ऐसे दस्तूर को, सुब्ह बेनूर को, मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता…

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हबीब जालिब स्मृति दिवस


क्या ऐसी भी शायरी होती है, जिससे हुक्मरानों में बेहिसाब घबराहट पैदा हो जाए? बिल्कुल! हबीब जालिब की शायरी से तो फौजी हुकूमतों तक को ऐसा लगा। एक जंग सी चलती रही उनकी शायरी से पाकिस्तान की हुकूमतों की। ऐसा तक कहा जाता है कि वे जेल के बाहर कम, अंदर ही ज्यादा रहे। (Aise Dastoor Ko)

नाइंसाफी का ही नहीं, बल्कि उसके खिलाफ लड़ने का आह्वान वे ताउम्र करते रहे। आम इंसान के जज्बात को उन्होंने बोल दिए, वे आज भी उतने ही सार्थक हैं। ऐसे शब्द, हूक पैदा करते हैं, जज्बा पैदा करते हैं और हुक्मरानों की बेईमानियों और मक्कारियों सधा हुआ वार करते हैं।

हबीब जालिब 24 मार्च 1928 को होशियारपुर में पैदा हुए और 12 मार्च 1993 को निधन हुआ। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर जैसे तमाम लोगों को गहरा धक्का लगा, हबीब जालिब भी उन्हीं में से एक थे। वह तो पाकिस्तान वाले हिस्से में भी नहीं जाना चाहते थे, लेकिन परिवार के दबाव में जाना पड़ा। नए मुल्क से जो उम्मीदें थीं, वह कुछ ही दिनों में ढेर हो गईं।

खोखले दावों से पाकिस्तान की आम अवाम की बढ़ती मुश्किलों को उन्होंने करीब से देखा। अपने मिजाज के मुताबिक वे बेचैन हो गए और हुकूमत के ढर्रे को बेनकाब करने की ठान ली। गरीब-मजलूम मेहनतकश अवाम की तकलीफ को महसूस कर उन्होंने नाखुशी के साथ शायरी में जाहिर किया। जबकि पाकिस्तान में जनरल अयूब खां की फौजी तानाशाही में सबकी बोलती बंद थी। लिखने-पढ़ने में या तो सरकार की तारीफ हो सकती थी या फिर खुशगवार मौसम और फूलों की बात। (Aise Dastoor Ko)

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इसी दौर में रावलपिंडी रेडियो से लाइव मुशायरे में हबीब जालिब ने सरकार के फरमान काे दरकिनार कर देश के हालात और हुकूमत की तानाशाही की बखिया उधेड़ना शुरू कर दी। जब तक मुशायरा रोकने का हुक्म हुआ, उन्होंने सरकार का चेहरा बेनकाब कर दिया।

सरकार ने रेडियो स्टेशन के डायरेक्टर को सज़ा दी और हबीब को जेल भेज दिया। फिर ये सिलसिला शुरू हो गया। सरकार उन्हें जेल भेजती रही और वो बेखौफ होकर हकीकत बयान करते रहे।

ऐसा वह कर कैसे पाए! वह कौन सा करंट था जो उनके मन का इस कदर बागी बनाए हुए था? उनके इस तेवर के पीछे थी मार्क्सवादी विचारधारा। जिसके प्रभाव में भारतीय उपमहाद्वीप में प्रगतिशील लेखक संघ था। फैज अहमद फैज जैसी शख्सियत इसमें पहले से मौजूद थे। (Aise Dastoor Ko)

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शायद यही वजह रही कि वे आम लोगों के जज्बात आसान तरीके से शायरी में ढाल सके। धार्मिक कट्टरपंथ और दकियानूसी रिवाजों को उन्होंने आम इंसान की तरक्की में बाधा माना। पूंजीवादी रास्ते से मुट्ठीभर लोगों का भला करने की नीति उनकी शायरी के निशाने पर रही।

उनकी लिखी नज़्म ‘दस्तूर’ तब से आज तक पूंजीपतियों की चाकरी करने वाली हर सरकार के खिलाफ संघर्षों में हथियार की तरह इस्तेमाल होती दिखी है। जिसको सुनने भर से हुक्मरान तिलमिला उठते हैं। (Aise Dastoor Ko)

 

दस्तूर

“दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूं कह दो अग़ियार से
क्यों डराते हो ज़िन्दां की दीवार से
ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता
तुमने लूटा है सदियों हमारा सुकूं
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूं
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूं
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता”

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