यूपी पंचायत चुनाव ने न सिर्फ मुसलमानों का, बल्कि हिंदू ओबीसी का भी भविष्य तय कर दिया

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आशीष आनंद-

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारियों में कौन सा दल कहां खड़ा है, यह जानने से ज्यादा अहम ये है कि समाज में कुछ ऐसा बदलाव आ चुका है जो सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की ओर इशारा कर चुका है। इसको दो घटनाओं से समझा जाए, पहला पंचायत चुनाव के नतीजे और दूसरा केंद्र सरकार की कैबिनेट में फेरबदल के साथ आम नीति।

पंचायत चुनाव को समझने के लिए मीडिया की थुक्का-फजीहत वाली सुर्खियों से ध्यान हटाकर यूपी राज्य चुनाव आयोग की वेबसाइट पर मौजूद दायीं तरफ चमक रहे इलेक्शन लाइव को क्लिक करिए। क्लिक करने के बाद कई लिंक के पांच बॉक्स मिलेंगे, जिनमें से एक है विनर लिस्ट यानी जीते हुए लोगों की सूची। इस लिंक को क्लिक करने पर आप जिला पंचायत अध्यक्ष, ब्लॉक प्रमुख, ग्राम प्रधान और चुने गए सभी सदस्यों की सूची पूरे विवरण के साथ देख सकते हैं।

हमने भी यही किया और इसके बाद कुछ नतीजे सामने आ गए। हर नाम को खंगालना कम समय में मुश्किल था तो जिला पंचायत और ब्लॉक प्रमुख सूची का विश्लेषण किया। हमने देखा कि पूरे प्रदेश में सभी जिला पंचायत अध्यक्ष की सीटों पर निर्विरोध या सविरोध जो भी उम्मीदवाद चुने गए, उनमें 30 अन्य पिछड़ा वर्ग से, 29 सामान्य वर्ग यानी कथित उच्च जाति से ताल्लुक रखते हैं। सीतापुर में जीतने वाली श्रद्धा सागर को नियमानुसार एसी उम्मीदवार ही माना जाएगा, भले वह हिमांशु गुप्ता की पत्नी हैं। कुल 59 सीटों पर सामान्य वर्ग और ओबीसी के उम्मीदवार जीते हैं यानी 78 प्रतिशत से ज्यादा सीटों पर।

जिला पंचायत अध्यक्ष बने कुल उम्मीदवारों में 65 भाजपा के हैं और सिर्फ 6 सपा के। चार उम्मीदवार आजाद या छाेटे दलों से ताल्लुक रखते हैं।

सामान्य वर्ग में स्पष्ट रूप से तीन ब्राह्मण और 8 क्षत्रिय वर्ण से जाहिर हो रहे हैं, जबकि कई नाम सरनेम न होने से पहचान में नहीं आ रहे। ऐसा क्यों हुआ है, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। हालांकि कथित उच्च जातियों में सरनेम लगाना फायदेमंद ही साबित होता है। सामान्य वर्ग से चुनके गए जिला पंचायत अध्यक्षों में कायस्थ या वैश्य का प्रतिनित्व भी सूची से नहीं जाहिर हो रहा या ऐसा भी हो सकता है कि उनकी बिरादरी से कोई चुना ही नहीं गया हो। एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि एक भी जिला पंचायत अध्यक्ष मुसलमान नहीं चुना गया।

इसी तरह ब्लॉक प्रमुख की 825 सीटों पर, आयोग की सूची के आधार पर 348 अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवार चुने गए हैं यानी 42 प्रतिशत से ज्यादा। ब्लॉक प्रमुखी में 12 सीटें मुसलमान उम्मीदवारों को मिलीं यानी 1.45 प्रतिशत के आसपास। उत्तरप्रदेश में मुसलमानों की आबादी लगभग 20 फीसद है, जबकि इस प्रदेश में अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक ईसाई, बौद्ध, सिख 0.60 प्रतिशत हैं। कुल मिलाकर 20 फीसद ही धर्मिक अल्पसंख्यक कहे जा सकते हैं।

ब्लॉक प्रमुखी की 825 सीटों में 625 पर भाजपा जीती हैं, इसके अलावा भाजपा के सहयोगी अपना दल एस के 9 उम्मीदवार जीते हैं। 98 सीटें सपा ने जीती हैं। बाकी रहे आजाद उम्मीदवार, जो सत्ता के साथ ही रहना पसंद करते हैं।

सीटाें पर आरक्षण के नजरिए से देखा जाए तो कुछ सीटों पर उलझन भी दिखाई देती है। आम नियम यह है कि शादी के बाद भी महिला की जाति वही मानकर आरक्षण मिलता है, जिस बिरादरी में पैदा हुई हो। इसके बावजूद कुछ सीटों पर उनको इस नियम से हटकर चुना गया है। जैसे, आयोग की सूची बता रही है कि बदायूं की ओबीसी महिला सीट पर जिला पंचायत अध्यक्ष वर्षा सिंह को चुना गया है और उनकी खुद की जाति अनारक्षित दर्ज है, उनके पति जितेंद्र सिंह यादव ओबीसी से हैं। जालौन की अनूसूचित जाति सीट पर सामान्य वर्ग के घनश्याम अनुरागी का नाम दर्ज है। बागपत में एससी महिला सीट पर ओबीसी की ममता चुनी गई हैं।

आयोग की वेबसाइट पर ब्लॉक प्रमुख बने लोगों में भी कुछ सीटें आरक्षण के नियमों का उल्लंघन करती दिखाई दे रही हैं। जैसे, प्रतापगढ़ की मांधाता सीट ओबीसी के लिए आरक्षित दिखाई गई है और चुने गए हैं सामान्य वर्ग के मोहम्मद इसरार, इसी जिले की संडवा चंद्रिका की ओबीसी महिला सीट पर सामान्य वर्ग की तारा देवी चुनी गई हैं।

सामान्य वर्ग की सीट पर आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार चुनाव लड़ सकते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं। फिर भी एक गौर करने लायक तस्वीर यह है कि आमतौर पर या तो अनारक्षित सीटों पर अनारक्षित उम्मीदवार ही चुने गए हैं या फिर हिंदू ओबीसी के। इन हिंदू ओबीसी में भी एक हद तक समृद्ध हुई जातियों कुर्मी, यादव, मौर्य ही ज्यादा हैं। सामान्य सीटों पर एससी या एसटी उम्मीदवार चुनने के दो-तीन ही अपवाद हैं, वो भी ब्लॉक प्रमुख स्तर पर। सोनभद्र के दुद्धी और हरदोई के कोथावां की सामान्य सीटों पर ही एससी उम्मीदवार चुने गए हैं।

ग्राम प्रधान स्तर पर आरक्षण के लिए लोग ज्यादा चौकन्ने रहते हैं, लेकिन यह प्रवृत्ति यहां भी दिखाई दे रही है कि सामान्य सीटों पर ज्यादातर हिंदू ओबीसी उम्मीदवार ही जीते हैं। मुसलमान ग्राम प्रधान अमूमन वहीं बने हैं, जहां मुस्लिम बहुल गांव हैं और मुख्य प्रतिद्वंद्वी मुसलमान ही रहे हों।

इन आंकड़ों से कुछ नतीजे निकलते हैं, जिनका राजनीतिक महत्व है। एक तो यह कि ब्लॉक से लेकर जिला स्तर की राजनीति में मुसलमानाें का प्रतिनित्व या उनकी सामुदायिक आंकाक्षा लगभग खारिज हो गई है या इस कगार पर है। यही तस्वीर आने वाले समय में विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में भी दिखने की संभावना है। स्वतंत्र तौर पर मुसलमान दो-चार सीट पर ही विधानसभा चुनाव जीतने की उम्मीद कर सकते हैं, बशर्ते पार्टियां टिकट दें तब।

सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय के अनुसार उत्तरप्रदेश में एससी आबादी 20 प्रतिशत से ज्यादा है। इस आबादी में अधिकांश का रुख स्पष्ट है कि या तो वे अपने समुदाय की भलाई चाहने वाले दल को वोट देंगे, विकल्प न मिलने पर किसी भी दल के एससी उम्मीदवार को वोट देंगे। सामान्यत: भाजपा और सपा से उनका कोई लगाव नहीं है। वाल्मीकि समुदाय हिंदुत्व की राजनीति की ओर झुका हुआ है, जिनके अलग कारण हैं।

दूसरा, उत्तरप्रदेश के देहात में राजनीति टकराव पहले हिंदू ओबीसी-एससी वर्ग के बीच खासा तीखा हुआ करता था, जो अब हिंदू ओबीसी और मुसलमानों के बीच शिफ्ट हो गया है। इसका कारण यह दिखाई पड़ता है कि दो-तीन दशकों में हिंदू ओबीसी आरक्षण से आर्थिक तौर पर सशक्त हुए हैं और उनकी आकांक्षा सियासत में दबदबा बनाने की ओर गई है।

दूसरी ओर, मुसलमानों के आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने और राजनीति में मौजूदगी के बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के चलते हिंदू ओबीसी को, वे प्रतिद्वंद्वी महसूस होते हैं। जातिवादी सामाजिक संरचना और उसकी मानसिकता से भी मुसलमान, नए समृद्ध वर्ग के निशाने पर हैं।

राजनीतिक आकांक्षा का आलम यह है कि हिंदू ओबीसी अपनी समृद्धि के मुख्य आधार, आरक्षण को भी नहीं देख पा रहा है। ग्राम प्रधान, ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत अध्यक्ष, विधायक, सांसद उनको मिल रहे हैं, लेकिन आरक्षण बचाकर और समृद्धि हासिल करने को नेता नहीं हैं। जो हैं, वे आरक्षण समाप्ति की नीतियों में योगदान दे रहे हैं।

यह बात निराधार बिल्कुल नहीं है। मिसाल के तौर पर उत्तरप्रदेश का बरेली जिला ही देख सकते हैं। चार दशक पहले यहां कुर्मी जाति का राजनीति में बोलबाला नहीं था। सामाजिक तौर पर देखें तो एकाध जगह जहां इस बिरादरी के किसी के पास छोटी-मोटी जमींदारी थी तो वह राजनीति में कुछ सक्रिय रहा। जैसे, नवाबगंज क्षेत्र में चेतराम गंगवार कांग्रेस से थे और विधायक-मंत्री भी बने।

हालांकि, ढाई-तीन दशक पहले तक इस कुर्मी बाहुल्य क्षेत्र के कुर्मी अपनी जाति को बताने में हिचकते थे, गंगवार सरनेम ज्यादा सम्मानजनक लगता था। पढ़ने-लिखने से धीरे-धीरे कुछ लोग खेती के साथ सरकारी नौकरी में भी जा रहे थे, लेकिन अभी यह प्राइमरी के टीचर या इसी स्तर की नौकरियां थीं। जैसे-जैसे यह स्तर सुधर रहा था, राजनीति में नए चेहरे भी उभरना शुरू हुए। आठवीं बार सांसद चुनकर कई बार मंत्री रहे संतोष गंगवार इसी दौर में उभरे। इसी क्षेत्र से फिर भगवत सरन गंगवार, केसर सिंह गंगवार, वीरेंद्र सिंह, छत्रपाल गंगवार समेत कई नेता बने।

दरअसल, मंडल कमीशन ने ओबीसी आरक्षण से तरक्की की छलांग लगवा दी। इसके बाद यहां से डॉक्टर, इंजीनियर, आइएएस या अन्य पेशों-नौकरियों में जाने के रास्ते खुल गए। पूर्व मंत्री चेतराम गंगवार की ग्रामसभा के दूसरे गांव हिमकरपुर चमरौआ में उनके खास रहे शिक्षक सोहनलाल गंगवार के बेटे महेंद्र सिंह गंगवार ने जब मेडिकल परीक्षा पास करके एमबीबीएस में दाखिला लिया। डॉक्टर बने।

यह देख नई पीढ़ी इसी तरह के ख्वाब बुनकर आगे बढ़ने को कुलांचे मारने लगी। इसके बाद इस गांव में या पड़ोसी गांव में कई ने कोशिश की। आज डॉक्टर महेंद्र का बरेली शहर में अस्पताल है, उनके पास ही डॉक्टर उमेश गंगवार का अस्पताल है, डॉ. रघुनंदन प्रसाद गंगवार पीजीआई लखनऊ में एसोसिएट प्रोफेसर हैं और रेडियोलॉजी के सुपरस्पेशलिस्ट हैं। यहां से आइएएस और इंजीनियर भी हैं।

इसी तरह बरेली के दूसरे इलाकों में भी तरक्की की यह छलांग लगी। अच्छी नौकरी, कारोबार के साथ ही राजनीति में भी दबदबा हो गया। अब कुर्मी कहलाना शर्म की बात नहीं है, कुर्मी सरनेम लगाना दबदबे की पहचान है। कुर्मी बिरादरी के इस वैभव की झलक देखने को कोई भी इज्जतनगर मिनी बाईपास के आसपास जाकर देख सकता है। अस्पतालों की कतार और कॉलोनियों में घर या कारोबार इस उन्नति की गवाही देंगे।

तरक्की हर स्तर पर हुई, लेकिन सियासत की पींगे बढ़ाते समय वे संतोष गंगवार, जिनको वोट देते वक्त सबने सोचा कि अपना मारेगा तो छांव में तो डालेगा, उन्हीं के हाथों मार्च 2018 में तय अवधि रोजगार की व्यवस्था केंद्र की मोदी सरकार ने करा दी, जिसमें पक्की नौकरी नहीं, कुछ अंतराल की सेवाएं होंगी। इसमें आरक्षण व्यवस्था का भी कोई फायदा नहीं मिलेगा।

Dr. Raghunandan Gangwar

नए लेबर कोड भी नौकरी को दुश्वार करेंगे, जिनको संतोष गंगवार के जरिए ही संसद में पास कराया गया। यह सब होने के बाद संतोष गंगवार अब श्रम व रोजगार मंत्री नहीं हैं। हाल ही में उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया, हालांकि कैबिनेट में उन्हें कभी शामिल ही नहीं किया गया था। संतोष गंगवार शुरू से आज तक भाजपा के साथ ही जुड़े हैं।

पंचायत चुनाव में हिंदू ओबीसी के दबदबे और उनके भाजपा के साथ जुड़े होने की गवाही जीत के आंकड़ों, भाजपा नेताओं के बयान मीडिया की सुर्खियों में हैं। पंचायत चुनाव के तत्काल बाद जनसंख्या नियंत्रण मसौदे का ऐलान हुआ, जिसमें दो बच्चों वाले लगभग 40 प्रतिशत हिंदू ओबीसी सरकारी लाभ और राजनीति की सीढ़ी नहीं चढ़ पाएंगे। इसके बाद नीट मेडिकल परीक्षा की तारीख 12 जुलाई को घोषित कर दी गई, जिसमें ओबीसी आरक्षण को सिफर कर दिया गया। वही रास्ता जिससे बरेली ने तरक्की का रास्ता यहां तक बनाया।

मेडिकल प्रवेश में ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर सोशल मीडिया पर कुछ शोरशराबा हुआ तो सरकार ने इतना और बता दिया कि हाईकोर्ट मद्रास में एक केस है, जिसके फाइनल होने तक केंद्र के संस्थानों में आरक्षण मिलता रहेगा, लेकिन राज्यों में नहीं मिलेगा। यह केस कब तक चलेगा, यह कौन जाने।

इस समुदाय (OBC) के पास अब नेता भरपूर हैं। उत्तरप्रदेश में तीन स्तर की पंचायतों में बड़ी संख्या के साथ ही मोदी सरकार की नई कैबिनेट में 27 मंत्री ओबीसी के हैं। लेकिन कोई भी ओबीसी के भविष्य को लेकर बोलने की चाहत नहीं रखता या साहस नहीं है, सब खामोश हैं। भाजपा के उत्तरप्रदेश प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी हैं, मेडिकल प्रवेश में आरक्षण जीरो करने वाले ओबीसी, प्रधानमंत्री ओबीसी, लंबे समय से श्रम और रोजगार मंत्री रहे संतोष गंगवार आज भी सांसद हैं।

उत्तरप्रदेश में तो मुख्य विपक्षी दल सपा नेतृत्व भी ओबीसी है, मुख्यमंत्री रहे अखिलेश यादव पंचायत चुनाव में बेईमानी को रो रहे हैं, जिन्हें पिछले विधानसभा चुनाव में हार के बाद खुद के पिछड़ा वर्ग का सदस्य होने का अहसास हुआ था। हालांकि, वे बाद में प्रयागराज कुंभ में गोता लगाने से नहीं चूके और न कोरोनाकाल में हरिद्वार जाकर शंकराचार्य के पांव पड़ने से।

एक दिन पहले अखिलेश यादव दक्षिण भारत की जगन्नाथ यात्रा की ट्वीट कर बधाई दे रहे थे और ओबीसी के हितों पर चली ‘कैंची’ पर कोई बयान नहीं आया। बहुजन राजनीति का दम भरने वालीं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी कहां इस मुद्दे पर बोलीं, जबकि बहुजन आंदोलन में ओबीसी को भी बिरादर माना जाता है।

आगामी विधानसभा चुनाव से पहले कांवड़ यात्राओं का नेतृत्व भी हिंदू ओबीसी को करना है। भाजपा के कर्णधार वही हैं। पंचायत चुनाव में सामान्य वर्ग से इसलिए विजयी चेहरों में ज्यादा नहीं हैं, क्योंकि वे तो पार्टी के साथ हैं ही। एससी को भी ज्यादा तवज्जो नहीं मिली, क्योंकि वे दलित आंदोलन के प्रभाव में हैं।

हिंदू ओबीसी को सियासी चस्का लगा है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सियासत में पार्टी का निशाना और हिंदू ओबीसी का स्थानीय प्रतिद्वंद्वी समुदाय मुसलमान एक ही है। यूपी में भाजपा ने पिछले चुनाव में 45 प्रतिशत वोट हासिल किए थे, जिनमें कथित उच्च जातियों के अलावा हिंदू ओबीसी और एससी के रहे। पंचायत चुनाव का रुख बता रहा है कि हिंदू ओबीसी क्या करने वाला है।

कुल मिलाकर हिंदू ओबीसी सियासत की ‘सिंहासन बत्तीसी’ धारावाहिक के आनंद में खोया है, उनके सभी नेता ‘विक्रमादित्य’ बनकर न्याय करने का दावा करते हैं। यह न्याय कब और किसके लिए होगा, इसका अंदाजा या तो नहीं है या फिर कोई गुमान है या फिर साहस नहीं बचा या समझ नहीं है। यह सवाल ही हैं। सियासत की यह उड़ान उन्हें कहां पहुंचाएगी या गिराएगी, यह वक्त बताएगा।


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