती है और उनको 14 साल का कारावास हो जाता है. एक निर्णायक पल में जोगी ठाकुर जब आसानी से बच सकते थे तो वे खुद अपना जुर्म कबूल कर लेते हैं. वे कहते हैं, “जब मैं किसी को जीवन दे नहीं सकता, तो जीवन लेने का मुझे क्या हक है?”
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वक्त बीतता है और जोगी ठाकुर की पत्नी का भी निधन हो जाता है. बेटी की परवरिश और जायदाद की देखभाल उसके मामा करते हैं. बेटी नीना (बंगाली अभिनेत्री सुमिता सान्याल) बड़ी हो जाती है. डॉ. बीरेन (संजीव कुमार) नीना से प्रेम करते हैं और दोनों की शादी तय हो जाती है. कुछ नाटकीय घटनाक्रम होते हैं, जिनमें आमने-सामने होकर भी पिता और बेटी नहीं मिल पाते हैं. जोगी ठाकुर जेल से छूट जाते हैं. अंत में जब बेटी पिता को पहचान पाती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, बस अपनी नवविवाहिता बेटी को आशीर्वाद देकर बीमार जोगी ठाकुर की सांसे थम जाती हैं. फिल्म जोगी ठाकुर की पत्नी लीला को भी खल-चरित्र नहीं बनाती. तमाम अपमान सहने के बावजूद जोगी ठाकुर जेल में उनकी चिंता करते हैं और कहते हैं, “वह दिल की बुरी नहीं है दौलत और हुकूमत ने उसे कठोर बना दिया है.” जोगी ठाकुर जेल में अपनी बेटी की दी एक कॉपी को अपनी कविताओं से भरते रहते हैं. पहले इन कविताओं में बचपने की बाते होती हैं, मगर जैसे-जैसे जोगी ठाकुर अपनी बेटी के बड़े होने की खबर सुनते जाते हैं, उनकी कविताएं भी परिपक्व होती जाती हैं. पत्नी की मृत्यु की खबर उन्हें विषाद से भर देती है जो बाद की कविताओं मे भी नजर आता है. गुलज़ार ने फिल्म के संवाद लिखे हैं, संभवतः इसके लिए कविताएँ भी उन्होंने ही लिखी होंगी.
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ह्रषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म में कथा का प्रवाह बहुत सहज रखा है. समय बीतने के दृश्यों को अक्सर मोंताज के जरिए प्रस्तुत किया जाता है, मगर वास्तविक जीवन में तो मोंताज नहीं होते, स्मृतियों के मोंताज भले हमारे मन में बनते हों. निर्देशक ने फिल्म में ऐसे बहुत से प्रसंग रखे हैं, जिनका मूल कहानी से सीधे कुछ लेना-देना नहीं है मगर वह कहीं न कहीं किरदार को ज्यादा विश्वसनीय बनाते हैं. जैसे जोगी ठाकुर जब नाराज होकर घर छोड़ देते हैं तो कुछ समय एक बाइस्कोप वाले के साथ बिताते हैं और उसके साथ खुद के रचे गीतों और कहानियों से बच्चों का दिल बहलाते हैं. वहां नीना की उम्र की एक बच्ची से जोगी ठाकुर की दोस्ती हो जाती है मगर वह बीमार पड़ जाती है और एक दिन जोगी ठाकुर को पता लगता है कि वह बच्ची नहीं रही. बच्चों के बीच के इन प्रसंगों से जोगी ठाकुर का पूरा चरित्र बहुत स्पष्ट होकर उभरता है. यह एक ऐसे इनसान से परिचित होते है जो बनावटी प्रतिष्ठा और ऐशो-आराम की बजाय गरीबों की झोपड़ी मे रहने और बच्चों को किस्से सुनाने में ज्यादा सुख पाता है. फिल्म के इसी हिस्से में अशोक कुमार की आवाज में एक बहुत ही लोकप्रिय गीत है, “रेलगाड़ी, रेलगाड़ी”… जो संभवतः हिंदी का पहला रैप सांग है. अशोक कुमार ने इसे जितने मनोयोग से गाया है हरीन्द्रनाथ चटोपाध्याय ने उतने अनोखे अंदाज में लिखा है. गीत में शब्द इस तरह पिरोये गए हैं कि सुनते हुए तेजी से भागती ट्रेन और बाहर छूटते दृश्यों का अहसास होता है —
रेल गाड़ी, रेल गाड़ी
छुक छुक छुक छुक…
बीच वाले स्टेशन बोले
रुक रुक रुक रुक…
फुलाए छाती, पार कर जाती
बालू रेत, आलू के खेत
बाजरा धान, बुड्ढा किसान
हरा मैदान, मंदिर, मकान, चाय की दुकान
पुल-पगडण्डी, किले पे झंडी
पानी के कुंड, पंछी के झुण्ड
झोंपड़ी, झाड़ी, खेती-बाड़ी
बादल, धुआँ, मोट-कुआँ
कुएँ के पीछे, बाग़-बगीचे
धोबी का घाट, मंगल की हाट
गाँव में मेला, भीड़ झमेला
टूटी दीवार, टट्टू सवार
रेल गाड़ी, रेल गाड़ी…
गुलज़ार ने भी इस फिल्म के लिए एक बहुत सुंदर गीत लिखा है. एक स्तर पर यह पिता और बेटी के प्रेम की करुण कहानी है. बहुत कम फिल्में हैं जो भारतीय समाज में पिता और बेटी के रिश्ते को स्टीरियोटाइप से हटकर सुंदर तरीके से दिखा पाई हैं. “एक था बचपन” गीत में गुलज़ार के बोल अद्भुत हैं, बचपन को ‘था’ बोलना और ‘बचपन के एक बाबूजी’ का जिक्र दोनों ही इस गीत को एक अथाह करुणा से भर देते हैं —
एक था बचपन, एक था बचपन
छोटा सा, नन्हा सा बचपन,
एक था बचपन…
बचपन के एक बाबूजी थे,
अच्छे सच्चे बाबूजी थे
दोनों का सुंदर था बंधन,
एक था बचपन…
फिल्म का एक और बहुत सुंदर प्रसंग है. आरंभ में ही हम देखते हैं कि बैजू ढोलकिया की झोपड़ी में जोगी ठाकुर संगीत सीखने जाया करते हैं. एक दृश्य में दोनों के बीच बहुत लंबी जुगलबंदी है. पहली नजर में यह पूरी सिचुएशन अनावश्यक सी लगती है, मगर फिल्म के अंत में जब बूढ़ा और बीमार जोगी ठाकुर अपने गांव पहुंचते हैं और शादी में खाना खाने जा रही भिखारियों की भीड़ में शामिल हो जाते हैं तो पागल हो चुका बैजू उन्हें पहचान लेता है. वह पागल ढोलक की ताल बोलते हुए उनके पीछे हो लेता है. थोड़ी सी भी गहराई से यह दृश्य देखें तो आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं, मानों संगीत और दोस्ती की वह धारा इतने बरसों दूर रहने के बाद भी उनकी नसों में बह रही थी और दोबारा से उसकी धमक लौट आती है. आज के समय में फिल्म एक सवाल छोड़ती है, सच्चाई का साथ देने और ईमानदारी के बदले में जोगी ठाकुर को क्या मिला?
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अंतिम दृश्य में जब जोगी ठाकुर अंतिम सांसें ले रहे होते हैं तो शंकर नाम का एक युवक भागता हुआ आता है. यह वही शंकर है जो बचपन में जोगी ठाकुर और बैजू की संगत में बैठा करता था. वह खुले आसमान के नीचे ढोलक की थाप देता है और उधर जोगी की मौत हो जाती है. उस बसमय उनको वही लोग घेरकर बैठे होते हैं और रो रहे होते हैं, जिसे समाज का निचला तबका माना जाता है. जॉन रस्किन, जिनसे गांधी को अपने जीवन के आरंभिक दौर में प्रेरणा मिली थी— अपनी किताब ‘द क्राउन ऑफ वाइल्ड ऑलिव’ में प्राचीन ग्रीस में ओलंपिक खेलों में मिलने वाले जैतून की पत्तियों के ताज का जिक्र करते हैं, जिनका कोई भौतिक मूल्य नहीं होता मगर वे जीवन के सर्वोच्च सम्मान और प्रेरणा का प्रतीक होती हैं. युवक— जिसे जोगी ठाकुर पहचानते भी नहीं— उसका ढोलक बजाना, जंगली जैतून की उन पत्तियों जैसा ही सम्मान है. हम अपने जीवन से इन मूल्यों को खो चुके हैं मगर ‘आशीर्वाद’ जैसी फिल्में हमें भौतिकता के खोखलेपन और मानवीय गरिमा के बीच फर्क पहचानने लायक संवेदनशील अवश्य बनाती हैं.
(वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म समीक्षक दिनेश श्रीनेत की फेसबुक वाॅल से साभार)