क्या 83 प्रतिशत हिंदू बनेंगे दो बच्चा नीति का शिकार, या फिर कुछ और!

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आशीष आनंद-

भाजपा की नई प्रयोगशाला उत्तरप्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण कानून खासी चर्चा में है। नए मसौदे के मुताबिक नौकरी उन्हीं को मिलेगी, जिनके दो बच्चे होंगे, निकाय चुनाव में भी दो बच्चों से ज्यादा परिवार वाले हिस्सा नहीं ले सकते। बात यहां तक है कि किसी भी सरकारी सुविधा को लेने वाले, दो बच्चों से ज्यादा वाले नहीं होंगे।

हालांकि, कई बातें स्पष्ट नहीं हैं, जैसे जिनकी शादी ही नहीं हुई हो या बच्चे न हों तब क्या होगा, या ये सुविधाएं हासिल कर लेने के बाद तीसरी संतान हो तब क्या होगा। कटाक्ष यह भी है कि भारत में आमतौर पर नौकरी मिल जाने के बाद शादी करने का चलन है तो यह लक्ष्य कैसे हासिल होगा।

बहरहाल, सामान्य बात इतनी तो ठीक है कि मानव आबादी नियंत्रित होने में कोई बुराई नहीं। यह किसी एक देश में ही नहीं, बल्कि पूरी पृथ्वी के लिए भी जरूरी है। एक मानव ही तो है जिसकी संख्या बढ़ती गई है और बढ़ती जा रही है। कोरोना की भयावह महामारी में इतने लोग मर गए, लेकिन पृथ्वी की कुल आबादी में इजाफा तब भी हो गया, हो रहा है।

भारत में भी आबादी तो लगातार बढ़ ही रही है, लेकिन इसके बढ़ने की दर दो बच्चों के आसपास ही आ चुकी है। मैक्रोट्रेंड का डाटा देखिए।

2021 में भारत की वर्तमान प्रजनन दर प्रति महिला 2.179 जन्म है, जो 2020 से 0.95% कम है।
2020 में भारत में प्रजनन दर प्रति महिला 2.200 जन्म थी, 2019 से 0.9% की गिरावट।
2019 में भारत में प्रजनन दर प्रति महिला 2.220 जन्म थी, जो 2018 से 0.89% कम है।
2018 में भारत में प्रजनन दर 2.240 प्रति महिला थी, जो 2017 से 1.37 फीसदी कम है।

आप अपने आसपास के परिवारों को देखिए, वो हिंदू हों या मुसलमान या किसी दूसरे धर्म के। पुत्र प्राप्ति की आकांक्षा के बावजूद संतानों की संख्या ज्यादा होना नहीं दिखेगा। इससे पिछली पीढ़ी में यह आम बात थी कि बच्चों की संख्या ज्यादा रहती थी।

एक वास्तविक मिसाल बताते हैं। उत्तरप्रदेश के एक गांव में हिंदू सामान्य वर्ग के एकल परिवार वाले दंपत्ति के सात बच्चे थे, पांच बेटियां और दो बेटे। दंपत्ति शिक्षित थे और बच्चों को भी पढ़ाया। दंपत्ति की सरकारी नौकरी भी थी। सात संतानों में अब दो की पांच-पांच संतानें हैं, एक की तीन और चार की दो-दो संतानें हैं। सातों में किसी की भी सरकारी नौकरी नहीं लगी और न ही उनकी संतानों को सरकारी नौकरी मिली। तीसरी पीढ़ी के कुछ बच्चे हाथ-पांव मार रहे हैं नौकरी के लिए या फिर बच्चों की पढ़ाई मुश्किल हो चुकी है।

आखिर किन सुविधाओं की बात हो रही है, जो सरकार पर बोझ हैं। दो बच्चे वालों को ही नौकरी देने की बात क्यों हो रही है, उनको सरकारी नौकरी की गारंटी क्यों नहीं दे रही सरकार। शिक्षण संस्थाओं को निजी हाथों में या तो सौंप दिया गया या बची-खुची सौंपी जा रही हैं। एक सरकारी गल्ले की बात हो सकती है, जो सबको नहीं मिल पाता।

भुखमरी का इंडेक्स खुद ही बता रहा है कि भारत की 80 फीसद आबादी की हालत पांच किलो गेहूं-चने पर निर्भर हो चुकी है। आंकड़े बता रहे हैं कि भारत नाइजीरिया को पीछे छोड़ चुका है, जहां मवेशी चोर डकैत आतंक फैलाए हैं, बांग्लादेश से नीचे भारत की प्रति व्यक्ति आय हो चुकी है, जिसका निर्माण ही भारत के सौजन्य से हुआ।

एक काल्पनिक किस्म के सांप्रदायिक भय की राजनीति से कई लोगों को संतुष्टि हो सकती है कि मुसलमानों की चार बीवियां और चालीस बच्चे होते हैं। यह कहना सरल है, लेकिन हकीकत क्या है। मुस्लिम बहुल मुहल्ले या गांव में जाइए, चार बीवी वाले कितने शौहर हैं, पता करिए। मौजूदा पीढ़ी में बच्चों की संख्या भी गिनी जा सकती है।

यह सच है कि इस्लाम में प्रजनन को रोकने की कोशिश पर पाबंदी है। लेकिन व्यवहारिक सच्चाई यह है कि जिंदगी की चुनौतियां ऐसी हैं कि बच्चों की संख्या कम रखने पर ही जोर है, सब जगह। यही वजह है कि देश के 35 जिलों में मुसलमानों की प्रजनन दर नकारात्मक हो गई है और उत्तरप्रदेश जैसे विशाल जनसंख्या वाले सूबे में भी यह दर स्थिर है। यहां तक कि मुसलमानों की अच्छी आबादी वाले राज्यों में प्रजनन दर काफी नीचे जा चुकी है।

फिर भी, दो बच्चे वालों से ज्यादा संतान होने पर अगर लाभ नहीं मिलेगा तो उत्तर प्रदेश में किस धर्म के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। जवाब है- हिंदू। आंकड़ों के आधार पर इंडिया टुडे के पूर्व संपादक दिलीप मंडल का कहना है कि उत्तरप्रदेश में जिनके दो से ज्यादा बच्चे हैं, उनमें 83 प्रतिशत हिंदू हैं।

इन हिंदुओं में अन्य पिछड़ा वर्ग के 39.5 प्रतिशत, अनुसूचित जाति के 21.6 प्रतिशत, उच्च या सामान्य जाति वर्ग के 11.6 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति वर्ग के 10.2 प्रतिशत हैं, जिनकी दो से ज्यादा संतानें हैं। इसी उत्तर प्रदेश में 13 प्रतिशत मुसलमान हैं, जिनके दो से ज्यादा बच्चे हैं।

इन आंकड़ों के आधार पर तीन नतीजे निकलते हैं। एक, सबसे ज्यादा प्रभावित हिंदू होंगे इसलिए यह कानून लागू ही नहीं होगा। दो, 13 प्रतिशत मुसलमानों को कोई लाभ इस आधार पर न देकर यह हिस्सा हिंदू वर्ग की झोली डाल दिया जाए, जैसे पाकिस्तान बनने पर सरकारी मुलाजिम मुसलमानों की नौकरियां देश की सर्वोच्च जाति में बंट गईं थीं, ऐसा होने पर प्राथमिकता अभी भी वही रहेगी, क्योंकि सामाजिक ढांचा वही है। तीन, इतनी संख्या को लाभ देने से छुटकारा पा लिया जाए।

मंडल कमीशन के वक्त जो शोरशराबा हुआ, उसमें सर्वोच्च जाति ने अन्य उच्च जातियों को भड़काया कि आरक्षण से तुम्हारे मौके छिन जाएंगे, जबकि छिनना उसी से थे, जिसके पास बंटवारे के बाद सबसे ज्यादा मौके जमा हो चुके थे। यह आरक्षण व्यवस्था पूरी तरह लागू तो नहीं हुई, लेकिन कुछ लाभ तो हुए ही।

उत्तर प्रदेश के देहात में कुछ संपन्न हुए अन्य पिछड़ा वर्ग को मुसलमानों की तरक्की नहीं पच पाती। इसका कारण उनके पास आई संपन्नता और राजनीतिक रूप से बनाया गया सांप्रदायिक दिमाग है। अब उन्हें कामकाजी और हुनर के धंधों से जुड़े ज्यादातर मुसलमानों का हिस्सा अखरता है।

अधिकांश नगर पंचायत या कस्बाई जगहों पर जरूरतमंदी के कारोबार में मुसलमान ही हैं, उनका बहुमत भी उन जगहों पर मिलेगा। यह टकराव इसी स्तर पर है। अर्थव्यस्था ढेर तो राजनीति भी ढेर। घोर देहात में ओबीसी का टकराव एससी से भी है, जहां उनकी आबादी चुनौती देती है या आर्थिक संपन्नता और सामाजिक स्तर उठा है।

इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि ओबीसी को खाद-पानी देकर पहले मुसलमान और फिर एससी-एसटी किनारे किए जाएं और फिर ओबीसी भी, क्योंकि 39.5 प्रतिशत तो वही हैं, जिनके दो बच्चे हैं। इस तरह भारतीय जनता पार्टी का कोर मतदाता सवर्ण और उसमें भी सर्वोच्च जाति खुश हो जाएगी और सामाजिक जिम्मेदारियों से छुटकारा भी पा लिया जाएगा, जिससे कारपारेट जगत की बाधाएं खत्म हो जाएं।

राजनीति, आर्थिक और सामाजिक निष्कर्ष यह नहीं तो क्या होंगे। दो बच्चा कानून का प्रयोग फेल हो चुका है, यह तो सरकार भी जानती है। लैंगिक अनुपात पहले ही बिगड़ा हुआ है, जो और बिगड़ जाएगा। चार बीवियां रखने की न जरूरत है, न हैसियत और न वास्तविक आधार। मुसलमानों में 1000 पुरुषों पर 951 महिलाओं का अनुपात है। दोनाें बराबर हो जाएं तो हर किसी की एक-एक से शादी हो सकती है।

दो बच्चा नीति फेल हो चुकी है, यह चीन के प्रयोग ने साबित किया है। यह नीति चीन ने माओत्से तुंग के बाद 1979 में लागू की। बंदिशों और दंड का नतीजा यह रहा कि यहां लैंगिक अनुपात बुरी तरह गड़बड़ा गया। अब चीन नीति को भूलकर इस मुसीबत को दुरुस्त करने की मशक्कत कर रहा है। भारत में तो यह जबरन लागू हो गया तो कन्या भ्रूण हत्या का सिलसिला भी तेज होने की संभावना प्रबल है।

तब क्या देश सिर्फ ‘लल्ला लल्ला लोरी’ गाएगा, ‘बेटी है तो कल है’ भूल जाएगा। बहुपति प्रथा लागू होगी या पुरुष समलैंगिक जीवन आम होगा या फिर क्लोन से बच्चे जन्मेंगे।

यह सवाल भी हैं और कल्पना भी, कि आखिर होने क्या जा रहा है।


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