बेखुदी में खोया शहर : पेरिस की सेन नदी, जिसे लेखक ने महबूबा के रूप में रेखांकित किया

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The Lost City Paris

हुसैन ताबिश

“वह आपसे लिपटना चाहती है. आपको चूमना चाहती है. आप उसके कोमल और नर्म हाथों की गर्माहट महसूस करते हैं. वो कल-कल करती बात-बेबात पर हंसती रहती है. और जब आप उससे नाराज होने का अभिनय करते हैं, वो और हंसती चली जाती है. उसकी सांसों की उष्णता आपमें गुदगुदी भरती है. उसकी आंखें की कोर में जाड़े का उजास है और गर्मी की शाम की सुरमई चमक एक साथ डोलती है.’’ ये वर्णन किसी प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के लिए नहीं बल्कि एक लेखक ने फ्रांस के पेरिस शहर में बहने वाली सेन नदी के लिए किया है.

पिछले दो माह का मेरा वक्त कुछ नई-पुरानी किताबें पढ़ने और सामाजिक शोध के काम में गुजरा है. पढ़ी गई किताबों में एक किताब है ’’बेखुदी में खोया शहर’’. इसके लेखक हैं बीबीसी के पूर्व पत्रकार अरविंद दास और इसे प्रकाशित किया है दिल्ली के अनुज्ञा बुक्स प्रकाशक ने. 195 पन्नों की ये किताब कुल पांच खंडों में विभाजित है और इसमें कुल 60 लेख हैं.


अमरीकी नस्लवाद बनाम भारतीय जातिवाद


हालांकि उन्हें लेख कह देना ठीक नहीं होगा, क्योंकि ये लेख किसी एक सांचे या लेखन की विद्या में फिट नहीं बैठेंगे. आपने कविता की मुक्त शैली पढ़ी और देखी होगी. लेकिन इस किताब में आप पूरे लेखन की एक मुक्त शैली से रूबरू होंगे. लेखक ने स्वयं इस संग्रह को ” एक पत्रकार के नोट्स’’ कहा है. मैं इस नोट्स में लेख, डायरी, संस्मरण और यात्रा वृतांत भी शामिल करूंगा!

किताब की भाषा शैली बिल्कुल साहित्यिक है जिसकी प्रमाणिकता इस पुस्तक के शीर्षक और ऊपर दिए पुस्तक के अंश से साबित होती है. कथ्य की सरलता, सहजता, भाव और शैली पाठक को बरबस ही अपने मोहपाश में बांध लेती है. कोई भी लेख दो पेज से ज्यादा का नहीं है. लेखन सारगर्भित और विषय समीचीन है. इसलिए पाठक एक के बाद एक लेख पढ़ता जाता है. यही इस पुस्तक और लेखक की सफलता है. इसमें शामिल लेखों के विषय की विविधता और उसका दायरा भी इस किताब को खास बनाती है.

जहां एक ओर लेखक पाठकों को अपनी बचपन की स्मृतियों में ले जाकर बिहार के मधुबनी के गांवों के आम की बाड़ियों में टिकोले चुनवाता है. वहीं यूरोप के किसी काॅफी हाउस की काॅफी का रास्वादन भी करा देता है. यहां प्रेमी जोड़े और प्रेम भी हैं. लेकिन उसका रूप वो नहीं है जो कहानियों और उपन्यासों में होता है. प्रेम की सहज अभिव्यक्ति है. उसमें रोमांस का पुट नहीं है.


पुस्तक परिचय : गुगी वा थ्योंगा’ की मशहूर पुस्तक ‘खून की पंखुड़ियां’


 

इस किताब को पढ़ते हुए पाठक भारत के दिल्ली, बैंगलुरू, पुणे और श्रीनगर जैसे शहरों से लेकर जर्मनी, फ्रांस, चीन, श्रीलंका और

ऑस्ट्रिया जैसे देशों की राजधानियों और उनके शहरों की कला, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास बोध और वहां के लोगों से एक राब्ता कायम कर लेता हैं. लेखक ने लंदन, वियना, पेरिस, शंघाई और कोलंबों जैसे ढेर सारे शहरों की तरुणाई भरी भोर, अलसाई दोपहरी और सुरमई अलमस्त शामों के साथ वहां की नदियों, पहाड़ों और प्राकृतिक सौंदर्य का सुंदर वर्णन किया है.

वो अखबार, जिसने ब्रिटिशराज के खिलाफ बागियों की फौज तैयार कर दी थी

संघाई का समाजवाद और मार्क्स के दर्शन की मौत जैसे लेखों में लेखक ने उन देशों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं को भी टटोलने की कोशिश की है.
किताब के दूसरे हिस्से में लेखक भारत में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण की आमद के बाद राष्ट्रभाषा हिंदी, राष्ट्रवाद, पत्रकारिता, न्यूज चैनल्स, रेडियो और सिनेमा में आए बदलावों की पड़ताल करता है.

न्यूज़ रूम राष्ट्रवाद से लेखक काफी खौफजदा है. वहीं “ग्लोबल से लोकल होता बाॅलीवुड’’ लेख में हाल के दिनों में ’गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ’आंखों देखी’, ’मसान’, ’दम लगा के हईशा’, ’बरेली की बर्फी’, और ’अनारकली ऑफ आरा’ जैसी फिल्मों में चुटीली कहानियों के जरिए छोटे-शहरों, कस्बों की जिंदगी, परिवार, नाते-रिश्तेदारी और अस्मिता को उकेरने को लेखक उम्मीद भरी निगाहों से देखता है.


प्रेमचंद की कहानी : जुरमाना


लेकिन चिंता इस बात की है कि अगर इन फिल्मों की पहुंच एक बड़े दर्शक वर्ग तक नहीं हुई तो अपने उद्देश्यों में यह समांतर सिनेमा की तरह ही पिछड़ सकती है. लेखक हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के क्षेत्रीय फिल्मों का भी जिक्र करता है जिनमें असीम संभावनाओं के द्वार हैं.

किताब का तीसरा हिस्सा पूरी तरह लोक कला, संस्कृति और भाषा को सपर्पित है. इसमें लेखक ने मिथलांचल के सांप्रदायिक सद्भाव, मैथिली भाषा-साहित्य, मिथिला पेंटिंग, भित्तचित्र, कोहबर, सिक्की कला जैसे अनेक लोक कलाओं और उनसे जुड़े कलाकारों से रूबरू कराया है. लेखक ने यहां दम तोड़ती लोक संस्कृति, कलाओं और गाथाओं को लेकर

कई गंभीर सवाल भी उठाए हैं.
बिहार के सौ साल पूरे होने पर दिल्ली हाट में एक प्रदर्शनी लगाई गई, जिसमें बिहार के विभिन्न कला रूपों की झांकी थी. प्रदर्शनी में जहां मिथिला पेंटिंग के कई स्टाॅल थे वहीं सिक्की कला का कोई नामलेवा नहीं था.

मिथिला में शादी-ब्याह के अवसर और लड़कियों के गौना के समय सिक्की से बनी कलाकृतियों को भेजने का पुराना रिवाज है, जो आज भी कायम है. हालांकि कलाकारों का कहना है कि इस कला में जितनी रुचि इस देश के बाहर विदेश के लोगों की है, उतनी स्थानीय स्तर पर नहीं है. स्थानीय स्तर पर इस कला का कोई बाजार अभी तक विकसित नहीं हो पाया है.

मधुबनी पेंट‍िंंग

सआदत हसन मंटो की कहानी : टोबा टेक सिंह


 

मैथिली भाषा को लेकर एक स्थान पर लेखक ने कहा है, “वर्ष 2004 में मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर भाषा का दर्जा दिया गया, लेकिन दुर्भाग्यवश 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी यह सवाल उसी रूप में मौजूद है कि मैथिली भाषा-साहित्य में ब्राहमणों और कर्ण कायस्थों की उपस्थिति ही सभी जगह क्यों है, जबकि पूरे मिथिला भूभाग में यह बोली और समझी जाती रही है.’’

पुस्तक के चौथे और पांचवे हिस्से में गांव, गरीबी, पीड़ा, बचपन, प्रेम, जवानी, संघर्ष, मृत्यु शोक और विद्रोह के स्वर हैं. इससे हिस्से को लेखक ने उम्मीद-ए- शहर और स्मृतियों का कोलाज नाम दिया है. ‘चंपारण सत्याग्रह के कलमाकर’ लेख में लेखक ने लिखा है, ’’ मेरे लिए आश्चर्य की बात है कि महात्मा गांधी, जो खुद एक पत्रकार भी थे, ने चंपारण सत्याग्रह के कलमकार, पत्रकार सत्याग्रही पीर मुहम्मद मूनिस का नाम उल्लेख करना कैसे चूक गए.

मूनिस चंपारण के एक युवा पत्रकार थे. गांधी जी को चंपारण आने का निमंत्रण और वहां के हालात से उन्होंने ही चिट्ठी लिखकर गांधी जी को अवगत कराया था. मुनिस उन दिनों कानपुर से निकलने वाले ’’ प्रताप’’ ( संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ) के संवाददाता थे. किताब में लेखक अरविंद दास लिखते हैं कि इस पत्रकार का नाम न तो गांधी जी की आत्मकथा में मिलता है न ही आधुनिक भारत के किसी इतिहास में.

यहां तक बिहार की पत्रकारिता के इतिहास में भी उनको स्थान नहीं दिया गया. इस तरह की कई रोचक जानकारियां इस किताब में दर्ज हैं. अगर आप छोटे-छोटे लेखों से ढेर सारे बड़े-बड़े मुद्दों को समझना, पढ़ना और देखना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपके लिए ही लिखी गई है. मात्र 250 रुपये की यह किताब अमेजन पर उपलब्ध है.

(लेखक दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो मूलरूप से बिहार के निवासी हैं.)

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