मनीष आज़ाद
बच्चे कभी भी सीधे रास्ते नहीं चलते। वे दाएं बाएं मुड़ते हुए कभी तेज कभी धीमे चलते है और कभी दौड़ पड़ते हैं। यही उनकी स्वाभाविक गति है। ठीक इसी तरह नदी भी आगे बढ़ती है। हजारों लाखों सालों से हम भी नदी के रास्ते के साथ ही आगे बढ़ते रहे और इसी प्रक्रिया में महान सभ्यताएं फलती फूलती रही हैं।
लेकिन आज हमारा अहंकार इतना बढ़ चुका है कि हमने नदियों के स्वाभाविक रास्तों पर बांधों के रूप में कई बड़े अवरोध खड़े कर दिए है। मुनाफे की हवस में पहाड़ों पर नदियों के रास्ते के दोनों ओर होटल आदि खड़े करके नदी के रास्ते को अत्यन्त संकरा कर दिया है।
ऋषिगंगा के पास बनी दूसरी झील, मंडराया दूसरी तबाही का खतरा
2013 में केदारनाथ में आयी भयंकर तबाही में नदी के किनारों पर खड़े होटल ताश के पत्तों की तरह ढह गये थे। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश भी है कि नदी तट से 100 से 200 मीटर तक कोई निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए।
दरअसल 7 फरवरी को ऊपर पहाड़ में जो भी हुआ, वह बहुत स्वाभाविक घटना थी। मतलब की ग्लेशियर का टूटना (हालांकि इसमें ग्लोबल वार्मिंग का हाथ भी हो सकता है), बादल का फटना, ऊपर किसी झील का उलचना आदि।
इस स्वाभाविक घटना को कोई नोटिस भी नहीं लेता अगर वहाँ ऊपर पावर प्लांट (ऋषि गंगा प्रोजेक्ट और तपोवन प्रोजेक्ट) न होता। जिसके कारण से जन धन की भारी तबाही हुई। अभी भी सुरंग में 35 मजदूर फंसे हुए है और 170 लोग लापता हैं।
यह ठीक उसी तरह है जैसे अमेज़ॉन जैसे घने जंगलों में बहुत से वायरस स्वाभाविक रूप से अलग-थलग लाखों सालों से बने रहते हैं। लेकिन जब मुनाफे की हवस में इन क्षेत्रों में सेंध लगाई जाती है तो ये वायरस मनुष्यों के संपर्क में आ जाते है और म्यूटेट होने लगते है।
एक्सक्लूसिव: ग्लेशियर टूटने से नहीं हुआ ऋषि गंगा हादसा, यहां दफ्न है दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनी चोपड़ा कमेटी ने 2014 में साफ साफ कहा कि ऊपर पैरा-ग्लेशियर क्षेत्र में किसी भी हाइड्रो प्रोजेक्ट का निर्माण खतरनाक साबित होगा। लेकिन बांध लाबी के दबाव में इस रिपोर्ट को ठेंगा दिखा कर उस क्षेत्र में कई पावर प्रोजेक्ट शुरू कर दिए गए और नदियों का रास्ता बदला जाने लगा। नदियों को बांधा जाने लगा। एक अनुमान के मुताबिक इस क्षेत्र में करीब 300 हाइड्रो प्रोजेक्ट यानी बांध प्रस्तावित हैं।
‘प्रधानमंत्री चार धाम सड़क परियोजना’ पर सुप्रीम कोर्ट की रोक के बावजूद अब तक उत्तराखंड के पहाड़ों पर हजारों हरे-भरे पेड़ काटे जा चुके हैं और इस प्रक्रिया में पहाड़ को और अस्थिर बनाया जा चुका है।
अनेक पर्यावरणविदों-वैज्ञानिकों ने बिना कोई बांध बनाये पहाड़ों की स्वाभाविक जल धारा की ऊर्जा का इस्तेमाल करते हुए छोटे पैमाने पर यानी गांव स्तर पर बिजली बनाने की योजना पेश की है। जिन्होंने शेखर जोशी की मशहूर कहानी ‘कोसी का घटवार’ पढ़ी होगी, वे इससे परिचित भी होंगे, जहाँ इन्ही छोटी छोटी जल-धाराओं को ऊर्जा में परिवर्तित करके चक्कियां चलाई जाती थी। यहां गेहूँ की पिसाई भी होती थी और प्रेम भी पलता था।
दरअसल आज हमारे ऊपर विकास के जिस मॉडल को थोपा गया है, वह उस ‘दवा’ की तरह है जो आपको तात्कालिक दर्द से तो निजात दिलाता है, लेकिन बदले में आपको कैंसर जैसी घातक बीमारी से ग्रसित कर देता है।
आपको यह आश्चर्यजनक भले लगे, लेकिन यह सच है कि घर बनाने और घर ध्वस्त करने दोनों में ही जीडीपी बढ़ती है, क्योकि दोनों ही आर्थिक गतिविधि है। यानी जीडीपी जीवन और मृत्यु में फर्क नहीं करती।
इस ‘विकास’ का खामियाजा वैसे तो पूरा समाज चुका रहा है, लेकिन इस विकास के लौह पहिए के नीचे सबसे ज्यादा मजदूर ही पिसते हैं। इसी घटना में सुरंग में फंसे सभी 35 लोग मजदूर ही हैं और ज्यादा सम्भावना यही है कि इनमें से ज्यादातर ठेके के मजदूर होंगे और उन्हें कोई मुआवजा मिलने की संभावना बहुत ही कम है। इससे भी अधिक उनकी पहचान भी शायद मुश्किल हो।
वर्ष 2003-04 में टिहरी बांध पर स्वतंत्र सर्वे के दौरान बांध पर काम करने वाले मजदूरों ने जानकारी दी, वो हिलाकर रख देने वाली थी। मजदूरों ने बताया कि यहां जब भी काम के दौरान दुर्घटना में किसी मजदूर की मौत होती है तो उसे सबकी नजर बचाकर इसी बांध में पाट दिया जाता है और ऊपर से डंपर चला दिया जाता है। इस बात में कितनी सच्चाई है, नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह आम सच है कि दुनिया में गरीब आबादी के साथ इस तरह की घटनाएं बेहिसाब हुई हैं और हो भी रही हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैंं)