पाहीमाफी : यथार्थ का कल्पनात्मक, कलात्मक और काव्यात्मक जीवन राग

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    आर डी आनंद-

अवधी कवि आशाराम जागरण का “पाहीमाफी”, जो पूर्व ही बहुत चर्चित रहा है, मई 2021 में रश्मि प्रकाशन लखनऊ से श्री हरे प्रकाश उपाध्याय द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह पुस्तक बहुत ही आकर्षक 349 पृष्ठों की एक मोटी रचनाकृति है। पाहीमाफी उनके गाँव का सत्यापित नाम है जिसे स्थानीय लोग ‘पहिया’ के नाम से बुलाते हैं। पाहीमाफी मूलतः दो शब्दों से मिलकर बना है-‘पाही’ और ‘माफी’। पाही संस्कृत भाषा का संज्ञा स्त्रीलिंग है। ‘पाही’ उस उस कृषि भूमि को कहते हैं जो किसान के गाँव या निवास स्थान से दूर हो और ‘माफी’ शब्द का अर्थ क्षमा करना अथवा क्षमा माँगना होता है। उसी संदर्भ में “माफी” वह भूमि है जिसका कर या लगान सरकार या राज्य आदि ने माफ कर दिया हो। इस प्रकार “पाहीमाफी” शब्द के संयुक्त अर्थ के विस्तार में जाने पर बोध होता है कि पहिमाफी वह स्थान है जहाँ पर पुरखे किसी दूसरे गाँव से आकर बसे अथवा बसाया गया तथा उनके जीवन को सरल और सहज बनाने के लिए सरकार से उसके लगान को भी माँफ करवाया गया। कालांतर में, पुरखों के बच्चे पहिमाफी के स्थाई निवासी हो गए।

काव्य-संग्रह ‘पाहीमाफी’ अवधी भाषा की काव्य-कृति है। एक भाषा सर्वेक्षण के अनुसार, अवधी बोलने वालों की कुल आबादी 16,15,458 थी जो सन् 1971 की जनगणना में 2,83,99,552 हो गई। मौजूदा समय में शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 6 करोड़ से ज्यादा लोग अवधी बोलते हैं। भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त के 19 जिलों- सुल्तानपुर, अमेठी, बाराबंकी, प्रतापगढ़, प्रयागराज, कौशांबी, फतेहपुर, रायबरेली, उन्नाव, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, अयोध्या व अंबेडकर नगर में पूरी तरह से यह बोली जाती है। जबकि 7 जिलों- जौनपुर, मिर्जापुर, कानपुर, शाहजहांपुर, आजमगढ़, सिद्धार्थनगर, बस्ती और बांदा के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रयोग होता है। बिहार प्रांत के 2 जिलों के साथ पड़ोसी देश नेपाल के कई जिलों – बांके जिला, बर्दिया जिला, दांग जिला, कपिलवस्तु जिला, पश्चिमी नवलपरासी जिला, रुपन्देही जिला, कंचनपुर जिला आदि में यह काफी प्रचलित है। इसी प्रकार दुनिया के अन्य देशों- मॉरिशस, त्रिनिदाद एवं टुबैगो, फिजी, गयाना, सूरीनाम सहित आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व हॉलैंड (नीदरलैंड) में भी लाखों की संख्या में अवधी बोलने वाले लोग हैं।

आशाराम जागरथ ने भूमिका में लिखा है कि “पाहीमाही” कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं, अपितु पितामह नीम पेड़ की अनुभूतियों, सुर्खियों और यथार्थ का कल्पनात्मक, कलात्मक और काव्यात्मक जीवन राग है। जो उसकी मातृभाषा अवधि में है। मेरा मानना है कि जली-भुनी संवेदनाओं, भावनाओं और आकांक्षाओं की हार्दिक अभिव्यक्ति मातृभाषा से बढ़कर कोई दूसरी भाषा नहीं दे सकती।

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इस कृति की योजना में ‘गूँग गवाह’ पहला खंड “यकतनहा नीम का पेड़ गवाह” का पहला खंड है। गूँग गवाह में दो शब्द हैं। ‘गूँग’ का अर्थ है जो प्राकृतिक तौर पर बोल न सकता हो और ‘गवाह’ का अर्थ उससे से जो सत्य-असत्य को पब्लिक व जज के सामने कहता है। नीम के पेड़ की तुलना उस व्यक्ति से किया गया है जो अनबोलता है। पेड़ प्राकृतिक तौर पर नहीं बोल सकता है और उसे ही अनेक सत्य और असत्य घटनाओं की गवाही देनी है। गवाह का मतलब है नीम का पेड़। नीम का पेड़ एकमात्र उस गांव की शिनाख्त करता है। पाहीमाफी की पहचान मात्र नीम का पेड़ बचा हुआ है। वह नीम का पेड़ बहुत पुराना पेड़ है। बहुत बड़ा। बहुत विशाल। बहुत छतनार।

टुकुर-टुकुर यकटक ताकत
परदादा नीम पुरान भयौ
चोरे-डाकू तक बिन माँगे
आपन पनाह दइ देत रह्यौ

बहु मोट-मोट ई हाथ-गोड़
कब आई केकरे कामे मा
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(नीम गवाह, पेज 28)

जाति दंस बड़ा कलंक जागरथ का भोगा यथार्थ है। भारत जातियों का देश है। यहां ऊंच-नीच, छुआछूत, भेदभाव बहुत जबरदस्त किया जाता है। सवर्ण अछूतों की परछाई बचा के चलते थे। सारे अछूत ब्राह्मणों से ‘पैलगी’ और क्षत्रियों से ‘जयराम’ किया करते थे। सवर्णों के गांव में प्रवेश करते ही सभी सूद, चमार, धोबी, पासी सावधान हो जाते थे। कोई भी अपनी चारपाई पर लापरवाह होकर नहीं बैठा रहता था, न जाने कब पंडित जी अथवा बाबू साहब घर पर आ जाँय। सवर्णों की आदत में सुमार था कि वे दलितों से जब भी बात करते थे, टुकार कर अथवा रेरिया कर बात करते थे। लोग कुत्ते-बिल्ली पालना, उनके साथ लेटना-बैठना, खाना-पीना पसंद करते हैं लेकिन किसी भी शूद-चमार के करीब आने से उनको आज भी परहेज और घृणा होती है।

कहने को तो देश आजाद था लेकिन शूद्र जातियां आज भी गुलाम थी। उस आजादी का क्या मतलब जहां श्रम शक्ति बेचकर खाने के लिए कुछ भी ना हो।  मनुस्मृति के अनुसार, शूद्रों को शिक्षा, धन, सुंदर कपड़ा, सुंदर अन्न, सुंदर आवास, जेवर, गहना, सुंदर स्त्री, तन कर खड़े होना, साबुन, तेल, दूध, इत्र इत्यादि कड़ाई से वर्जित था। यदि इन सब के इस्तेमाल में शूद्र पकड़ा जाय तो उसे कठोर से कठोर सजा दिया जाय, यहाँ तक कि जरूरी हो तो हत्या भी कर दिया जाय। कविता में इन चीजों को बहुत सुंदर ढंग से लिखा गया है।

पैलगी दूर से करत रहैं
परछाहीं बचा के चलत रहैं
बाभन-ठाकुर केव आइ जाय
खटिया पर से उठि जात रहैं
(जाति दंस बड़ा कलंक, पेज 86)

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उस समय लोग ‘हूंडभांड’ करके एक दूसरे का खेत सीखते थे। मैं जिस समय की बात कर रहा हूँ उस समय तालाब ही मात्र सिंचाई का साधन था। तलाब के किनारे जहां काफी नीचा होता था और पानी ऊपर ले जाना होता था, वहां दो-दो ‘घोल’ बनाई जाती थी। तालाब से लोग पानी खींचकर ऊपर फेंकते थे और फिर इस तरह से दूसरी घोल से लोग पानी खींचकर ऊपर की ओर फेंकते थे। जहां पर यह भी संभव नहीं होता था वहां ढेंकुर से सिंचाई होती थी।

उस समय ‘दोगला’, ‘ढेंकुर’ और कहीं-कहीं ‘रहट’ सिंचाई के साधन थे। दोगला में एक पलड़ा होता है और दोनों तरफ दो-दो रस्सियाँ होती हैं। दोनों तरफ एक-एक व्यक्ति अपने दोनों हाथों से एक-एक रस्सी पकड़ कर पलड़े को पानी तक ले जाता है तथा ‘पलड़ा’ में पानी भर कर ‘सोकारा’ में उड़ेल देता है। सोकारा वह स्थान होता है जहां पानी गिरता है। यह प्रारम्भ में चौड़ा होता है और आगे पतला होकर बरहा हो जाता है। ‘बरहा’ पानी जाने की नाली को कहते हैं।

यह क्रम बिना रुके एक जोड़ी व्यक्ति लगातार एक घंटे करते हैं। यह बहुत ही परिश्रम का जारी होता है। ‘ढेंकुर’ एक प्रणाली है जिसमें ‘कैचीनुमा’ एक पर्याप्त मोटी ‘धन्न’ गाड़ी जाती है तथा उसके ‘कैमारे’ में एक लम्बी ‘बल्ली’ ‘धुरकुल्ली’ के सहारे सेट की जाती है। बल्ली के पीछे ‘लादी’ लाद की जाती है। आगे के छोर पर लम्बा रस्सा बाँध दिया जाता है। रस्सी के निचले छोर में ‘कूँड़’, जो बाल्टी के आकर से थोड़ा भिन्न पानी भरने का बरतन होता गया, बाँध दिया जाता है। घोल अथवा कुआँ अथवा ‘चोड़ा’ के मध्य हेंगा रख दिया जाता है। उसी के मध्य एक व्यक्ति खड़ा होकर पानी भर कर निकालता है तथा ‘सोकरे में उड़ेल देता है। यही क्रम वह भी निरंतर करता रहता है। जब दूसरा जोड़ीदार उसे छुट्टी देता है तब वह आराम करता है।

इस ड्यूटी को ‘जोवा’ कहते हैं। रहठ में डिब्बे का चेन होता है। वह कोल्हूनुमा ‘ककनी’ से लगातार चलता रहता है। ठीक कोल्हू की तरह बैल ‘हर्स’ में बँधे हुए गोल-गोल घूमते रहते हैं। कोहा’, ‘बड़ेर’ और ‘नर्रा’ तीन तरह से खेत में पानी भरा जाता था। एक व्यक्ति कोहा और बड़ेर की दीवाल को ‘ककनीयाता’ रहता है। कोहा छोटे से टुकड़े को कहते हैं। बड़ेर कोहे के बराबर चौड़ाई का खेत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक का बड़ा टुकड़ा होता है। नर्रा उसे कहते हैं जहाँ न कोहा होता गया और न बड़ेर। वहाँ पूरे खेत में पानी एक सिरे से भरा जाता है। जहाँ ऊँचाई ज्यादा होती थी वहाँ ‘हाथा’ से ‘हथियाया’ जाता था। हाथा लकड़ी से बनाया गया पानी उलचने का संयंत्र है। हथियाना हाथा से पानी उलचने को कहते हैं।

हल्ला होत भोरहरी होय
दोगला चलै सिंचाई होय
थोरै देर चलाई हमहूँ
चकचक देंह पसीना होय
(करम कमाई कामकाज, पेज 159)

बरहा ऊँच बनावा जाय
ढेंकुर-कूँड़ चलावा जाय
गोहूँ जौ केराव कै खेत
हाथा लइ हथियावा जाय।
(करम कमाई कामकाज, पेज 159)

गड़ही बीचे खोदा चोंड़ा
फूटा पानी छाती चौड़ा
बैल पियासा फरवारे कै
पानी पीय जोड़य-जोड़ा
(करम कमाई कामकाज, पेज 160)

आशाराम जागरथ ने ‘बुआई’, ‘सिंचाई’, ‘कटाई’, ‘पिटाई’, ‘दंवाई’, ‘फरवार’, ‘पइर’ आदि का भी वर्णन किया है। यहाँ जागरथ की कल्पनाशीलता दिखाई पड़ती है। ‘झुरझुर’ ‘बयार’ और ‘कुरकुर’ कटाई। कटाई चैत के अंत और वैसाख के प्रारंभ में शुरू होता है अर्थात मार्च-अप्रैल में। फसल ‘फरवार’ में लाकर खरही के रूप में ‘गाँज’ दिया जाता है। ‘खरही’ को उलटकर पइर के रूप में रूपान्तरित कर दिया जाता है।

दो बैलों की जोड़ी दिन भर उसी फसल पर लगातार चलते रहते हैं। उन्हीं के पीछे गोल-गोल किसान भी परिक्रमा करता रहता है। इसे ‘दंवरी’ कहते हैं। दंवरी में प्रयोग होने वाले संसाधन व संयंत्र ‘अखनी’, ‘पैना’, ‘पाँची’, ‘पाँचा’, ‘झौवा’, झौली’, ‘खाँची, ‘खाँचा’ होता है। जब पइर बिल्कुल एक-एक अंगुल की हो जाती है। तब उसे ओसाया जाता है। ओसाते समय ‘गेंहूँ’ अलग, ‘भूसा’ अलग, ‘लेंडुरी’ अलग करना पड़ता है। लेंडुरी भूसे के अतिरिक्त गाँठ वाले भाग को कहते हैं।

फरवारे मा दंवरी नाधे
लोगै गोहूँ दावैं साथे
करैं बैल मिलि घुमरपरैया
मुँह मा जाबा बाँधे-बाँधे

अखनी पैना पाँची पाँचा
झौवा झौली खाँची खाँचा
बभनन के खरही पै खरही
बोझै-बोझ अलग से गाँजा
(करम कमाई कामकाज, पेज 163)

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आशाराम जागरथ जी ‘विद्या विद्यालय-छूतछात’ अध्याय में स्कूल में हो रहे जातिवाद को बहुत ही गंभीरता से नोटिस किया है। वह कहते हैं ग्रामीण स्कूल जातिवाद का अड्डा है। यहीं पर जातिवाद, ऊंच-नीच, छुआछूत पढ़ाया जाता है। वे तो यहां तक कहते हैं कि जब मैं स्कूल आता था, मुझको देख कर न जाने कितने अध्यापकों की छाती फट जाती थी। गांव के कितने लोग चिढ़ाते-चमकाते थे।

स्कूल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, धोबी, चमार सब एक लाइन बैठते थे। इस स्थित को देख कर ब्राह्मण-छत्रिय कहते थे, यह देखो धोबिया को! मेरे बेटे के साथ बैठा है, इतनी औकात हो गई इसकी। इस परिघटना पर अध्यापकों द्वारा प्रतिरोध किया जाना चाहिए लेकिन नहीं, उन्हें चूँकि जातिवाद में मजा आता है और उनकी सहमति होती है इसलिए ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। सभी सवर्ण अध्यापक जातिवाद की घटिया मानसिकता को पनपने में सहयोग करते हैं।

जो जाति-पाँति कै ज़हर रहा
कुलि इसकूलेन मा भरा रहा
जे पढ़त रहा वोकरे माथे पै
ऊँचौ-नीचौ लिखा रहा

देखते हमकां छाती फाटै
तिरछी आँखी रहि-रहि ताकै
‘हमरे बेटवा के बगल बइठ
ई धोबिया सार पढ़त बाटै ‘

बिख उगिलकै खिसिक लिहिन वै तौ
फइलाय ज़हर अंतरमन मा
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(विद्या विद्यालय-छूतछात, पेज 177)

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आशाराम जागरथ अपने खंड ‘टुटहा पगहा’ में रूपक का जबरदस्त प्रयोग किया है। टूटहा पगहा एक रूपक है। यहां टुटहा पगहा का अर्थ है जहाँ प्राणी बँधा न हो अर्थात स्वतंत्रता हो। गरीबी प्रारब्ध है। एक तो शूद्र, दूसरे अछूत, तीसरे स्त्री और चौथे गरीबी। इस अध्याय में जागरथ ने एक दलित स्त्री की आपबीती का वर्णन किया है। इस अध्याय में भी उन्होंने ‘सॉलिलॉक’ का प्रयोग किया है। दलित स्त्री अपनी गरीबी, अपनी विपत्ति, अपनी हार, अपनी जीत, अपनी मेहनत, पति की प्रताड़ना, उपवास, मेहनत, मजदूरी, सवर्ण प्रताड़ना, सवर्ण पुरुषों की बदनियति एवं सवर्ण स्त्रियों के दुर्व्यवहार को कहती है।

हुकुम बजाओ परा उतानै
भितरी’कू मार दहिजरू जानै
उसिन के आलू उहै धरी बा
खाव निकोल-निकोल निछानै

करी मजूरी तू मनमानी
रेगा होइगै भरी जवानी
काम कै नावँ-निहोरा नाहीं
जाँगर पेरी बैले खानी

लरिका पाली चूल्हा फूँकी
फिर गोड़ दबाई राती मा
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(टूटहा पगहा, पेज 221)

आशाराम जागरथ ने अपने अगले अध्याय ‘सोने कै खूँटा’ में भी रूपक का प्रयोग किया है। इस अध्याय में उन्होंने सवर्ण स्त्रियों के दुख और पराधीनता, घर के भीतर की घटनाएँ, पुरुष प्रताड़नाएँ, अन्तःपुरम की अश्लील हरकतें, अंदरूनी बलात्कार की कथा को बहुत खूबसूरत ढंग से रेखांकित किया है। सवर्ण घर की स्त्री एक बार जब ब्याह कर आती थी तो वह दस बच्चों की मां होने के बाद भी मयके नहीं जा पाती थी।

नइहर वोरी ताकेन नाहीं
जबसे आयन ससुरारी मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(सोने कै खूँटा, पेज 238)

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जहां एक तरफ आशाराम जागरथ ने दलित स्त्रियों के लिए ‘टूटा बगहा’ का प्रयोग किया है वहीं पर सवर्ण स्त्रियों के लिए ‘सोने का खूंटा’ शब्द का प्रयोग किया है। सोने का खूंटा प्रतीक है सवर्ण स्त्रियों की जबरदस्त गुलामी का। स्त्री होने के नाते सवर्ण स्त्रियां भी पुरुषों के द्वारा इसी तरीके से भोग्या हैं जिस तरीके से दुनिया की सारी स्त्रियां।

‘साहब, बीवी और गुलाम’ फिल्म की पटकथा इसी तरह के एक स्त्री की है। दहलीज ही उनके लिए लक्ष्मण रेखा है। जिस तरीके से चिड़िया एक पिछड़े में बंद होती हैं और उसी में उनको अपनी सारी कलाएं दिखानी होती हैं, उसी में हंसना होता है, उसी में गाना होता है, उसी में टट्टी-पेशाब करना होता है और उसी में उनको सेब, संतरा, मिर्च, पानी सब मुहैय्या रहता है। ठीक उसी तरह सवर्ण स्त्रियों की जिंदगी एक बड़े पिजड़े में कैद होती है।

दहलीज़ पार लछिमन रेखा
मिटये न मिटै भाग-लेखा
कोठरी कै रोसनदान खोलिकै
दुलहिन पढयँ हाथ-रेखा

कुच कुचुर-पुचुर कुचकुच बोलै
चिरई बखरी के पिंजरा मा
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(सोने कै खूँटा, पेज 239)

‘दहिजरा कलाही कलपावै’ के सभी शब्द पाठकों के लिए बिल्कुल नए से दिखेंगे क्योंकि ये शब्द बहुत ही पुराने अवधी के आंचलिक शब्द हैं। ‘दहिजरा’ का अर्थ दुष्ट-कमीना, ‘कलाही’ का अर्थ अत्यंत गरीबी और भुखमरी तथा ‘कलपावै’ का अर्थ परेशान करना है। जागरथ लिखते हैं कि संझा-भिन्नही कलाही रोज आती है और हमें परेशान करती है। ‘संझा’ माने शाम और ‘भिन्नही’ माने सुबह होता है।

जब गरीबी शाम सुबह दोनों है तो आखिर कब नहीं है, मतलब दलित घरों में भुखमरी का साम्राज्य हमेशा है। बच्चे भूख से बेहाल ‘रिरियाते’ हैं। यहाँ रिरियाने का संबंध बच्चों के लगातार अपनी भूख के लिए रट लगाए रखना है। उस समय दलितों को भूजा-महुआ, ठोकवा, लाटा, मौहरी, आम के किसुली के आटा की रोटी, भड़भड़ा के नरम कँड़री की सब्जी, कोइन और भांटा की तरकारी, पाकड़ की फुलगी की सब्जी, सेरकी, सिंघाड़ा और बेर्रा की लपसी, पटुआ के ढेंढ़ी की सब्जी, पोई के पत्ते की दाल, गोजई, बाजरा, लड़हरा, चरी, जोन्हरी आदि की रोटी, साँवाँ-कोदव-काकुन आदि का भात नसीब था।

भूजा-महुआ, ठोकवा, लाटा
आमे के किसुली कै आटा
भड़भड़ा कै कँड़री नरम नरम
तरकारी कोइनी औ भाटा

तूरी लइकै बड़की लग्गी
कल्लानी पाकड़ कै फुनगी
ताले मा सेरकी सिंघाड़ा
बेर्रा कै नीक बनै लपसी

पेटुआ कै ढेंढ़ी जेस भिन्डी
पोई कै पाता दाली मा
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(दहिजरा कलाही कलपावै, पेज 265)

समय बदलने के साथ-साथ दलितों की हिम्मत भी बदलने लगी। सवर्ण जब धमकी देता था तो दलित धमकी को स्वीकार कर लेता था। वह भी तेरे-मेरे की बात करता था। जब सवर्ण यह कहने लगा कि हम तुम्हारी चमरई निकाल लेंगे, तब दलित भी चैलेंज के रूप में कहने लगा कि हम तुम्हारी ठकुराई बिगाड़ देंगे। यह द्वन्द्व जातियों के मत गहरा होने लगा। गांव में जातिय गोलबंदी होने लगी। दलित जातियों के भी लड़कों में भी सम्मान की भूख सताने लगी।

हालांकि, अभी भौतिक स्थितियां ऐसी नहीं थी कि दलित जातियां सवर्णों का मुकाबला करते लेकिन परिस्थितियों ने दलितों को सवर्णों से लड़ने को मजबूर कर दिया। गांवों में सवर्ण और दलित के लड़ने की बातें सुनाई पड़ने लगीं। यह सही है कि जब दलित सवर्णों से लड़ता था तो सवर्ण घेर कर दलितों को मारपीट देते थे तथा थांहें में रिपोर्ट भी कर देते थे। दलित लड़कों को भागा-भागा फिरना पड़ता था। इस तरह अनेक लड़के शहरों में भाग गए।

ज्यौं चिढ़ी ठकुरई ठाकुर कै
नेकुना रहि-रहि फूलै-पचकै
दउराय कै गटई पकरि लिहिन
घमकाइन मुक्का पीठी पै

भन्नान ‘बहदुरा’ चढ़ि बइठा
दुहराइस सोंटा गोड़े मा
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
हिंसा बटे हींसा, पेज 287)

आशाराम जागरथ ‘झूठ बोली तो कउवा काटे’ में लिखते हैं कि समय चक्र के साथ ब्राह्मण-ठाकुरों में बहुत परिवर्तन आया। सवर्ण जातियां हर छोटी जातियों के पास बैठती हैं। अब अपने फायदे के लिए बहुत कुछ समझौता भी करते रहते हैं। बहुत सारे ब्राह्मणों को देखा है वह छोटी जातियों के साथ बैठकर मीट-मछली-मुर्गा खाते हैं। सवर्ण खाने पर बैठी मक्खियों से घृणा नहीं करते हैं जबकि मक्खियां टट्टी-पेशाब पर बैठकर खाने पर बैठती हैं।

वह खाना तो सवर्ण खा लेता है उसे उल्टी होती है न जी मचलाता है लेकिन दलितों का छुआ नहीं खाता है। यह सवर्णो के बुद्धि का फेर है। सवर्णों के बुद्धि में कूड़ा करकट भरा हुआ है। उनको ज्ञान विज्ञान की कोई भी तमीज नहीं है। उन्हें सिर्फ अपने बड़े होने का अभिमान है। अपने ब्राह्मण होने का गुमान है। न जाने कितने कुकर्म मठ-मंदिरों के अंदर करते हैं। न जाने कितने कुकर्म नीची जाति के औरतों के साथ करते रहते हैं तब छूत नहीं होती है लेकिन समाज में सबके सामने सूद-चमारों की परछाई से भी छुत करते हैं।

यह कितना बड़ा कमीनापन कितना बड़ा दोगलापन है। ऐसी जातियों से हम किस वफा की उम्मीद कर सकते हैं और क्यों करते हैं। जब तक सवर्ण जातियां स्वयं बदलने के लिए तैयार नहीं होती हैं तब तक दलित उनसे किस तरह प्यार से पेश आ सकते हैं? निश्चित एक दिन महाभारत होगा। जब सचमुच का महाभारत इस देश में होगा, तो निश्चित इस बार महाभारत जे युद्ध में पांडव नहीं जीतेंगे। इस बार ब्राह्मणों की मति कोई ईश्वर कोई नहीं मानेगा और न ही उनकी वाणी को कोई धर्म मानेगा। इस बार उनके छल प्रपंचों और वाग्जाल की शल्य चिकित्सा अभी से प्रारंभ हो चुकी है।

चोरी चुप्पे मछरी खावै
दारु पी परबचन सुनावै
दादा-भइया कहि गोहरावै
पीछे पीठ खूब गरियावै
(झूठ कही तौ कउवा काटै, पेज 306)

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पाहीमाफी में ‘साधुवाइन कै परबचन’ भोग हुआ यथार्थ है। सधुवाइन किसी सवर्ण घर की महिला है जो अपने शादी में ही पति के अमानवीय व्यवहार पर रात में ही घर छोड़कर भाग जाती है। पिता के घर में भी शरण न मिलने के कारण वहां से भी वह किसी मंदिर में भाग जाती है। वह अपनी जुबानी कहती है कि मैंने एक मंदिर से दूसरे मंदिर, दूसरे से तीसरे और तीसरे से चौक से मंदिर में शरण लिया। हर जगह को जाना-समझा। वहां के पुजारियों को समझा। कर्मकांडों को समझा। वहां के रीति-रिवाज को जाना और यह जाना कि मंदिर भी कमाई का एक कारखाना है तथा पूजा-चढ़ावा एक धंधा है।

मंदिरों में सारे पंडे-पुजारी-महंत मौज मस्ती और अय्याशी करते हैं। हम जैसी सन्यासिनें उनके हवस के शिकार हैं और उनके भूख के साधन हैं। साधुवाइन अनुभव के उस नतीजे से कहती हैं कि जनता बहुत भोली भाली है। जनता को न यह पता है कि ईश्वर है और न जनता को यह पता है कि ईश्वर नहीं है।

जनता धर्म के अंधविश्वास ने फंसी है। धर्म के नेता, पंडे, पुजारी जो कहते हैं वही जनता के लिए सत्य है। वही जनता जे लिए फरमान हो जाता है, वही जनता के लिए संविधान हो जाता है। जनता को सिर्फ खेती-बारी, पशु-परिवार, खाने-पीने और जीने से मतलब है। पंडे-पुजारी बछिया छुआ कर उनके उहलोग में भेजने जा ठीका लेते हैं। उनसे धन उगाही करते हैं और मज़ा लूटते हैं।

सधुवाइन कहती हैं कि यह बड़े-बड़े महंत सिर्फ ठेकेदार हैं। ये महंत पूजापाठ नहीं करते हैं। ये सिर्फ उगाही के लिए दशाएँ तैयार करते हैं और कर्मचारी लगाते हैं। इनकी ठेकेदारी में छोटे-छोटे पंडे पुजारी मंदिरों में बैठकर धन पुगाही का काम करते हैं। यदि किसी दिन चढ़ावा कम हुआ तो महंत इन छोटे-छोटे पांडे पुजारियों की वाट लगाते हैं। उनसे प्रश्न पूछते हैं कि आखिर क्या हुआ जिससे आज की कमाई कम हो गई।

ई धरम-जाल सब भरम हुवै
कुच्छौ नाहीं बा भक्ती मा
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(साधुवाइन कै परबचन, पेज 310)

भगवान तौ ई ब्रह्माण्ड हुवै
सूरज चंदा तारे जेहिमां
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(साधुवाइन कै परबचन, पेज 312)

जागरथ भी कहते हैं कि ईश्वर की तरफ उन्मुख होना बेकार है। सृष्टि का निर्माण भौतिक परिस्थितियों के कारण संभव होता है। सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में कोई भी सर्वशक्तिमान, कोई भी ईश्वर या कोई ऐसी शक्ति जो जानबूझकर ऐसा करता हो/करती हो, नहीं है। सब कुछ एक प्रक्रिया विशेष के कारण होता है। जैसे पानी की उत्पत्ति ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के विशेष प्रक्रिया के कारण होता है, उसी तरह से जीव उत्पत्ति और  मृत्यु भी रासायनिक प्रक्रियाओं के द्वारा ही हुआ है। यह रासायनिक प्रक्रिया अनियंत्रित रुप से गतिमान बहती हैं।

कुछ भी पूर्व में सुनिश्चित नहीं होता है। एक निश्चित अवस्था/मात्रा में चीजें निर्मित होती है। उस निश्चित अवस्था/मात्रा के निश्चित होने में असंख्य वर्ष भी लग सकते हैं और ऐसा भी हो सकता है कि वह कभी भी घटित ही न हो। अंत में जागरथ कहते हैं कि किसी अधिभौतिक शक्ति के सहारे न रहो। सोचो, समझो और विचारों। अपने ज्ञान का प्रकाश स्वयं बनो।

सृष्टि-चक्र के सुन्दर जोड़ी
भागौ ना भगवान की वोरी
मनमाफिक मौसम मा अपुवैं
पइदा हूवैं लिल्ली-घोड़ी

सोचौ-समझौ खुदै विचारौ
दीया बारौ बुद्धी मा
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(साधुवाइन कै परबचन, पेज 313

अवधी कवि आशाराम जागरथ पाहीमाफी के अध्याय ‘लागि कटानि कुल बहि बिलान’ में सरयू नदी का वर्णन एक डायन के रूप में करते हैं। हमें उसके उद्भग, विस्तार और स्वरूप के बारे में थोड़ा सा जान लेना चाहिए। सरयू नदी (अन्य नाम- घाघरा, सरजू, शारदा, गोगरा, देविका, रामप्रिया, सरभ, सोरोमत्तीस, सरोबेस) हिमालय से निकलकर उत्तरी भारत के गंगा मैदान में बहने वाली नदी है जो बलिया और छपरा के बीच में गंगा में मिल जाती है। सरयू नदी की लंबाई 350 किमी (217 मील) है। सरयू नदी का उद्गम स्थान कुमाऊँ क्षेत्र, उत्तराखंड है।

सरयू नदी जब उत्तराखंड में बहती है, तो इसके ऊपरी हिस्से में ‘काली नदी’ के नाम से जाना जाता है तथा मैदान में उतरने के पश्चात् इसमें ‘करनाली’ या ‘घाघरा नदी’ आकर मिलती है और इसका नाम सरयू हो जाता है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्रों में इसे ‘शारदा नदी’ भी कहा जाता है। बहराइच, सीतापुर, गोंडा, फैजाबाद, अयोध्या, टान्डा, राजेसुल्तानपुर, दोहरीघाट, बलिया आदि शहर इस नदी के तट पर स्थित हैं। सरयू नदी की प्रमुख सहायक नदी ‘राप्ती’ है जो इसमें उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर मिलती है। इस क्षेत्र का प्रमुख नगर गोरखपुर इसी राप्ती नदी के तट पर स्थित है और राप्ती तंत्र की अन्य नदियाँ ‘आमी’ और ‘जाह्नवी’ इत्यादि हैं, जिनका जल अंततः सरयू में जाता है।

आशाराम जागरथ ने अपने गाँव को सरयू की धारा में विलीन होते हुए अपनी आँखों से देखा है। सरयू नहीं का पानी हमेशा ऐसा नहीं रहता है। सरयू नदी का पानी मार्च-अप्रैल महीने तक बिल्कुल सुख जाता है। लोग इसे ‘सियरा नग्घन’ कहते हैं। सावन महीने (अगस्त) में नदी का पानी इस कदर बढ़ जाता है कि उसे देख और आवाज़ सुनकर दिल दहलने लगता है। वे लिखते हैं, जब हम नदी के किनारे खड़े होते हैं तो अयोध्या से लेकर टांडा थर्मल तक प्रवल वेग से बहती हुई सरयू की जलधारा भयंकर प्रतीत होती है।

सामने दस किमी और अगल-बगल साठ किमी तक जल ही जल ‘अकाराप’ दिखाई पड़ता है। समुद्र की स्थिति डरावनी नहीं लगती है लेकिन नदियों की भयानक शोर करती तीव्र धारा बहुत ही डरावनी लगती है। नदी के किनारे की जलधारा बिल्कुल ‘मटमइल’ फेनायुक्त भँवरदार दिखाई पड़ता है। वह काल विकराल काल सा दिखाई पड़ता है। बड़े-बड़े बुलबुले ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे कोई विशालकाय दानव सम्मुख खड़ा हो और हमें मुँह का ग्रास बनाने ही वाला हो। ऐसे लगता है जैसे दरिया बहुत दिनों से भूखी-प्यासी है और पूरी जमीन ही लील लेने वाली है। देखते ही देखते किनारे की जमीन दरार लेती है और ‘झम्म’ की आवाज के साथ 50 मी लम्बा और 10/15 मी चौड़ी जमीन नदी के पेट में समा जाती है।

फेनवा पानी मटमइल रंग
विकराल काल बोलै मुँहफट
थाम्हें न थम्हैं धारा भकोस
बुलबुले बुल्ल बड़का बुल्ला

सुहाराय पेट हिलकोर डूब
मझधार घाट पानी अथाह
चक्कर घनचक्कर भंवरकुण्ड
दरिया भुखान कटै सिवान।
(लागि कटानि कुल बहिबिलान, 335)

वही सावन बहार लाता है, वही सावन नदिया की जवानी लाता है और यह वही सावन है जो पाहीमाफी की जिनगी उजाड़ रहा है। जागरथ जी कहते हैं जिसे सभी सरयू माई कहते हैं, वही सरजू माई कसाई बनकर तांडव कर रही हैं। चुपे-चुपे ‘कल्ले-कल्ले’ वह ‘हरजाई’ पूरे ‘सिवान’ को, खेत खलिहान को, दक्षिण पूरब कुटिया को और बाग-बगीचे को काट दे रही हैं। शाम से ही सरजू की धारा हर हर हर हर बोलने लगती है। करार झम झम गिरता है। मुश्किल से दस दिन में हमारा गांव कट करके जलधारा बन गया। वह काला वर्ष सन 1981 था जब सरयू नदी ने हमारे पूरे गाँव को अपनी धारा में समाहित कर हमें बेघर कर दिया था। उनके जुबानी:-

गाँव के गोइँड़े सरजू माई
करैं तांडव, बनी कसाई
चुप्पे-चुप्पे कल्ले-कल्ले
काटत आवैं वै हरजाई

हरहर-हरहर बोलै धारा
झम्म झमाझम गिरै करारा
जनमभूमि कै नावँ- निशान
कटि गय बहि गय मिटि गय सारा

उच्छिन्न होय गय पूरा गाँव
वन्नइस सौ यक्कयासी मा
यकतनहा नीम के पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा।
(लागि कटानि कुल बहि बिलान, 336)

जब जागरथ जी का गाँव कट रहा था, उस समय मैं भी उनके गाँव गया था। उनके गाँव पाहीमाफी में मेरे पिता श्री राम आसरे का ननिहाल था। पिता जी के नाना का घर बिल्कुल ‘कगार’ (Bank) पर था। मुझे याद है उनके घर के पीछे कुछ ‘झंखार’ था। उसमें ‘रेंड़ी’ के पेंड़ भी थे। सभी खूब हड़े भरे थे। कोई एक बड़ा सा पेंड़ भी था। देखते-देखते पेड़ और झंखार झम्म से नदी में गिर गया। सभ्य चिल्लाए, भागो, भागो, घर का नंबर आ गया है। वह मुख्य घर था। कोई उसमें से बक्सा निकालने घुसा था। वह मना करने पर भी नहीं मान रहे थे। तब तक दो लोगों ने उन्हें जबरदस्ती घसीट कर बाहर निकाला। जैसे ही लोग उस कोठरी से बाहर निकले, पूरा मकान नदी में ‘मसमसा’ कर बैठ गया।

वह दृश्य देखकर मेरा बालमन भयभीत हो गया। सभी हाय हाय करने लगे। एक सेकेंड भी देर हुआ होता तो तीन जानें नदी में समा जातीं। मैंने लोगों को बाल-बाल बचते देखा है। मेरे सामने कई घर जमीदोज हो गए। उस समय जागरथ जी 11वीं कक्षा और मैं 9वीं के विद्यार्थी था। उस कटान में कितने लोग सोते-सोते नदी की धारा में अदृश्य हो गए, कितने लोग रोते-बिलखते मर गए, कितनों को हृदयाघात हो गया। कितने खाए बिना मर गए। लोग अपना-अपना सामान ढो दो कर गाँव के उत्तर बगीचे में ले जा रहे थे।

उस आपदा में स्त्री, पुरुष, बच्चे, गाय, बैल, भैंस, छगड़ी, बकरी, कुत्ते, बिल्ली सभी खुले आसमान के नीचे भीगते हुए किसी तरह दिन-रात गुजार रहे थे। अब सवाल था कौन कहाँ जाय, कहाँ रहे, कहाँ बसे। अब यहाँ आलोचक का काम खत्म होता है और पाठकों की कल्पनाशीलता ही कवि के भावपक्ष के साथ न्याय कर सकता है।

(समीक्षक आर डी आनंद वरिष्ठ मार्क्सवादी दलित चिंतक हैं)

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