सिख गुरुओं का विश्वासपात्र था मेव समुदाय

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सिद्दीक अहमद मेव

पंजाब में मेवों (मद्रों) की मौजूदगी के प्रमाण तो महाभारत काल से ही मिलते है, मगर सिंकदर के आक्रमण (326 ई.पू.) के समय से प्रमाण स्पष्ट रूप से सामने आ जाते हैं। सिकंदर का इतिहासकार हेरोडॉटस उन्हें मेर (MOER) और मेवस (MOES) लिखता है । इस समय यह जाति कई भागों में बंटी हुई थी, जैसे उत्तरी मद्र, दक्षिणी मद्र, पश्चिमी मद्र और मुख्य मद्र, मुख्य मद्र, पूर्वी मद्र, मध्य पंजाब में इरावती नहीं के पश्चिम भू-भाग पर बसे हुए, जिनकी राजधानी शाकल या स्यालकोट थी।

पुरू राज्य झेलम और चिनाब के बीच पड़ता था। पोरस शब्द संस्कृत के पुरू अथवा पौरव का ही एक रूप है। बृहद संहिता में पौरवों को माद्रक अथवा मालवों से संबंधित कहा गया है। पूर्व वैदिक काल में हम मेदों (मद्रों मेवों) को तथा पुरूओं को बोल्गा नदी के तट पर अलग-अलग कबीलों के रूप में बसा हुआ पाते हैं।

यहां भी मेद (मद्र), उत्तरी मेद एवं दक्षिणी मेद नामक दो कबीलों में बंटे हुए थे। यहां एक बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि मेद (मद्र, मेव) इसी क्षेत्र से अलग-अलग समय में और विभिन्न समूहों में, मध्य एशिया से ही प्रव्रजन करके आए और भारत के सिंध और पंजाब में आकर आबाद हो गए।

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इस समय भी उत्तरी मद्र (मेद मेव) कैस्पियन सागर के दक्षिणी क्षेत्र में और दक्षिणी मद्र पंजाब में आबाद थे। पंजाब के होशियारपुर जिले में तप्तमेव नामक स्थान है, जहां इनके एक राजा अमोघभूति के सिक्के मिले हैं। यहीं से मद्रों ने सिंध की ओर बढ़ना शुरू किया तथा उत्तरी सिंध पर अधिकार कर अपना राज्य स्थापित कर लिया।

कालान्तर में (630 ई0 में) अरब यात्री अल्लामा बिलाजरी इन्हें बौद्ध मेदों के रूप में सिंध नदी के किनारे बसा हुआ पाता है जो ‘दो कुहान‘ वाले ऊंट पालते थे। आज भी सिंध नदी के तट पर ये लोग ‘मेर बहर‘ (समुद्री मेव) के रूप में आबाद हैं, जिन्होंने मुहम्मद बिन कासिम के समय अपने नेता ‘काका राणा के नेतृत्व में इस्लाम धर्म स्वीकार किया था।

प्राचीन काल से ही पंजाब में मेद (मेव) आबाद रहे हैं। सवाल उठता है कि इतना बड़ा मद्र (मेव) कबीला जो सिंध नदी से लेकर गंगा-जमना के दो आब तक फैला हुआ था, सिकुड़कर इतना छोटा सा कैसे रह गया?

वैसे तो दिल्ली से लेकर अजमेर तक आज भी मेव मीणे और मेर, जो एक ही वंश से हैं, फैले हुए हैं, मगर यहां कर्नल टाड का यह कहना भी उल्लेखनीय है कि सूर्यवंशी क्षत्रियों के लगभग 300 गोत्र मेदों के वंशज हैं। वैसे जाटों, मेवों और राजपूतों के 28 गोत्र, जैसे चौहान, पंवार , खौखर, सहरावत, कटारिया, कंग, जून, (जौन) आदि एक ही हैं।

जिस ‘खालसा पंथ‘ की नींव दसवें गुरू गोबिंद सिंह जी ने डाली थी उसमें जाटों की संख्या अधिक थी, इसलिए सिख पंथ में मेवों की उपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता। मेवों और सिक्खों के भी कई गोत्र, जैसे कंग (कांगरिया), बैंस (बेसर), जून (जौनवाल) आदि आपस में मिलते हैं, जो इस अंदाजे को और पुष्ट करते हैं। वैसे मेवों में बारह पाल और सिखों में बारह मिसलें, महज एक संयोग मात्र है। इन दोनों कौमों के बुजुर्गों का इस संख्या से आत्मिक लगाव खोज का विषय है ।

विषय के जानकार हरजीत सिंह ‘अलवर‘ बताते हैं कि सिखों के चार गुरुओं का मेवात क्षेत्र से गुजरने का संयोग हुआ है। गुरू नानक, गुरू हरगोबिंद, गुरू तेग बहादुर और गुरू गोबिंद सिंह जी अपनी यात्राओं के दौरान समय-समय पर मेवात क्षेत्र से होकर दिल्ली और पंजाब की ओर गए हैं।

हरजीत सिंह का यह भी कहना है कि सन् 1707 में दसवें गुरू गोबिंद सिंह जी फिरोजपुर–तिजारा सड़क से होकर एक पहाड़ी की तलहटी में बसे गांव बाघौर के एक बाग में उस समय ठहरे थे, जब वे दक्खण (दक्षिण) की ओर जा रहे थे। इसी स्थान पर उन्हें औंरगजेब का वह खत मिला था, जिसमें औरंगजेब ने गुरू जी से मिलने की इच्छा जाहिर की थी और जब गुरू जी दिल्ली जाने की तैयारी कर रहे थे, तभी 2 मार्च, 1707 को इसी स्थान पर उन्हें औरंगजेब की मृत्यु का समाचार मिला था।

मेव हमेशा से तेज चालन (दौड़) व कुशल घुड़सवारी के लिए मशहूर रहे हैं। तेज दौड़ने वाले लोगों को मेवात मे ‘दौड़ा’ कहा जाता था। मुगल सम्राट अकबर ने सारे विरोधों के बावजूद जब जागीरें बांटी तो मेवात में भी कई जागीरें दी और बहुत से नौजवानों को नौकरियां दी गईं विशेषकर क्षेत्र दौड़ने या चलने वाले नौजवानों को डाक विभाग में रखा गया, जिनका काम सरकारी डाक लाना व ले जाना था। उन्हें ‘डाक मेवड़ा’ कहा जाता था।

इन ‘डाक मेवड़ा’ के बारे में अबू फजल लिखता है कि ये ‘डाक मेवड़े’ मेवात के रहने वाले हैं, जो तेज चलने के लिए मशहूर हैं। ये बहुत अच्छे गुप्तचर हैं, जो आवश्यकता की चीजों को काफी दूर से लाने में समर्थ हैं। इनकी संख्या एक हजार है।’

कालांतर में इनमें से कई ‘डाक मेवड़े’ सिख गुरूओं की सेवा में चले गए, जिनकी ईमानदारी और वफादारी पर सिक्ख गुरूओं को अटूट विश्वास था। विशेषतौर पर नौवीं और दसवीं पातशाही अर्थात गुरू तेगबहादुर और गुरू गोबिंद सिंह जी के ये सबसे विश्वासपात्र व्यक्ति थे। गुरू गोबिंद सिंह जी ने तो हुकुमनामे भेजकर अपने अनुयायियों को आज्ञा दी थी कि तोहफे, लंगर के लिए धन राशि या छमाही, मसनदों को न देकर मेवड़े के मार्फत भेजो।

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हीरा सिंह दर्द, करम सिंह की ‘एतिहासिक खोज, भाग-पहला, पृष्ठ 79 से उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि ‘मेवड़े गुरू-घर के निकटवर्ती और विश्वासपात्र होते थे। अतः इनके पास गुरू इतिहास संबंधी बहुत सारी जानकारी मौजूद होती थी। गुरू तेग बहादुर जी और गुरू गोबिंद सिंह जी के समय के एक मेवड़े फतेहचंद संबंधी टिप्पणी करते हुए इतिहासकार करम सिंह लिखते हैं, ‘‘ आसाम की मुहिम में फतेहचंद नामी एक सिंह सतगुरू जी के पास था, जो सतगुरू का मेवड़ा था। इसको हुकमनामे में धर्म-पुत्र करके लिखा है। इसके वंशजों के पास नौवीं व दसवीं पातशाही जी के बहुत सारे हुकुमनामे हैं, जिनमें से कुछ तो बहुत ही अनमोल हैं। एक हुकुमनामे में तो नौवीं पातशाही जी का वर्षवार हाल है और एक में दसवीं पातशाही जी का। ऐतिहासिक नजरिए से ये हुकुमनामें बड़े कीमती और इतिहास लिखने में बड़ी सहायता देने वाले हैं। कुछ घटनाओं के तो महीने भी दिए हुए हैं। और भी कई अनमोल हुकमनामे हैं।’’

इसी प्रकार के कई और हुकमनामे, गुरू गोबिंद सिंह जी, माता गुजरी जी और उनकी विधवा माता सुंदरी जी के हैं, जिनमें गुरू के अनुयाइयों को बार-बार हिदायत दी गई है कि वे लंगर की रकम और छमाही हुंडी करवाकर, हुंडी मेवड़े के मार्फत भेजें। हालांकि इस काम के लिए गुरू जी ने अलग-अलग क्षेत्रों में मसंद नियुक्त कर रखे थे, मगर इनमें से कई मसंद अपने-आपको स्वतंत्र और शक्तिशाली समझने लगे थे। इसलिए गुरू जी और उनके वारिसों को इस तरह का कदम उठाना पड़ा था और मसंदो के ऊपर अपने विश्वासपात्र मेवड़ों को तरजीह दी गई थी ।

संवत 1708 (सन् 1651) के अपने हुकमनामें में दसवें गुरू गोबिंद सिंह जी लिखते हैं कि ‘श्री गुरू जी की आज्ञा है, भाई गुरदास सरबत संग गुरू रखेगा ….जो सिक्ख आएगा सो निहाल होगा।

4/- रू मेवड़े को

2/- दीवाली के

2/- बिसोवे के

इसी तरह माता गुजरी का एक हुकुमनामा है जिस पर तारीख नहीं है। इसमें लिखा है, श्री गुरू जी का हुकम मानणा है, जिसकी खुशी के लिए नाइक हरदायु सरबत मगत धीर बसीआं की श्री गुरू तुम्हारी रखेगा…….मेवड़े भेज हैं। कार भेंट सुख मन्नत …. ले आएगा ।

29 मार्च, सन् 1721 का एक हुकमनाया माता सुंदरी जी ने भाई नंद रूप सिंह आदि के नाम पटना संगत को भेजा जिसमें माता जी ने लिखा ‘‘ … रकाब गंज का गुरू रखेगा। गुरू जपणा, जनम संवरेगा। भाई चैत सिंह, सरकार का मेवड़ा हजूर आया है। बहुत अरदास। तुम्हारी सारी हकीकत मालूम हुई। जबानी भी सारी। चैत सिंह तुम्हारे सरबत खालसा के पास भेजा है। श्री गुरू जी के नाम श्रद्धा, भेंट सुख मन्नत, गुल्लक के लिए जिस सिख के पास है लंगर के खर्च के लिए छः माही के छः माही मार्फत चैत सिंह के हजूर को भेजा करना। खालसा के सब मनोरथ पूरे होंगे । …चैत सिंह जो कहे उसे मानना। उसे 200/- रू फरमाइश लंगर की जो ऊपर लिखा है … इकठ्ठी करके हजूर को हुंडी भेजना। जो सिख….खर्च करेगा निहाल होगा । संवत 1778 सतरां 16 10) रू0 मेवड़े को देने हैं 200) दो सौ रूपिये की रसीद माता ।

इसी तरह सितंबर 20, 1722, 10 सितंबर 1726 और 27 मार्च 1729 के हुकमनामें हैं जिनमें माता सुंदरी जी ने भेंट, सुख मन्नत व लंगर के खर्च हेतु रकम मेवड़ों की मार्फत भेजने की हिदायत की है। फतेहचंद और चैत सिंह के अलावा सिद्ध सिंह तथा भगते मेवड़े का नाम भी लिखा है ।

संदर्भ स्रोत

संक्षिप्त विश्व इतिहास की झलकियाँ, पृ0 – 11

भारत का प्राचीन राजनैतिक इतिहास – पृ0 – 184

मेवात एक खोज,पृ. – 170

बुद्विस्ट रिकार्ड ऑफ वैस्टर्न वर्ल्ड, पृ. – 273

जाट बलवान, पृ. – 305

जाटों की इस्लामी तारीख, पृ. – 79-80

the annels and antiquitie of rajas than-I

सफरनामा – जफरनामा, पृ. – 349

आइन-ए- अकबरी (अंग्रेजी अनुवाद-प्), पृ. – 332

गुरू गोविन्द सिंह जी और बिहार में सिख विरासत, पृ. 159,203,207,219

(लेखक पेशे से इंजीनियर होने के साथ ही मेवाती समाज, साहित्य, संस्कृति के इतिहासकार हैं। मेवात पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)

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