काकोरी केस का वो शहीद, जिसकी जवानी पाप करते गुजरी थी

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काकोरी केस के शहीदों में सबसे उम्रदराज। जिंदगी को 180 डिग्री घुमा देने वाले। मौत से बेखौफ। साथियों की जिंदगी की परवाह के अलावा कोई टेंशन नहीं। जवानी का अहम हिस्सा डकैती डालते गुजरा, लेकिन फिर क्रांति की अंगुली थामकर शहादत का इतिहास रच दिया। शहीद रोशन सिंह ऐसा ही किरदार थे। उनके जिस चेहरे को आज हम सब जानते हैं, वह उनकी पहली और आखिरी तस्वीर है, जो फांसी से पहले ब्रिटिश पुलिस ने उतारी थी। (Martyr 0f Kakori Case)

रोशन सिंह ने की थी असहयोग आंदोलन के जत्थे की अगुवाई

काकोरी केस के शहीद रोशन सिंह के जीवन पर अभी तक एकमात्र पुस्तक ही मौजूद है, जिसे मशहूर लेखक सुधीर विद्यार्थी ने लिखा है। इस पुस्तक के मुताबिक, महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन के साथ खिलाफत आंदोलन को जोड़ा तो जिलों में खिलाफत कमेटियां भी तेजी से बनीं। शाहजहांपुर में मुसलमानों की जनसंख्या ज्यादा होने के कारण यहां खिलाफत आंदोलन ज्यादा तेजी पर था। वालंटियर एक सी वर्दी पहनकर रूट मार्च करते हुए प्रदर्शन करते।

सरकार ने सभी जगह उनकी वर्दी पर रोक लगा दी थी, जिसके विरोध में रुहेलखंड डिवीजन के असहयोगियों ने बरेली में एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया। कई हजार वालंटियर जमा हुए। शाहजहांपुर जिले से जो जत्था गया, उसका नेतृत्व ठाकुर रोशन सिंह ने किया। इस प्रदर्शन पर लाठीचार्ज हुआ और जो लोग पकड़े गए उनमें ठाकुर रोशन सिंह भी थे, उन्हें सजा हुई।

यहां से रोशन सिंह के राजनैतिक जीवन की शुरुआत हुई। चौरीचौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन की निराशजनक समाप्ति से चिंतित क्रांतिकारियों ने छोड़े हुए हथियार फिर उठाने की तैयारी शुरू कर दी। हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ के गठन की प्रक्रिया में शाहजहांपुर के ही क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल से प्रभावित होकर रोशन सिंह भी दल में शामिल हो गए। (Martyr 0f Kakori Case)

सुधरे हुए पापी का बेमिसाल संयम

क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त के अनुसार, रोशन सिंह जब दल में आए तो अधेड़ हो चुके थे। वे एक सुधरे हुए पापी थे, असहयोग आंदोलन से पहले डकैतियों में शामिल रहते थे। असहयोगी के तौर पर जब उन्हें दो साल की सजा हुई तो संयम और योगी का जीवन बिताया। वे बेचैन आत्मा की तरह थे, जिन्हें आंदोलन में वीर प्रवृत्ति दिखाने का रास्ता मिल गया।

जेल से छूटने के बाद वे बिस्मिल के संपर्क में आए। ब्रिटिश खजाना लूटने को काकोरी कांड के बाद हुई गिरफ्तारियों में रोशन सिंह भी पकड़े गए। जेल में खतरनाक बताकर बिस्मिल और रोशन सिंह की ही बेडिय़ां नहीं काटी गईं। रोशन सिंह का पिछला रिकॉर्ड भी पुलिस जानती थी, लिहाजा उम्मीद थी कि वे जान बचाने को मुखबिर या सरकारी गवाह बन जाएंगे।

पुलिस ने कोशिश की, लेकिन उन्होंने बातचीत करने से ही इनकार कर दिया। जेल से भगाने की योजना में क्रांतिकारियों ने रोशन सिंह का नाम शामिल नहीं किया, क्योंकि वे काकोरी कांड में सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, उनके फांसी चढऩे की संभावना वकील भी नहीं बताते थे। (Martyr 0f Kakori Case)

उम्रदराजी में जेल बनी पाठशाला

काकोरी अभियुक्तों में रोशन सिंह सबसे उम्रदराज थे। जेल के भीतर आए तो उनके जीने का सारा ढंग ही बदल गया। सारा समय पठन-पाठन में जाता था। आर्यसमाजी होने की वजह से शुरू में हवन आदि बहुत करते थे, लेकिन नौजवान क्रांतिकारियों के प्रभाव में आकर धर्म के प्रदर्शनवादी तरीके से हट गए। हवालात में नई-पुरानी पीढ़ी के क्रांतिकारियों के बीच अनीश्वरवाद और ईश्वरवाद के पक्ष-विपक्ष में होने वाली बहसों-तर्कों पर मनन करते थे।

जेल में ही बंगलाभाषी साथियों से बंगला सीखना शुरू कर दी और जल्द ही बंगला पुस्तकें पढऩे लगे, जिसपर बिस्मिल मजाक में उनसे कहते- नई भाषा सीखकर क्या करोगे, तुम्हें तो फांसी पर चढ़ना है। छह अप्रैल 1927 को सजा का फैसला होने से पहले क्रांतिकारियों ने जेल में नाटक किया और अदालत का दृश्य तैयार किया। अपने ही बीच के एक साथी को जज मुकर्रर किया। एक-एक करके सभी के जुर्म का हवाला देकर फैसला दिया गया और सबसे बाद में रोशन सिंह का नंबर आया।

किरदार निभा रहे जज ने रोशन सिंह से कहा कि आप डकैती में शामिल नहीं थे, लेकिन उस स्थान की जानकारी आपने सबको दी, इस कारण आपको पांच साल की सख्त सजा दी जाती है। इस पर रोशन सिंह चिल्लाए- ‘ओ जज के बच्चे, फैसला सुनाने की तमीज भी है? मैं तो कोदों बेचकर आया हूं न, जो मुझे पांच साल की सजा सुना रहा है, पंडित (बिस्मिल) को फांसी और मुझे सिर्फ सजा! (Martyr 0f Kakori Case)

फांसी की सजा जैसे मिल गया मेडल

जिस वक्त ब्रिटिश सरकार के जज ने रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई तो उनको समझ ही नहीं आया। उन्होंने बगल में खड़े विष्णु शरण दुबलिश से पूछा, ”दुबलिश ‘फाइव इयर्स-फाइव इयर्स’ के अलावा इसने कुछ और भी तो कहा, वह क्या था?” दुबलिश ने बताया, ‘पंडित जी और लाहिड़ी के साथ आपको भी फांसी मिली है।’

रोशन सिंह उछल पड़े और पीछे मुड़कर जज का किरदार निभा चुके साथी से बोले, ‘ओ जज के बच्चे, देखा तुमने, फांसी की सजा मुझे भी मिली है।’ फिर बिस्मिल से कहा, ‘क्यों पंडित! अकेले जाना चाहते थे, हम पीछा नहीं छोडऩे वाले, साथ ही जाएंगे तुम्हारे।’ अपने युवा साथियों से बोले, ‘हमने तो जीवन का खूब आनंद उठा लिया, मुझे फांसी हो जाए तो कोई गम नहीं, पर तुम लोगों ने तो अभी जीवन का कुछ भी नहीं देखा है।’ पुलिस विभाग ने सभी क्रांतिकारियों की तस्वीर उतारी जो शायद शहीद रोशन सिंह की पहली तस्वीर थी। 19 दिसंबर 1927 को उन्हें फांसी दे दी गई।

शहीद रोशन सिंह के गांव में सियासी मजमा

आजादी के दशकों बाद भी काकोरी केस के शहीद रोशन सिंह के गांव शाहजहांपुर जिले के नवादा दरोबस्त में तरक्की का उजियारा नहीं हो पाया। 30 नवंबर 2018 को उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यहां जनसभा की थी। ये वक्त लोकसभा चुनाव 2019 की तैयारी का था। शायद यही वजह थी कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था, ‘शहीदों के सपने को प्रधानमंत्री मोदी पूरा कर रहे हैं’।

‘द लीडर’ से बातचीत में लेखक सुधीर विद्यार्थी कहते हैं, ‘ये बयान बेहद हास्यास्पद था। इतने बड़े आयोजन में शहीद रोशन सिंह के विचारों के बारे में लोगों को न बताया जाना और उनके नाम पर जातीय गोलबंदी कर लोकलुभावन बातें करके चुनाव में लाभ लेने की कोशिशें दुखद हैं।’

‘जो लोग राजनीति के नाम पर हत्याओं को वीरता की तरह पेश कर रहे हों, क्षेत्र के नाम पर हमले करके लोगों को भगा रहे हों, भाषा के आधार पर किसी को आतंकी बता रहे हों, आस्था और परंपरा के नाम पर मानवता भी भूल जाते हों, जिनकी राजनीतिक धरोहर में एक ही नाम देश की आजादी से जुड़ा और उसने भी गद्दारी कर दी हो, जिस साम्राज्यवाद के खिलाफ शहीदों ने जान की आहुति दी, आज उस साम्राज्यवाद को ‘मेक इन इंडिया’ की दावत देने वाले शहीद रोशन सिंह की शहादत को समझ ही नहीं सकते।’ तल्ख लहजे में विद्यार्थी ने ये कहा।

उन्होंने कहा, बेशक! वे (रोशन सिंह) ठाकुर बिरादरी से थे और राजनैतिक जीवन शुरू होने से पहले उनके अंदर वे सभी खामियां थीं जो एक छोटे-मोटे सामंत या जमींदार में होती हैं, लेकिन उनका क्रांतिकारी जीवन बताता है कि देश को बांटने वाली राजनीति के वे जबर्दस्त खिलाफ थे। (Martyr 0f Kakori Case)

क्रांतिकारी कोई हो ही तब सकता है जो अपने जड़ विचारों को त्यागने का प्रयास करे और जीवन में नए व्यवहार को उतारे। काकोरी के शहीदों और उनके साथियों ने फांसी से पहले क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति के बंधन की आखिरी गांठ भी खोल दी, जब सबने एक परात में खाना खाया।

सुधीर विद्यार्थी बताते हैं, शहीद रोशन सिंह पर लिखी पुस्तक का 1992 में जब शाहजहांपुर में विमोचन समारोह हुआ तो मंच पर हमला हो गया था। हमलावरों में कई वे चेहरे हैं, जो आज सत्ताधारी दल के साथ सक्रिय दिखाई देते हैं।


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