जिसने भी सेंट्रल विस्टा की सलाह दी है, वो यकीनन आपका शुभचिंतक नहीं है प्रधान जी.

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विकास बहुगुणा-

कोरोना की दूसरी लहर के बीच सेंट्रल विस्टा के काम को आवश्यक सेवा का दर्जा देकर शुरू कर दिया गया है. इस परियोजना के तहत दिल्ली में नये संसद भवन और प्रधानमंत्री आवास सहित कई अहम इमारतें बननी हैं
देने वाले तर्क दे रहे हैं कि भला इसमें शोर मचाने की जरूरत क्या है! हर काम अपनी जगह है. कोरोना है तो क्या सब काम छोड़ दें!

तो बात ये है कि हर काम अपनी जगह ही तो नहीं है. बेड से लेकर ऑक्सीजन और दवाइयों तक तमाम आवश्यक सेवाओं का टोटा है, लेकिन सेंट्रल विस्टा एक ऐसी आवश्यक सेवा है जिसके लिए किसी संसाधन का टोटा नहीं.
और क्या इसकी सच में जरूरत है?

अमेरिका का संसद भवन यानी कैपिटल बिल्डिंग 1800 में तैयार हुआ था जो अब तक चल रहा है. ब्रिटेन का संसद भवन वेस्टमिन्स्टर पैलेस तो एक हजार साल पुराना है. इसके अलावा कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी जैसे तमाम देश हैं जिन्होंने संसद भवन सहित अपनी कई प्राचीन इमारतों को वक्त के साथ बदला है.

बीती दो-तीन सदियों में यहां भी सांसदों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी है. लेकिन उन्हें कोई नया सेंट्रल विस्टा बनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई. ऐसा इसलिए कि रेट्रोफिटिंग के जरिये इन पुरानी इमारतों को नई जरूरतों के हिसाब से बदला जा सकता है.

तो फिर 20 हजार करोड़ रु की इस परियोजना का क्या तुक है? यही नहीं, सेंट्रल विस्टा के लिए उपराष्ट्रपति के आवास सहित 15 से ज्यादा इमारतें ढहाई जाएंगी. इनमें राष्ट्रीय संग्रहालय और सिर्फ नौ साल पहले बनी विदेश मंत्रालय की नई इमारत भी शामिल है. तो सवाल ये भी कि ऐसी बर्बादी का क्या हासिल है.

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जिस जगह ये सब हो रहा है वह राजपथ और जनपथ नाम की दो सड़कों को आपस में जोड़ती है. सत्ता और लोक का यह सहज मेल तभी हो गया था जब 15 अगस्त 1947 को आजादी का जश्न मनाने के लिए लोगों का ज्वार इस इलाके में उमड़ पड़ा था. तब से आज तक यहां एक तरफ सत्ता के काम चलते थे तो दूसरी ओर विशाल खुले मैदानों में आम लोग आइसक्रीम खाते या परिवार सहित भोजन करते हुए जीवन का आनंद लेते दिखते थे.

तो कह सकते हैं कि यह परियोजना सत्ता के लोक से दूर जाने का भी एक नया उदाहरण है. और ये सब आखिर क्यों? इसलिए कि 100 साल बाद कोई जब इस इलाके में आए और पूछे कि ये शाहकार किसने बनाया था तो उसे बताया जाए कि प्रधान जी ने. बस यही सेंट्रल विस्टा का औचित्य है.

वैसे अतीत बताता है कि पांडवों से लेकर अंग्रेजों तक जिसने भी दिल्ली में अपने राज के लिए ऐसे महत्वाकांक्षी प्रबंध किए, उसका राज जल्द ही खत्म हो गया. तो जिसने भी आपको सेंट्रल विस्टा की सलाह दी है, वो यकीनन आपका शुभचिंतक तो नहीं है प्रधान जी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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