चुनावी तकरीरों के बीच पढ़िए पहली साइकिल का दिलचस्प किस्सा

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-वीर विनोद छाबड़ा-

किसी ज़माने में हम साइकिल से चलते थे। बरसों तक घर से स्कूल, फिर कॉलेज, कॉलेज से यूनिवर्सिटी और फिर ऑफिस भी। गेहूं पिसाने के लिए भी साइकिल का ही इस्तेमाल करते रहे। दूर मनकामेश्वर मंदिर भी जाना होता था तो साइकिल से ही जाते थे। ज़ंजीर से बिजली के खंभे से बांध देते थे। तब हमने नहीं सोचा था कि कालांतर में हम बिजली विभाग में ही नौकरी करने वाले हैं। (Bicycle In Election Debates)

बहरहाल, अपनी अब तक कि ज़िंदगी में हमने दो बार साइकिल बदली। पहली साइकिल हर्क्यूलीज़ थी। चोरी हो गई। टनाटन साइकिल थी। उस दिन इतवार था। एग्जाम सर पर थे। कुछ ज़रूरी नोट्स तैयार करने थे। हम लखनऊ यूनिवर्सिटी की टैगोर लाइब्रेरी चले गए जो हम जैसे (अ)पढ़ाकुओं के लिए संडे को ओपन रहती थी।

हमने साइकिल को ताला लगाया और ऊपर चले गए नोट्स बनाने। क़रीब दो घंटे गुज़र गए। सोचा अब पिक्चर देखी जाए। पढ़ाई-लिखाई का कोटा पूरा हो चुका है। बहुत उत्साहित होकर हम नीचे आए। जी धक्क हो गया। साइकिल गायब थी। इधर-उधर बहुत तलाशा, लेकिन मिली नहीं। एक ने समझाया, चोर चोरी का माल इधर-उधर तो रखते नहीं, चोर तो अब तक बाराबंकी पहुंच गया होगा।

हम रुआंसे से हो गए। 1963 में विद्यांत कॉलेज में जब नवें में दाखिल कराया गया था, तब खरीदी थी। पिताजी की जेब से पूरे 206 रुपए निकले थे। हमें रुआंसा देख किसी ने सलाह दी, हसनगंज थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दो।

हम थाने पहुंचे। एक सिपाही से व्यथा बताई। उसने कहा, वो किनारे तख़्त पर जो मुंशी जी बैठे हैं, उनको रिपोर्ट लिखा दो। तब हमें नहीं मालूम था कि कालांतर में इंदिरानगर के जिस एरिया में रहेंगे वो मुंशी पुलिया के नाम से विख्यात होगा। बहरहाल, मुंशी जी ने हमारा सर से पांव तक मुआयना किया, फिर डपटकर पूछा, झूठ तो नहीं बोल रहे? आजकल के लड़के साइकिल बेचकर पिक्चरें देखते हैं। (Bicycle In Election Debates)

हमारी आंख में आंसू बह निकले। सुबकते हुए कहा, हम ऐसे-वैसे नहीं हैं, लखनऊ यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट हैं, शरीफ़ घर के हैं, ऐसा काम नहीं कर सकते। तभी एक बड़ी मूंछों वाला सिपाही आ गया। उसका चेहरा भी बहुत रौबीला था, शायद दरोगा साहब रहे थे। उन्होंने पूछा, क्या मामला है? क्यों डांट रहे हो? इससे पहले मुंशी जी कुछ बयां करते, हमने अपनी व्यथा सविस्तार कह सुनाई।

दरोगा दिखने वाले उस सिपाही ने मुंशी जी को डांटा, यूनिवर्सिटी के लौंडों को परेशान मत किया करो। मुंशी जी ने सर झुका कर ‘हूं’ की और सादे कागज़ के नीचे कार्बन रखकर स्केल से खाका बनाया और रिपोर्ट दर्ज कर ली। इस बीच उन्होंने हमारी खादी की फूलदार सदरी और पिताजी की नौकरी के बारे में भी पूछा। हमने साफ़-साफ़ बता दिया कि सदरी भोपाल वाले मामा ने दी है और पिताजी रेलवे में क्लास थ्री मुलाज़िम हैं।

बहरहाल, मुंशी जी ने रिपोर्ट की एक कॉपी हमें भी दे दी। साथ ही ताक़ीद भी की कि कल-परसों में एक सिपाही तफ्तीश करने आएगा, दो गवाह तैयार रखना जो तुम्हारी साइकिल को पहचानते हों।

हां, इस बीच एक पते की बात भी हुई। मुंशी जी ने हमें चाय भी पिलाई। ये पंचायती चाय थी, जो उन बड़ी बड़ी मूंछ वाले दरोगा दिख रहे सिपाही जी ने भिजवाई थी, यह कहकर-यूनिवर्सिटी वाले लौंडे को भी पिलाओ।

फिर हमने मुंशी जी और फिर उन बड़ी मूंछों वाले दरोगा जी को बाअदब नमस्ते की और चले आए। घर आकर हमने रोनी मुद्रा में मां को साइकिल चोरी के बारे में बताया और फूट-फूटकर रोए। मां ने आश्वासन दिया, कोई बात नहीं, दूसरी साइकिल आ जाएगी। लेकिन हम जानते थे, दूसरी साइकिल आना कोई आसान नहीं है। घर की माली हालत कोई अच्छी नहीं है। सब चाहते थे कि जल्दी से हम पढ़ाई का मोह छोड़ नौकरी तलाश करें।

शाम को क्राइम में रुचि रखने वाले एक मित्र के साथ रेलवे स्टेशन के साइकिल स्टैंड खंगालते रहे। हो सकता है कि चोर ने वहां साइकिल खड़ी की हो। लेकिन हाथ कुछ आया नहीं। एक मित्र ने सलाह दी, कोई उम्मीद मत करो, आज तक चोरी की साइकिल मिली है किसी को भला? (Bicycle In Election Debates)

ईश्वर को प्यारा हो चुका वो मित्र सही कहता था। वो 1972 का साल था और आज 2022 है। इस बीच न जाने कितने निज़ाम बदल गए। अपराध और चोरी-चकारी का सर्वनाश करने का दावा करने वाली सरकार भी आई। मगर कोई सिपाही तफ्तीश करने नहीं आया।

(लेखक वीर विनोद चोपड़ा सिनेमा क्षेत्र के जानकार हैं, फेसबुक वॉल से साभार)


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