अमानुल्ला से दुश्मनी पर अंग्रेजों ने अफगानिस्तान को तबाही के रास्ते पर ला पटका था

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कौम के प्रति यीशु समान बलिदानी न था, कमाल पाशा सरीखा जीवट भी नहीं। नेक इंसान था, नाम था अमानुल्ला। बात उन दिनों की है, जब तुर्क जाति आधुनिक बन रही थी। टोपी, बुर्के-नकाब उतर रहे थे। तुर्की के कमाल पाशा सूरज की तरह चमक रहे थे।

इस बीच अफगान राजदरबार में खलबली मची थी। अमीर हबीबुल्ला की हत्या कर दी गई। इसके बाद उसका भाई नसरूल्ला अमीर गद्दी पर बैठा। भारी विरोध के बीच नसरूल्ला भी जल्द गद्दी गंवा बैठा। इसके बाद हबीबुल्ला का छोटा बेटा अमानुल्ला अमीर बना।

अफगानिस्तान समुद्री रास्तों से दूर है। इसका दुनिया के लिए दरवाजा भारत की तरफ ही खुलता था। गद्दी संभालने के बाद अमानुल्ला दुनिया को समझ रहे थे और ब्रिटिश हुकूमत के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने अचानक ब्रिटिश औपनिवेशिक भारत पर हमला कर दिया।

दुनियाभर में घिर चुके अंग्रेज लड़ाई के मूड में नहीं थे, लिहाजा यह युद्ध थोड़े दिन चला। नतीजा यह हुआ कि 1919 में अफगानिस्तान स्वाधीन देश मान लिया गया, विदेशी रिश्तों के मामलों में उसका पूरा अख्तियार कबूल हो गया।

इस जीत से अमानुल्ला की यूरोप और एशिया में शान बढ़ गई। अमानुल्ला ने आधुनिक तुर्की के निर्माता कमाल पाशा, रूसी क्रांति और दुनिया भर में हो रहे सुधारों को अफगानिस्तान में लागू करना शुरू किया। उनकी बेगम सुरैया ने यूरोप से शिक्षा पाई थी। महिलाओं पर बुर्के का परदा उसे अखरता था। इस दंपति ने अफगानों को कोट-पतलून और यूरोपीय टोप पहना दिया और दाढ़ियां मुंड़वा दीं। देश में स्कूल खोले, अफगान युवक-युवतियों को पढ़ने के लिए यूरोप भेजा।

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सभी धर्मों को बराबर दर्जा देने की कोशिशें हुईं। 18 मई 1925 को काबुल में एक समागम बुलाया गया। यह समागम एक हिंदू दीवान निरंजन दास के बगीचे में तीन दिन तक चला। इसमें देशभर से सिख और हिंदू जुटे। अखंड पाठ हुआ और भजन-कीर्तन हुए। खालसा ध्वज लहरा कर गुरुग्रंथ साहिब को शाही सवारी में काबुल की परिक्रमा भी कराई गई।

अमानुल्ला ने पड़ोसी देशों और तुर्की के साथ संधियां कर अपनी हैसियत मजबूत बनाई। अफगानिस्तान को सोवियत रूस से मदद मिलने लगी। रूस से अफगान की दोस्ती अंग्रेजों को रास न आई। जब अमानुल्ला दुनिया वालों से संधियां और कौल-करार कर रहे थे, तब ब्रिटिश खुफिया तंत्र षड्यंत्रों में जुट गया।

1928 के शुरू में अमानुल्ला और बेगम सुरैया पहली बार यूरोप के दौरे पर निकले। बताते हैं कि वे रोम, पेरिस, बर्लिन, लंदन, मास्को गए। लौटते समय तुर्की में कमाल पाशा से मिले और ईरान भी गए। अफगानिस्तान को आधुनिक बनाने के जज्बे से लबरेज यह दंपति वापस अपने देश पहुंचा।

इस बीच अफगानिस्तान में मुल्ला-अमीरों के गुट सक्रिय हो चुके थे। दूर गांवों तक अमानुल्ला और उनकी पत्नी के खिलाफ पर्चे बंट रहे थे। सुरैय्या को भद्दी पोषाक में दिखाकर उनके चित्र बांटे गए थे। इन्हें इस्लामी परंपरा का विरोधी ठहराया गया। उन्हें बदनाम करने के लिए हर साजिशें रची गईं, अनगिनत अफवाहें फैलाई।

कबीलों के सरदारों और मुल्लाओं के पास हथियार पहुंचा दिए। इस षड्यंत्र के लिए ब्रिटेन ने पानी की तरह धन बहाया। फिर मुल्लाओं ने फतवे निकाले। अमानुल्ला और सुरैय्या को काफिर ठहराया।

अमानुल्ला लोकतंत्र के लिए फिर भी लड़ा। उसने अमीर वर्ग की उपाधियां मिटा दीं। मंत्रियों की एक कौंसिल के हाथ में सरकार की बागडोर सौंपने का मशविरा दिया। खुद के अधिकार कम किए। महिलाओं की गुलामी के बंधन काटने को जोर-शोर से आगे बढ़ा। लेकिन ब्रिटेन आधुनिक अफगानिस्तान को खत्म करने की ठान चुका था।

उसने मुल्लाओं और अमीरों को धन और हथियार दिए, देश में विद्रोह भड़काए। 1929 में अमानउल्ला देश छोड़कर जाता रहा, 30 साल बाद 1960 में स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख में उनकी मौत हो गई। ब्रिटेन ने बच्चा-सुक्का को बादशाह के रूप में अफगागिस्तान की गद्दी पर बैठा दिया।

बाद में अफगानी शासक अमेरिका के दलाल हो गए, अफगानों के खून से धरती रंगती रही।

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शाह अमानुल्लाह ने तीसरे एंग्लो-अफ़ग़ान जंग 1919 में ब्रिटेन को शिकस्त देकर अफ़ग़ानिस्तान को मुक़म्मल आज़ाद कराने लिया था। इसलिए अमानुल्लाह की हुकूमत ब्रिटिश सरकार को फूटी आंख भी नहीं सुहाती थी। फलतः ब्रिटेन ऐसा कोई मौक़ा चूकना नहीं चाहता था कि अमानुल्लाह की सरकार की राह में मुसीबतें खड़ा नहीं करे।

उदार लोकतंत्र की दुहाई में बड़ी बड़ी बातें करनेवाला लॉयड जॉर्ज हो या फ़ेबियन सोशलिस्ट रैमज़े मैक्डोनाल्ड अमानुल्लाह के स्त्रियों और दीग़र सुधार कार्यक्रमों को ही हथियार बनाकर अफ़ग़ानिस्तान के क़दामतपसंद मुल्लाओं, जंगी सरदारों और मज़हबी रूहानी पेशवाओं को उनके और उनकी तरक़्क़ीपसंद बेगम एवं ख़ानदानों के ख़िलाफ़ भड़काने की जुगत में लग गया।

उन्हें इसका मौक़ा भी मिल गया जब फ़्रांस के दौरे पर गये अमानुल्लाह दंपत्ति की एक तस्वीर जिसमें पेरिस में सुरैया बेगम वग़ैर हिज़ाब या पर्दे के फ़्रांस के सदर से मिल रही थीं, ब्रिटिश ख़ुफ़िया इदारे को हाथ लग गया। ब्रिटिश ख़ुफ़िया महकमा ने अपने अफ़ग़ान एजेंटों के ज़रिए उस खुले चेहरे व सर वाली सुरैया बेगम की तस्वीर को अफ़ग़ानिस्तान के जंगी सरदारों और मुल्लावों के बीच ज़ाहिर कर दिया।

इसने अमानुल्लाह के रूढ़िवादी कठमुल्ले मुख़ालिफ़िन को जो उनके सुधार कार्यक्रमों से चिढ़े हुए थे अफ़ग़ानिस्तान के जंगी सरदारों के बीच बग़ावत की आग फैलाने का मौक़ा दिया। एक जंगी सरदार हबीबुल्लाह कलकानी ने अमानुल्लाह को काफ़िर घोषित कर उन्हें तख़्त से हटाने में सफल हो गया।

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1919 से लेकर आज तक अफ़ग़ानिस्तान प्रतिगामी कट्टरपंथी ताक़तों और प्रगतिशील सुधार के बीच जद्दोजहद करता, लड़ता, जूझता दिखाई दे रहा है। प्रतिक्रिया की ताक़तों को हमेशा से ही साम्राज्यवादी ताक़तों ने अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता को रौंदने या कमतर करने के लिए इस्तेमाल किया है।

बीसवीं सदी के पहले हिस्से में ब्रिटिश सरकार ने इसका इस्तेमाल किया ताकि सोवियत संघ या रूस के ख़िलाफ़ एक कमजोर अफ़ग़ानिस्तान को वह मनमाने ढंग से ढाल बनाकर अपने हिंदुस्तानी साम्राज्य की हिफ़ाज़त कर सके और द्वीतीय विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध काल में ब्रिटिश साम्राज्य की भूमिका में अमरीकी साम्राज्यवाद आ गया।

अमानुल्लाह के हटने के बाद भी कहानी ख़त्म नहीं हुई जैसे क़दामतपसंद तालिबान के आने के बाद भी कहानी ख़त्म नहीं होने वाली है। अमानुल्लाह के 1923 के संविधान का असर बना रहा। लैंगिक समानता, साक्षरता, साइंसी व आधुनिक तालीम के लिए जद्दोजहद चलता रहा। दोनों स्तर पर सरजमीं पर आवामी स्तर पर और सत्ता के स्तर पर प्रगतिवादियों और कट्टरपंथी प्रतिक्रियावादियों के बीच लड़ाई ज़ारी रही।

अमानुल्लाह के बाद जिस एक और राजा को सुधारों के लिए क़ुर्बानी देनी पड़ी। शाह नादिरशाह को 1933 में सुधारों के लिए शहीद होना पड़ा। लेकिन सुधार कार्यक्रम आगे बढ़ते रहे। इस जद्दोजहद का ही नतीज़ा था ज़हीर शाह के शासनकाल में 1964 का संविधान जिसके तहत 1965 के लोया जिरगा में चार औरतें चुनकर आईं। उन्हीं में से एक कम्युनिस्ट अनाहिता रातेब्ज़ाद थीं।

अनाहिता रातेब्ज़ाद ने 1965 में ही ख़वातीन जम्हूरी तंज़ीम को तश्कील दी जिसके द्वारा छेड़े गए तहरीक़ का नतीज़ा था रिपब्लिक अफ़ग़ानिस्तान में 1976 में दाउद की हुकूमत ने नए संविधान में दर्ज़ किया, “अफ़ग़ानिस्तान के सभी नागरिक औरत और मर्द, वग़ैर किसी भेदभाव व विशेषाधिकार के क़ानून के सामने बराबर की हैसियत में रहेंगे। ”

इस तहरीक़ की यही ठोस उपलब्धि थी जिसने 1978 में कम्युनिस्टों के लिए सौर क्रांति की राहें हमवार की थीं। तराक़ी, अमीन, करमाल के शासन में अनाहिता रातेब्ज़ाद नायब सदर के रूप में मुक़ीम थीं।

(पहले लेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर जोशी और दूसरे के लेखक भगवान प्रसाद सिन्हा हैं, ये उनके निजी विचार हैं)


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