‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे’: कायम है मोहम्मद रफी की आवाज की दीवानगी

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-जन्मदिन-


बहुत कम ऐसे कलाकार होते हैं, जिनकी कला को बिना की भेदभाव दिलों में इतनी जगह मिलती हो। महान गायक मोहम्मद रफी की आवाज और गायक की दीवानगी भी कुछ इसी तरह है। उनके गाने जाने कब से लोगों की जुबान पर हैं और नई पीढ़ी भी जज्बाती होने पर उनके गाने में खो जाती है। वह ऐसे गायक थे, जो भाव के साथ गाने में माहिर थे, दृश्य कैसा है और कलाकार कौन है, उसी अंदाज में गा देने जैसा। जैसे कि अभिनय करने वाले के हिसाब से ही लिखा गया गाना हो या फिर उस दृश्य को सोचकर ही फिल्माया गया हो। भजन, कव्वाली, रोमांस, मजाकिया, गंभीर, दुख, पीड़ा, आवारगी, देशभक्ति….सब सिर्फ मुहम्मद रफी के गानों को सुनकर ही महसूस किया जा सकता है। सुहानी रात ढल चुकी…न जाने तुम कब आओगे, चाहे मुझे कोई जंगली कहे…कहता है तो कहता रहे, पुकारता चला हूं मैं…, परदेसियों से न अंखियां मिलाना, सर जो तेरा चकराए..या दिल डूबा जाए, कर चले हम फिदा जानो तन साथियो…अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो….(Craze For Mohammad Rafi)

भारत में पैदा हुए सबसे महान पार्श्व गायकों में से एक मोहम्मद रफ़ी को संगीत की विभिन्न शैलियों में गाने वाला जीनियस माना जाता है। बैजू बावरा के शास्त्रीय रूप से झुकाव वाले गीत हों या कश्मीर की कली के फुट टैपिंग गीत, मुहम्मद रफ़ी ने हर गीत को वह अंदाज दिया जिसका वह हकदार था।

हिंदी फिल्म उद्योग में शायद आज तक कोई भी मोहम्मद रफी की तरह प्रशंसकों के दिलों पर कब्जा करने में कामयाब नहीं हुआ है। लगभग बीस साल तक रफ़ी हिंदी फिल्म उद्योग में जलवा कायम रहा। अपने शानदार कॅरियर में उन्हें छह फिल्मफेयर पुरस्कार मिले और एक बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

हिंदी के अलावा उन्होंने कोंकणी, भोजपुरी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, मराठी, सिंधी, तेलुगु, कन्नड़, मैथिली, गुजराती, मगही और उर्दू सहित कई भारतीय भाषाओं में गाने गाए। भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, अरबी, फारसी, सिंहली, क्रियोल और डच भाषाओं के गानों को भी अपनी मधुर आवाज दी। (Craze For Mohammad Rafi)

मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को ब्रिटिश भारत के संयुक्त पंजाब प्रांत के कोटला सुल्तान सिंह के गांव में हुआ था। वह हाजी अली मोहम्मद और अल्लाहरखी बाई के छह बेटों में पांचवें थे। रफ़ी ने बहुत कम उम्र से ही संगीत के प्रति रुझान दिखाया। उनकी प्रतिभा को उनके बड़े भाई के दोस्त अब्दुल हमीद ने पहचाना था। उन्होंने ही रफी के परिवार को उनकी संगीत प्रतिभा को निखारने के लिए राजी किया।

मोहम्मद रफी ने पंडित जीवन लाल मट्टू से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत लेना शुरू किया, जिन्होंने उन्हें राग शास्त्र और पंजाबी लोक राग पहाड़ी, भैरवी, बसंत और मल्हार की पेचीदगियां सिखाईं। बाद में उन्होंने उस्ताद अब्दुल वहद खान के संरक्षण में प्रशिक्षण लिया और पटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खान से भी शिक्षा ली। उन्हें ऑल इंडिया रेडियो लाहौर के निर्माता फ़िरोज़ निज़ामी ने भी प्रशिक्षित किया।

केएल सहगल और जीएम दुर्रानी रफी के आदर्श थे और शुरुआत में उन्होंने सहगल की शैली का अनुकरण किया। रफी ने 13 साल की उम्र में अपना पहला स्टेज शो लाहौर में किया था। फिर उन्होंने 1941 से लाहौर में ऑल इंडिया रेडियो के लिए गाना शुरू किया। अपना पहला गाना ‘सोनिये नी, हीरिये नी’ भी रिकॉर्ड किया, जो उसी साल पंजाबी फिल्म गुल बलूच के लिए प्रसिद्ध गायिका जीनत बेगम के साथ एक युगल गीत था। यह फिल्म 1944 में रिलीज हुई थी।

मोहम्मद रफी की शादी चचेरी बहन बशीरा बानो से हुई थी। लेकिन 1947 में विभाजन के दौरान राजनीतिक तनाव के कारण शादी टूट गई। बशीरा बानो ने दंगों की भयावहता को देखकर रफी साहब के साथ भारत आने से इनकार कर दिया। वह लाहौर में ही रहीं, लिहाजा उनकी शादी खत्म हो गई। पहली पत्नी बशीरा से एक बेटा शहीद था। बाद में रफी ने बिलकिस बानो से शादी की और चार बच्चे हुए- नसरीन, खालिद, परवीन और हामिद।

मोहम्मद रफ़ी 1944 में बॉम्बे चले गए। दोस्त तनवीर नकवी के जरिए उनका परिचय कई निर्माताओं और निर्देशकों से हुआ। आखिरकार उन्हें बड़ा ब्रेक मिला और 1944 में फिल्म गांव की गोरी के लिए अपना पहला गाना ‘ऐ दिल हो काबू में’ रिकॉर्ड किया, हालांकि फिल्म एक साल बाद रिलीज हुई। इस बीच मोहम्मद रफ़ी ने नौशाद और श्याम सुंदर जैसे शीर्ष संगीत निर्देशकों के लिए गाना शुरू किया। (Craze For Mohammad Rafi)

नौशाद के साथ उनका काम 1950 और 1960 के दशक तक जारी रहा। पहले आप (1944), अनमोल घड़ी (1946), शाहजहां (1946), दुलारी (1949), दीदार (1951), दीवाना (1952) और उड़न खटोला (1955) जैसी फिल्मों में काम किया। नौशाद के निर्देशन में बनी फिल्म बैजू बावरा में काम किया। फिल्म के सेमी-क्लासिकल भजन ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ ने दुनिया को मोहम्मद रफी के गायक के रूप में खास छवि बना दी। फिर 1960 में मुगल-ए-आज़म के गीतों में आवाज दी।

1950 के दशक में रफ़ी साहब सदाबहार अभिनेता देव आनंद की आवाज़ बने। उन्होंने काला पानी (1958), बंबई का बाबू (1960), नौ दो ग्यारह (1957), तेरे घर के सामने (1963) और गाइड (1965) जैसी फिल्मों के लिए देव आनंद का पार्श्व गायन किया। उन्होंने सचिन देव बर्मन की संगीत रचनाओं पर काम किया।

देव-रफी-बर्मन की तिकड़ी ने हिंदी फिल्म उद्योग को ‘दीवाना हुआ बादल’, ‘दिलका भंवर करे पुकार’, आशा भोंसले के साथ ‘अच्छा जी मैं हारी पिया मान जाओ न’ और ‘खोया खोया चांद’ जैसे कुछ यादगार गाने दिए। मोहम्मद रफी और एसडी बर्मन ने 50, 60 और 70 के दशक में कमाल का जादू बिखेरा।

बर्मन ने देव आनंद, गुरु दत्त, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन समेत अपने लगभग सभी अभिनेताओं के लिए रफ़ी साहब की आवाज़ का इस्तेमाल किया। रफ़ी साब की आवाज़ ने ‘तेरी बिंदिया रे’ और ‘गुन गुना रहे हैं भंवरे, खिल रही है कली कली’ जैसे रोमांटिक गानों से पूरे देश में धूम मचा दी। (Craze For Mohammad Rafi)

रफ़ी ने कई मौकों पर महान संगीत निर्देशक ओपी नैयर के साथ काम किया और मिस्टर नैयर ने यह कहते हुए ऑन रिकॉर्ड कहा कि मोहम्मद रफ़ी के बिना वह सफलता के शिखर पर नहीं पहुंच पाते। उन्होंने कई सफल परियोजनाओं के लिए मोहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले की आवाज़ें जोड़ीं। नया दौर (1957), तुम सा नहीं देखा (1964) और कश्मीर की कली (1964) जैसी फिल्मों के ‘उड़े जब जब जुल्फें तेरी’, ‘तुम सा नहीं देखा’ और ‘दीवाना हुआ बादल’ जैसे गानों ने भारतीय दर्शकों के दिलों में स्थायी जगह बना ली।

मोहम्मद रफ़ी का एक और बेहतरीन सफल सहयोग संगीत निर्देशक जोड़ी शंकर-जयकिशन के साथ भी रहा। पार्श्व गायक के लिए मोहम्मद रफी के छह फिल्मफेयर पुरस्कारों में से तीन उनके सहयोग से ही आए – फिल्म ससुराल (1961) से ‘तेरी प्यारी प्यारी सूरत को’, फिल्म सूरज (1966) के ‘बहारो फूल बरसाओ’ और ‘दिल के झरोखे में’ फिल्म ब्रह्मचारी (1968) ने कमाल कर दिखाया।

मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाए गए शंकर-जयकिशन के गीतों को प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र ने लिखा था। इस संगीत टीम ने जानवर (1965) में ‘लाल छड़ी मैदान खड़ी’ और ब्रह्मचारी (1968) में ‘मैं गाऊं तुम सो जाओ’ जैसे न भूलने वाले गीत दिए।

शम्मी कपूर की फिल्मों जंगली (1961), प्रोफेसर (1962), एन इवनिंग इन पेरिस (1967) और ब्रह्मचारी (1968) के लिए शंकर जयकिशन की रचनाओं में ‘चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ जैसी अनोखी शैली की रचनाएं देखी गईं, जहां रफ़ी साहब ने खुद को ढीला छोड़ दिया।

शम्मी कपूर की उग्र और जोशीली प्लेबॉय छवि हो या ‘आवाज़ देके हमें तुम बुलाओ’ को ऐसा पिरोया कि सभी तरह के लोगों के मन में रोमानी भाव आ जाए। शंकर जयकिशन के साथ रफ़ी साब ने 341 गाने रिकॉर्ड किए, जिनमें 216 एकल थे। (Craze For Mohammad Rafi)

सफल संगीत निर्देशक जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ भी मोहम्मद रफ़ी ने बेहतरीन काम किया। उनका जुड़ाव 1963 में फिल्म पारसमणि से शुरू हुआ, दोस्ती (1964), मेरे हमदम मेरे दोस्त (1968), खिलौना (1970) और अनाड़ी (1975) जैसी शानदार फिल्म प्रोजेक्ट तक जारी रहा। उनके साथ में 369 गाने रिकॉर्ड किए, जो एक संगीत निर्देशक के लिए रिकॉर्ड किए गए रफी साहब के गीतों की सबसे ज्यादा संख्या थी।

उन्होंने ‘ना जा कहीं न जा’, ‘पत्थर के सनम’, ‘ये रेशमी जुल्फें’, ‘कोई नजराना लेकर आया हूं’ और ‘ऐ दिन बहार के’ जैसे अद्भुत गाने तैयार किए। रफ़ी साहब ने 1964 में फ़िल्म दोस्ती के गाने ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’ के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता था।

एसडी बर्मन के साथ काम कर चुके रफ़ी साब ने उनके बेटे राहुल देव बर्मन यानी आरडी बर्मन के लिए भी काम किया। उन्होंने तीसरी मंजिल (1966), कारवां (1971) और शान (1980) जैसी फिल्मों में साथ काम किया। रफी साहब ने ‘ओ हसीना जुल्फों वाली’, ‘ओ मेरे सोना रे सोना रे सोना’, ‘यम्मा यम्मा’, ‘चढ़ती जवानी तेरी चाल मस्तानी’ और ‘मैंने पूछा चांद से’ जैसे लोकप्रिय गाने गाए।

उन्होंने उस समय की फीमेल प्लेबैक सिंगर गीता दत्त, लता मंगेशकर, आशा भोंसले के ही साथ ही तमाम युगल गाने नहीं गाए, मन्ना डे, मुकेश और किशोर कुमार जैसे अपने समय के महान पुरुष पार्श्व गायकों के साथ भी युगल गीत गाए। बेहद विनम्र और पेशेवर गायकों में से एक रफी साहब को उनके परोपकारी स्वभाव की वजह से सभी समकालीन सम्मान देते थे। (Craze For Mohammad Rafi)

1970 के दशक के दौरान रफ़ी को किशोर कुमार से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा, जो 1971 में आराधना के बाद एक प्रमुख गायक के रूप में उभरे। यही वजह थी कि 70 के दशक की शुरुआत में उनके कम गाने रिकॉर्ड हुए, लेकिन 1977 में ‘क्या हुआ तेरा वादा’ गीत के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार और राष्ट्रीय पुरस्कार दोनों जीतकर एक बड़ी वापसी की। उन्होंने 1970 के दशक के अंत में लंदन में रॉयल अल्बर्ट हॉल और वेम्बली सम्मेलन केंद्र सहित कई अंतरराष्ट्रीय संगीत कार्यक्रमों में प्रदर्शन किया।

रफ़ी साहब को शानदार संगीत कॅरियर में कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। पार्श्व गायन के लिए 21 बार फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामांकन हुआ, जिसमें से 6 बार वह जीते और 1977 में एक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी जीता। उन्होंने 1957, 1965 और 1966 में तीन बार बंगाली फिल्म पत्रकार पुरस्कार भी जीता। भारत सरकार ने 1967 में पद्म श्री पुरस्कार से नवाजा।

उनके द्वारा रिकॉर्ड किया गया आखिरी गाना फिल्म आस पास के लिए संगीत निर्देशक जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए ‘शाम फिर क्यूं उदास है दोस्त’ था। (Craze For Mohammad Rafi)

मोहम्मद रफ़ी का 31 जुलाई 1980 को रात 10:25 बजे रफ़ी मेंशन, बांद्रा स्थित उनके आवास पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। उनके जनाजे में 10 हजार से ज्यादा गमजदा प्रशंसक और फिल्म इंडस्ट्री की हस्तियां शामिल हुईं। जुहू स्थित मुस्लिम कब्रिस्तान में उनको सुपुर्दे खाक किया गया। उनकी अहमियत का अंदाजा इसी से लगता है कि उनके सम्मान में भारत सरकार ने तब दो दिवसीय सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की थी।


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