भारत-पाक बंटवारे को नामंजूर कर आदर्श बना मेवाती मुसलमानों का गांव घासेड़ा

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सिद्दीक अहमद मेव

दिल्ली से लगभग 65 किलोमीटर दक्षिण में दिल्ली–अलवर सड़क के किनारे बसा हुआ है, मेवात के सबसे पुराने व सबसे बड़े गांवों में एक ऐतिहासिक गांव घासेड़ा। यह गांव मेवों की प्रतिष्ठित पाल, देंहगलां पाल के घासेड़िया थाबा का पाबा है जहां घासेड़िया देंहगल के 210 गांवों की चौधर भी है।

लगभग 4 किलोमीटर की परिधि में बसा गढ़ घासेड़ा मेवात प्राचीन गांवों में से एक है । हालांकि यह गांव मेव बाहुल्य है। मगर इस गांव में मेवों के साथ ही बनिये, अहीर, ब्राह्मण, हरिजन, वाल्मीकि, नाई, मीरासी, सक्का, फकीर, गडरिया, कसाई, कुम्हार आदि जातियां आपसी सदभाव प्रेम, भाईचारा एवं मेल–मिलाप के साथ रहती हैं।

गांव के पूर्व में एक जोहड़ ऐसा भी है, जिसके पश्चिमी किनारे पर मस्जिद और पूर्वी किनारे पर मंदिर बना हुआ है। दोनों समुदाय (हिंदू और मुसलमान) अपनी-अपनी आस्था के अनुसार अपने-अपने धर्मस्थल में पूजा एवं इबादत करते हैं। कहीं कोई ईर्ष्या या द्वेष नहीं, कहीं कोई वैमनस्य नहीं ।

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गांव में कई प्राचीन कुएं, ऐतिहासिक मकबरे, चौपाल, मन्दिर व मस्जिद तथा राव हाथी सिंह बड़गूजर के ‘गढ़ घासेड़ा ‘ के खंडहर इस बात के प्रमाण हैं कि ‘ इमारत कभी बुलंद थी। ‘ तबलीग आंदोलन के बानियों में से एक मियां जी मूसा के इस गांव ने हमेशा ही मेवात की राजनीति को प्रभावित किया।

गांव में इस वक्त राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय राजकीय और कन्या वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय के साथ-साथ एक प्रतिष्ठित इस्लामी मदरसा भी चल रहा है। गांव के कुछ जागरूक एवं उत्साही नौजवानों ने ‘फलाह -ए- मेवात यूथ क्लब’ बनाकर गांव में सामाजिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक जागृति लाने का सराहनीय काम शुरू कर रखा है।

घासेड़ा मेवात का प्राचीन ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक गांव भी है। प्रागैतिहास के कोई प्रमाण अभी तक इस गांव में नहीं मिले हैं , मगर वैदिक एवं महाभारतकालीन प्रमाण समय-समय पर इस गांव की मिट्टी के गर्भ से प्राप्त होते रहे हैं।

मुगलकाल में तो इस इस गांव को विशेष दर्जा प्राप्त था। औरंगजेब ने घासेड़ा तथा आसपास के बारह गांवों, (जिनमें नूंह व मालब भी शामिल थे ) की जागीर हाथी सिंह नामक एक बड़गूजर राजपूत को अता कर घासेड़ा को ‘गढ़ घासेड़ा’ बना दिया। मेवात में औरंगजेब के इस फैसले के विरूद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई और घासेड़ा के मेवों ने सहसौला में जाकर शरण ली, मगर हाथी सिंह तो घासेड़ा का गढ़पति बन ही गया था।

घासेड़ा का जागीरदार बनने के पश्चात हाथी सिंह ने इस गांव को योजनानुसार दोबारा बसाया । उसने गांव के बीचों बीच अपने महल का निर्माण करवाया जिसके नीचे तहखाने थे। महलों के चारों ओर ईंटों की पक्की दीवार बनवाई। इस दीवार के अंदर ही उत्तर की ओर एक कुआं बनवाया, जिसमें बरसात के समय नालियों द्वारा पानी इकट्टा किया जाता था, जिसे बाद में पीने व दूसरे उपयोग में लिया जाता था ।

पास में ही स्थित एक जोहड़ के दक्षिणी किनारे पर एक छोटा सा मंदिर है, जिसे ‘पथवारी’ के नाम से जाना जाता है। पक्की दीवार के चारों ओर कच्चा गढ़ था, जिसमें पूर्व व पश्चिम की ओर दो दरवाजे थे। पश्चिमी दरवाजे के दाईं तरफ हाथी सिंह का अस्तबल था तथा पूर्वी दरवाजे के बाहर बाजार था। पक्की चारदीवारी के अंदर हाथी सिंह का निवास व कचहरी थी, जबकि पक्की दीवार के बाहर एवं गढ़ के अंदर आम जनता रहती थी।

गांव यानी गढ़ की बाहरी सीमा पर चारों कोनों पर बुर्ज बुनवाये गए थे, ताकि आक्रमणकारी शत्रु पर नजर रखी जा सके। गढ़, महल, दरवाजे तथा बुर्जों के खंडहर आज भी गांव में मौजूद हैं ।

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हाथी सिंह के बाद उसका बेटा राव बहादुर सिंह, घासेड़ा की गद्दी पर बैठा। वह बड़ा अभिमानी, क्रूर एवं कठोर व्यक्ति था। जनता के प्रति उसका व्यवहार बहुत कठोर और रूखा था, जिसके कारण जनता काफी परेशान थी। उसके इसी कठोर एवं निर्दयी व्यवहार को देखकर महाकवि सादल्लाह ने उसके भरे दरबार में ही कह दिया था कि –

सादल्ला सांची कहे, कदी न बोले झूठ !

राजा तेरा महल में, गादड़ बोलां च्यारू कूंट !!

इस समय राजा सूरजमल के नेतृत्व में जाटों ने भरतपुर रियासत कायम कर ली थी। सूरजमल एक साहसी एंव महत्वाकांक्षी सरदार था, जो रोहतक तक अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। मगर यह तभी संभव था जब मेवात या तो उसके आधीन हो जाय या उसका सहायक बन जाए। मौके का फायदा उठाकर मेवाती सरदारों ने ‘कांटे से कांटा निकालने’ का निर्णय लिया और सूरजमल को घासेड़ा पर हमला करने के लिए उकसाया ।

सूरजमल ने घासेड़ा पर हमला किया। राव बहादुर ने भी अपने गढ़ से बाहर आकर पश्चिमी किनारे पर मोर्चा लगाया । भीषण युद्ध के बाद राव बहादुर गढ़ के अंदर लौट आया और गढ़ के दरवाजे बंद कर लिए। जाट सेना ने गढ़ की घेराबंदी कर ली। तीन महीने तक जाट सेना ‘गढ़‘ का घेरा डाले रही।

तीन महीने की घेराबंदी से परेशान हो राव बहादुर ने एक भंयकर फैसला लिया । वह नंगी तलवार लेकर महलों में गया और रानियों समेत परिवार को मौत के घाट उतारकर लाशों को कुएं में फिंकवा दिया। उसके बाद वह जाट सेना पर टूट पड़ा। भीषण युद्ध हुआ। घासेड़ा का युद्ध मैदान लाशों से पट गया। मगर वह (बहादुर सिंह) जाट सेना के हाथों मारा गया और मैदान सूरजमल के हाथ रहा। लौटते समय जाट सेना गढ़ घासेड़ा के दरवाजे भी अपने साथ ले गई । ये दरवाजे आज भी डीग के किले में लगे हुए हैं।

इस लड़ाई के बाद काफी दिनों तक घासेड़ा गांव यूं ही खंडहर के रूप में पड़ा रहा। फिर कायम खां ने सहसौला से आकर इसे दोबारा आबाद किया।

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सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्रम के समय घासेड़ा मेवाती क्रांतिकारियों की गतिविधियों का एक बड़ा केंद्र था। अंग्रेजी सेना से विद्रोह कर मेवाती सैनिकों ने हसन अली खां के नेतृत्व में एक सैनिक दल का गठन कर घासेड़ा में मोर्चा लगाया था। अंग्रेज सेनाधिकारियों को जब इसका पता लगा तो उन्होंने लेफ्टीनेंट रांगटन के नेतृत्व में कुमाऊं रेजीमेंट का एक दस्ता और टोहाना हॉर्सेज की एक टुकडी घासेड़ा की तरफ रवाना की।

इस सेना के पास तोप भी थी। टोहाना हार्सेज, जिसमें पचास घुड़सवार थे, का नेतृत्व रांगटन खुद कर रहा था। जबकि कुमाऊं रेजीमेंट का नेतृत्व कैप्टन ग्रांट कर रहा था। इसके अलावा एक नेटिव अफसर, दो नॉन कमीशंड आफीसर और 62 पैदल सैनिक थे। इस सेना ने घासेड़ा से लगभग दो मील उत्तर-पूर्व में स्थित गांव मेलावास की पहाड़ी के पास डेरा डाला। सेना ने रास्ते में पड़ने वाले ग्राम आटा व रेवासन को आग लगाकर तहस-नहस कर दिया।

अगले दिन दो दिशाओं से इस सेना ने घासेड़ा पर हमला किया। एक दल सीधा और दूसरा दल रेवासन की ओर से आगे बढ़ा। पहले सीधे आने वाले सैनिकों ने गांव पर हमला किया, जिसका क्रांतिकारियों ने मुंह तोड़ जवाब दिया । घमासान युद्ध छिड़ गया। अचानक रेवासन की ओर से आने वाली सैनिक टुकड़ी ने गांव पर गोलाबारी शुरू कर दी। भीषण युद्ध हुआ। देखते ही देखते 150 क्रांतिकारी शहीद हो गए और बाकी बचकर वहां से हटकर गतिविधियां जारी रखे रहे।

गांधी जी के नेतृत्व में चले स्वतंत्रता आंदोलन में भी इस गांव का सराहनीय योगदान रहा। 1938 में इस गांव में औपचारिक रूप से कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ और 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन में लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया ।

आखिर 15 अगस्त,1947 को देश आजाद हुआ, मगर भारत व पाकिस्तान के रूप में विभाजित भी हो गया। अलवर तथा भरतपुर के राजाओं ने मेवों को जबरदस्ती पाकिस्तान धकेलने की योजना बनाई। सांप्रदायिक शक्तियों के उकसाने पर दोनों रियासतों की सेनाओं ने मेवों का कत्लेआम शुरू कर दिया। लोग अपने घर-बार, जमीन-जायदाद छोड़ काफिले बनाकर पाकिस्तान जाने लगे । दिल्ली के पुराने किले के अलावा रेवाड़ी, सोहना व घासेड़ा में कैंप लगाये गए ताकि लोगों को काफिलों में पाकिस्तान भेजा जा सके।

सांप्रदायिक लोगों के अलावा मुस्लिम लीग के स्वयं-सेवक भी लोगों को उनकी इच्छा के विरूद्ध पाकिस्तान जाने के लिए उकसा रहे थे। मेवों के सर्वमान्य नेता चौधरी यासीन खां और मुहम्मद अशरफ के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया गया था, और वे दोनों भूमिगत थे। लोग परेशान थे।

कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। आखिर चौधरी मुहम्मद यासीन खां, चौधरी अब्दुल हई और दूसरे मेव चौधरियों के प्रयास से 19 दिसंबर 1947 को महात्मा गांधी घासेड़ा गांव में आए। उन्होंने मंच से लोगों को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मेव हिंदुस्तान की रीढ़ हैं, उन्हें जबरदस्ती उनके घरों से नहीं निकाला जा सकता ।‘‘ तब कहीं जाकर मेवात फिर आबाद हुआ। हरियाणा सरकार ने 2007 में इस गांव को फॉकल विलिज (आदर्श गांव) घोषित किया।

(लेखक पेशे से इंजीनियर होने के साथ ही मेवाती समाज, साहित्य, संस्कृति के इतिहासकार हैं। मेवात पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)

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