गांधी जयंती पर लेह में लहराया खादी से बना दुनिया का सबसे बड़ा राष्ट्रीय ध्वज, जानें क्या है खादी का महत्व ?

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द लीडर। आज देशभर में महात्मा गांधी की 152वीं जयंती मनाई जा रही है। पीएम मोदी, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और राजनाथ सिंह समेत कई बड़े दिग्गजों ने महात्मा गांधी को नमन कर श्रद्धांजलि अर्पित की. वहीं महात्मा गांधी यानि बापू की जयंती के मौके पर अलग-अलग कार्यक्रम आयोजित कर बापू को याद किया जा रहा है। इसी बीच दुनिया का सबसे बड़ा खादी राष्ट्रीय ध्वज लेह में लगाया गया। लद्दाख के उपराज्यपाल आरके माथुर ने शनिवार को केंद्र शासित प्रदेश में खादी के कपड़े से बने तिरंगे का अनावरण किया। इस दौरान सेना प्रमुख जनरल एम एम नरवणे भी मौजूद रहे।


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 जनस्कार पहाड़ी पर लगाया गया तिरंगा

देश के केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की राजधानी लेह की जनस्कार पहाड़ी पर इस तिरंगे को लगाया गया है। जानकारी के अनुसार ध्वज की लंबाई 225 फीट और चौड़ाई 150 फीट और वजन 1400 किलोग्राम है। ये झंडा खादी विकास बोर्ड और मुंबई की एक प्रिंटिंग कम्पनी के सहयोग से बनाया गया। ये झंडा 8 अक्टूबर को एयरफोर्स डे पर हिंडन ले जाया जाएगा।

लेह में ध्वज अनावरण भारत के लिए गर्व का क्षण 

दरअसल, सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे लद्दाख के 2 दिवसीय दौरे पर हैं। इस दौरान सेना के कई वरिष्ठ अधिकारियों के साथ इस कार्यक्रम में शामिल हुए। इस बीच केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने ध्वज अनावरण को भारत के लिए बहुत गर्व का क्षण बताया। मंडाविया ने ट्वीट करते हुए लिखा कि, गांधी जी की जयंती पर लद्दाख के लेह में दुनिया के सबसे बड़े खादी तिरंगे का अनावरण किया गया। मैं इस भाव को सलाम करता हूं, जो बापू की स्मृति को याद करता है। भारतीय कारीगरों को बढ़ावा देता है और राष्ट्र का सम्मान करता है।


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आपको बता दें कि, इस तिरंगे को तैयार करने के लिए करीब 4500 मीटर खादी के कपड़े का इस्तेमाल किया गया है। तिरंगा कुल 37,500 वर्ग फीट के इलाक को कवर करता है। इस राष्ट्रीय ध्वज को बनाने के लिए 70 कारीगरों को 49 दिन लगे हैं।

K9-वज्र तोपों का भी हुआ परीक्षण

आज ही पहली बार लद्दाख से सटी सीमा पर भारत ने K9-वज्र तोपें तैनात की हैं। यह सेल्फ-प्रोपेल्ड हॉवित्जर तोप 50 किलोमीटर दूर तक लक्ष्य पर निशाना साधने में सक्षम है। चीन के साथ 1 साल से ज्यादा समय से बने गतिरोध के चलते इसे सीमा पर तैनात किया गया है।

बढ़ेगी सेना की ताकत

बॉर्डर पर K-9 वज्र को ऊंचाई वाले इलाकों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका सफल परीक्षण भी हो चुका है। इसे आर्मी की सभी रेजीमेंट में शामिल किया जाएगा, जिससे सेना की ताकत बढ़ेगी।


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खादी केवल वस्त्र नहीं, बल्कि विचार है- महात्मा गांधी

‘खादी केवल वस्त्र नहीं, बल्कि विचार है’ ये वाक्य भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कही थी। खादी का नाम आते ही आज भी लोगों के जेहन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की छवि आती है। वो तस्वीर जिसमें महात्मा गांधी हाथों में सूत लिए खुद चरखा चलाते हुए नज़र आते हैं।

क्या है खादी

खादी जिसे खद्दर भी कहा जाता है। खादी हाथ से बनने वाले वस्त्रों को कहते हैं। खादी के कपड़े सूती, रेशम या ऊन से बने हो सकते हैं। इनके लिये बनने वाला सूत चरखे की सहायता से बनाया जाता है। हालांकि बदलते वक्त के साथ इसके निर्माण कार्य में भी बहुत बदलाव आया है। खादी वस्त्रों की विशेषता है कि, ये शरीर को गर्मी में ठण्डे और सर्दी में गरम रखते हैं। लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं खादी की असली पहचान महात्मा गांधी और भारत के आजादी की लड़ाई से है

महात्मा गांधी, खादी और महत्व

खादी भारतीय कपड़ा विरासत का प्रतीक है। भारत की आजादी की लड़ाई में पूरे देश को संगठित करने में महात्मा गांधी, खादी और चरखे का बहुत बड़ा योगदान रहा है। महात्मा गांधी ने उपनिवेशवाद और अन्याय के खिलाफ अपनी लड़ाई के दौरान चरखे का उपयोग किया। इसका मकसद आत्मनिर्भरता और गरीबी के खिलाफ लड़ाई था। जिसके तहत महात्मा गांधी ने खादी का सामान इस्तेमाल करने का अत्यधिक समर्थन किया था।


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आज़ादी की लड़ाई के वक्त गांधी जी कहते थे कि, तुम तब तक सुखी नहीं हो सकते हो, जब तक तुम्हारा समाज सुखी नहीं हो जाता। उन्होंने सुख की परिभाषा को व्यापक बना दिया और उसे जीवनशैली से जोड़ दिया। इसलिए साल 1918 में उन्होंने देश से गरीबी मिटाने और देश को स्वावलंबी बनाने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत की। जिसके तहत देशवासियों को विदेशों से आए कपड़े ना पहनने और देश में बने कपड़े के इस्तेमाल के लिए जागरुक किया गया। इसमें गरीबों ने गांधी जी के साथ मिलकर चरखे की मदद से सूत निकाले और खादी का निर्माण किया और उसका इस्तेमाल भी किया।

खादी के जन्म से जुड़ी महात्मा गांधी की एक आत्मकथा

महात्मा गांधी ने खादी के जन्म को लेकर अपनी एक रोचक आत्मकथा बताई है। महात्मा गांधी कहते हैं कि ‘हमें अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे। इसलिए आश्रमवासियों ने मिल के कपड़े पहनना बन्द किया और यह तय किया कि वे हाथ-करधे पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा ही पहनेगें। इसमें हमें बहुत कठिनाईयों का भी सामना करना पड़ा। बहुत मुश्किल से हमें कुछ बुनकर मिले, जिन्होंने देशी सूत का कपड़ा बुन देने की मेहरबानी की। इन बुनकरों को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जायेगा। इसके बाद देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा हमने पहना और इसका प्रचार भी किया। लेकिन ऐसे में तो हम कातनेवाली मिलों के एजेंट बन गए थे, इसलिए हमने तय किया अब हम सूत से कपड़ा खुद ही बुनेंगे और वो भी चरखे की मदद से। हालांकि ये करना आसान नहीं था, लेकिन फिर भी हमने हार नहीं मानी और कई लोगों की मदद से ये कर दिखाया। क्योंकि जब तक हम हाथ से कातेगें नहीं, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी। तो इस तरह खादी का जन्म हुआ।


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