अतीक खान
आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस है. एक दिन पहले ही पत्रकार समृद्धि और स्वर्णा झा को त्रिपुरा से जमानत मिली है. दोनों सांप्रदायिक हिंसा की ग्राउंड रिपोर्ट करने पहुंची थीं. जहां उन्हें हिरासत में ले लिया गया. गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज किए. पत्रकार सिद्दीकी कप्पन पिछले एक साल से जेल में बंद हैं. कई और पत्रकार भी जेल में हैं, तो कुछ संस्थाओं के निशाने पर.
लेकिन ये खतरनाक नहीं है. खतरनाक तो मैनस्ट्रीम मीडिया है, जो समाज के मूल मुद्दों को गायब करके फिजूल की बहसों में उलझाए है.
”देश में ऐसे कम ही पत्रकार बचे हैं. जिन्हें ये फिक्र हो कि, सच्चाई की थोड़ी लाज रखनी चाहिए. मक्खन-रोटी के लिए दिनभर रंग बदलना अच्छा नहीं. अफसोस! मीडिया और पत्रकारों का यही ढर्रा बन चुका है. अखबार मशीन की शक्ल ले लेंगे. और पत्रकार इन मशीनों के पुर्जे बन जाएंगे. इंसान न रहेगा. न ही सच और झूठ का भेद.”
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पत्रकारिता पर खतरे की इस आहट को गणेश शंकर विद्यार्थी 100 बरस पहले भांप गए थे. उन्होंने पत्रकारिता के छात्रों को इससे आगाह किया. और पंडित विष्णुदत्त शुक्ल की पुस्तक, ‘पत्रकार-कला’ की प्रस्तावना में ये टिप्पणी लिखी.
सदी गुजर गई. विद्यार्थी जी भी हमारे बीच नहीं हैं. वे हिंदी पत्रकारिता की शान थे. लेकिन पत्रकारिता के हश्र पर उनकी सोच और चिंतन का अंदाजा लगाइए. कितनी सटीक भविष्यवाणी है उनकी. आज पत्रकारिता और पत्रकारों का चाल-चरित्र, चेहरा-सब सामने है. देख लीजिए. कुछ भी रहस्य नहीं.
Being an ex IAS, I am ashamed of this unruly behaviour of my service colleague. Few similar incidents have also been reported in the past from different parts of the country.
LBSNAA need to relook at its training process before its too late. pic.twitter.com/siW5SZsPRi
— Surya Pratap Singh IAS Rtd. (@suryapsingh_IAS) July 11, 2021
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उन्नाव की घटना पत्रकारिता के क्षरण की सनद है. चीफ डेवलपमेंट ऑफिसर (CDO) दिव्यांशु पटेल, जोकि एक IAS अधिकारी हैं-ने पत्रकार कृष्णा तिवारी को बुरी तरीके से दौड़ाकर पीटा. राजनीतिक स्तर पर खूब शोर-शराबा मचा.
स्थानीय पत्रकारों की जमात सीडीओ-प्रशासन के खिलाफ डट गई. धरना-प्रदर्शन, नारेबाजी सब हो गया. आखिर में सीडीओ दिव्यांशुए पत्रकार कृष्णा तिवारी के पास पहुंचे. अपने किए पर खेद जताया. मिटाई खिलाई. और इस तरह रजामंदी से विवाद का पटाक्षेप हो गया. अच्छा रहा. सुलह-समझौता जरूरी है.
चलो उन लोगों की शिकायत दूर हो गयी जो यह कह रहे कि नोयडा में बैठने वाले पत्रकार लड्डू खाते हैं, और जिलों से रिपोर्टिंग करने वाले कूटे जाते हैं।
चलो आज जिले वाले को भी लड्डू खाने को मिल गया। https://t.co/h3eW5E2BeN— Nadeem (@nadeemNBT) July 11, 2021
लेकिन ये घटना पत्रकार कृष्णा तिवारी बनाम सीडीओ दिव्यांशु पटेल की है ही नहीं. बल्कि ये पत्रकारीय आपदा का एक मामूली सा दाग है. दरअसल, पत्रकार-अफसर और नेता. सब एक ही जमात के हैं. सो, इनके बीच का झगड़ा अधिकारी बनाम पत्रकार या पत्रकार बनाम नेता का, बनता ही नहीं है. न ही जनता को आह्त होने की जरूरत है. क्योंकि पत्रकार ही जन-सरोकारों की दम घोंट चुके हैं.
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विद्यार्थी जी ‘पत्रकार-कला’ की पुस्तक की प्रस्तावना में ही इस पर एक टिप्पणी लिखते हैं. ” दुनिया के ज्यादातर अखबार दौलत कमाने. झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने में जुटे हैं. उसी तरह जैसे संसार के बहुत से चरित्रशून्य व्यक्ति. बड़े अखबार अमीरों के हैं. किसी खास पार्टी की प्रेरणा से ही इनका निकलना संभव है.”
”अपने मालिक या दल के खिलाफ सच कहना तो छोड़िए. उनके पक्ष-समर्थन में हर जतन, तमाम हथकंडे अपनाना ही इनका एकमात्र काम बचा है. इसमें इतना मग्न हो गए हैं कि सच्चाई का रत्ती भर ख्याल नहीं है. वे अपने मतलब की बात दिखाते हैं. मसलन, दुनियाभर में ये हो रहा है. चंद अखबारों को छोड़कर सभी ऐसा कर रहे हैं.”
इसलिए जनता को इस बात से रत्ती भर भी नहीं डरना चाहिए कि पत्रकार पीटे जा रहे हैं. तो उनका क्या हाल होगा? यह अफसोसनाक है, लेेकिन इस सच से भी वाकिफ हो जाना चाहिए मीडिया संस्थानों का अफसर-नेताओं के साथ गठजोड़ है. जिसे आप याराना कह सकते हैं.
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इन संस्थानों में अब पत्रकार नहीं हैं, सूत्र हैं. वे सूत्र भी अपनी हैसियत के अुनसार गठजोड़़ कर जीवनयापन करते हैं. जो गरीब बच्चों को नमक-रोटी वाले मिडडे मील की खबर देते हैं, वे जेल चले जाते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार आशीष आनंद कहते हैं कि ” अब जन-पत्रकारिता से जन बाहर हो चुका है, चेहरों और हैसियत का बखान हो रहा है. और पत्रकार धर्म निभाने की जगह निजी जान-पहचान को तवज्जो दे रहे हैं. अफसर जो बताएंगे वो लिखेंगे. जो बयान देंगे वही आखिरी सच है. नेता जी कुछ बोल दें, वो सब खबर है उनके लिए.
वह कहते हैं-”अब आम लोगों की तकलीफ और जरूरत जानने और लिखने की फुर्सत नहीं है. ट्वीटर ट्रेंड पर राष्ट्रीय खबरें बनती हैं. इसी का नतीजा है कि पत्रकारों और पत्रकारिता बिना नाखून और दांत का शेर हैं. जो जनता के आगे गुर्रा रहा है और मालिकों के सामने दुम हिला रहा है. ”
डिजिटल मीडिया में शिफ्ट होता जन विश्वास
पत्रकारीय आदर्शों की शून्यता के बीच डिजिटल मीडिया, जन-सरोकारों की विश्वास बहाली के तौर पर तेजी से उभर रहा है. लेकिन इस पर तमाम संकट है. पहली आफत को विद्यार्थी जी के शब्दों में समझ लीजिए.
विद्यार्थी जी लिखते हैं-,” आपके पास कितना ही शानदार विचार क्यों न है. लेकिन पैसा या धनवानों का बल नहीं है. तो आपका विचार आगे नहीं पहुंचेगा. देश में मीडिया का आधार धन हो रहा है. धन की बुनियाद पर ही वे चलते हैं. बेहद तकलीफ के साथ कहना पड़ रहा है कि उनमें काम करने वाले तमाम पत्रकार भी धन की ही अभ्यर्थना करने लग गए हैं.”
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विद्यार्थी जी का कथन है कि अभी संपूर्ण अंधकार नहीं हुआ. रौशनी के सुराग बाकी हैं. आज उन सुरागों को आप स्वतंत्र डिजिटल मीडिया संस्थान के तौर पर देख सकते हैं. जो सत्ता से जनता के सवाल पूछने का साहस कर रहे हैं.
लेकिन इसका अंजाम भी भुगत रहे. वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ, मनदीप पूनिया, जाकिर अली त्यागी, सिद्दीकी कप्पन, सिद्धार्थ वरदराजन, ऐसे तमाम पत्रकार हैं, जो निशाने पर रहे हैं या रहते हैं.
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स देख लीजिए
पत्रकारों की स्थिति पर हर साल प्रेस फ्रीडम इंडेक्स जारी किया जाता है. रिपोर्ट भारतीय प्रेस की चिंताजनक तस्वीर दिखाती है. 180 देशों की सूची में भारत 142वें स्थान पर है. जबकि इससे पहले 2017 में 136वां स्थान था. 2018 में 138वां और 2019 में 140वां नंबर रहा था. हाल के दिनों में देश के कई हिस्सों में दर्जनों पत्रकारों के खिलाफ मामले दर्ज हुए हैं.
पत्रकारिता की आजादी पर लगता ग्रहण
हाल ही में रिपोर्ट्स विदाउथ बॉर्डर्स ने एक रिपोर्ट जारी की है. जिसमें ऐसे देशों के शासकों के नाम छापे हैं, जो रिपोर्ट के अनुसार-जिनके शासनकाल में, ‘प्रेस की आजादी पर हमला’ हो रहा है. बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसमें पीएम मोदी का भी चेहरा शामिल है.