इबलीस की खंभा प्रेस: पत्रकारिता की 100 साल पुरानी मिसाल

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अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने का प्रयास कितना भी किया जाए, लोग रास्ता निकाल ही लेते हैं। ऐसा अंग्रेजों के जमाने में बरेली शहर में हुआ। ये वाकया है 1920 के बाद का, जब असहयोग आंदोलन चला और ठंडा हो गया। निराशा और उलझन के बीच गुस्से का माहौल था। सरकारी बंदिशों के बीच आम लोगों की आवाज घुंट रही थी।

इसी समय उत्तरप्रदेश के बरेली शहर में एक पत्रकारिता चिंगारी निकली, जो देखते ही देखते शोला बन गई। जिसमें कई कॉलम की फिजूल खबरें नहीं, बल्कि चंद लाइनों में वो बात कह दी जाती, जिससे अंग्रेज सरकार और उसके स्थानीय चाटुकार तिलमिला जाते।

बरेली के कुछ पुराने लोग बताते हैं कि आजादी के आंदोलन के दौर में एक ‘खंभा प्रेस’ हुआ करती थी, जिसका वजूद लगभग 1940 तक बना रहा। इसका जिक्र अब्दुल लतीफ अदीब की ‘चंद चौराहे बरेली के’ किताब में भी किया गया है। ये खंभा प्रेस भी गजब की थी। न कोई प्रिंटिंग प्रेस, न पत्रकार, न संपादक। एक तरह की दीवार पत्रिका जैसी। तब लैंप पोस्ट हुआ करते थे।

चौराहे के लैंप पोस्ट वाले खंभे पर कोई चुपके से बड़ा सा पोस्टर टांग जाता था। उस पोस्टर में बरेली की किसी घटना या किसी मामले पर कटाक्ष होता था, वह भी शायरी के अंदाज में। इसकी शुरुआत की अंग्रेजों के डाक विभाग में सेंसर विभाग में कर्मचारी रह चुके मोहम्मद नाम के शख्स ने। उन्हें अंग्रेजों और उनके भारतीय पिट्ठुओं से जब नफरत हुई तो नौकरी छोड़ दी थी।

खंभा प्रेस पर इनकी खरी-खरी बातों से खफा होकर अंग्रेजों के चाटुकारों ने उनका नाम ‘इबलीस’ रख दिया, मतलब शैतान। इसी वजह से इस प्रेस को ‘इबलीस की खंभा प्रेस’ कहा जाने लगा। पहले कुतुबखाना चौराहे के पास गली नवाबान पर खंभा प्रेस थी। पहरा बिठाया गया तो दूसरे लैंप पोस्ट पर ठिकाना बना लिया। बताया जाता है कि इबलीस के अलावा भी कुछ लोगों ने इस परंपरा को कुछ अरसे तक कायम रखा।

इस प्रेस की लोकप्रियता जबर्दस्त थी। कहते हैं लोग सुबह ही लैंप पोस्ट पर जमा हो जाते कि देखें आज क्या लिखा है खंभा प्रेस पर।

एक बार एक दलाल किस्म के आदमी जिसका निक नेम ‘चिरौटा’ था, उसने कांग्रेस की सदस्यता ले ली और नेतागिरी करने लगा। इस पर खंभा प्रेस में लिखा गया-

चिरौटे के सर पर कजा खेल रही है

हाथ थक गया अब छुरी दंड पेल रही है

बताया जाता है कि एक बार एक जलसा बहेड़ी में होने वाला था जिसकी अध्यक्षता किन्हीं शेख जी को करना थी, जो अंग्रेजों के खास थे। इस पर लिखा गया-

सुना बहेड़ी में जलसा होने वाला है

जिसका सद्र कलेक्टर का साला है

इस बात से खफा होकर कुछ लोग अंग्रेज कलेक्टर से शिकायत करने पहुंच गए और बताया कि कलेक्टर का साला बताया है ‘इबलीस’ ने।

कलेक्टर ने पहले तो साले का मतलब पूछा। जब बताया गया कि पत्नी का भाई, तो कलेक्टर ने अपनी पत्नी को बुलाकर पूछा कि क्या आपको इन्हें भाई मानने से ऐतराज है? उन्होंने कहा, नहीं। इस पर कलेक्टर ने कहा कि आप लोग नाराज न हों, ये शेख जी को भाई मानने को तैयार हैं।

ऐसी ही कई बातें हैं इस ‘इबलीस की खंभा प्रेस’ की, जिनकी तलाश को तमाम मशक्कत की दरकार है। हालांकि अब हिंदी पत्रकारिता जिस तरह से चाटुकारिता के सभी पुराने रिकॉर्ड तोड़ रही है, उसमें ऐसी पत्रकारिता को तवज्जो मिलने से रही। फिर भी जिनको आम लोगों की तकलीफ से सरोकार है, वे इस वाकये से सीख सकते हैं कि बात कहने के हजार रचनात्मक तरीके हो सकते हैं।

स्रोत: फेसबुक पेज इबलीस की फेसबुक प्रेस से साभार

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