जॉन एलिया के ख़्यालात ज़ाहिर करने वाले शे’र

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जॉन एलिया का मानना था कि जिस समाज में ज्यादातर लोगों की जिंदगी गमगीन हो, वहां रोमांस जैसे विषय पर लिखते फिरना गैरजिम्मेदाराना रवैया है। साहित्य में भी सही-गलत चुनना ही पड़ेगा। हमारे आसपास जो है, उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि हम उसी समाज का हिस्सा हैं।

(Thoughts of John Elia)

जॉन एलिया के ख़्यालात ज़ाहिर करने वाले शे’र


कल एक क़स्र-ए-ऐश में बज़्म-ए-सुखन थी जौन
जो कुछ भी था वहां, वो ग़रीबों का माल था
(Thoughts of John Elia)

क्या मिल गया ज़मीर-ए-हुनर बेचकर मुझे
इतना कि सिर्फ़ काम चलाता रहा हूं मैं

जो रा’नाई निगाहों के लिए फ़िरदौस-ए-जलवा है
लिबास-ए-मुफ़लिसी में कितनी बे-क़ीमत नज़र आती
यहां तो जाज़बियत भी है दौलत ही की परवरदा
ये लड़की फ़ाका-कश होती तो बदसूरत नज़र आती

तारीख़ ने क़ौमों को दिया है यही पैग़ाम
हक़ मांगना तौहीन है, हक़ छीन लिया जाए

ये तो बढ़ती ही चली जाती है मियाद-ए-सितम
जुज़ हरीफ़ैन-ए-सितम किस को पुकारा जाए
वक़्त ने एक ही नुक्ता तो किया है ता’लीम
हकीम-ए-वक़्त को मसनद से उतारा जाए
(Thoughts of John Elia)

यूं देखिए तो दैर-ओ-हरम से हमें है आर
दर-पर्दा हम हैं दैर-ओ-हरम के वज़ीफ़ा-ख़बर

रूह-ए-अवाम ज़ख़्म सहे, हम ग़ज़ल कहें
एक शहर सोगवार रहे, हम ग़ज़ल कहें
एक ख़ल्क अपना दर्द कहे, हम ग़जल कहें
मेहनतकशों का ख़ून बहे, हम ग़ज़ल कहें
(Thoughts of John Elia)

हम एक अजब ग़ुरूर से लेकर अदब का नाम
ऐ शामईन तुम पे मुसल्लत हैं सुब्ह-ओ-शाम
हो बोलने का वक़्त तो गूंगे बने रहें
अहल-ए-सुखन हैं और सुखन के नमक हराम
(Thoughts of John Elia)

थी जिनको फ़र्त-ए-शौक़ में क़त्ल की जुस्तजू
मैं उनके साथ-साथ रहा हूं गली-गली
गायब थे उनके नक़्श-ए-क़दम, बेज़मीर हैं

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