अबकी बार बसन्त में हैं जरा प्रतिकूल हवाएं…मन को कुरेदती अशोक कुमार की चुनिंदा कविताएं 

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(1)

देखना एक दिन!
जंग की तैयारियों से हम ऊब जाएंगे
उस दिन यह सरहदें
खेल के मैदानों में बदल जाएंगी
और हमारे बच्चे
बंकरों में छुपन्नछुपाई खेलेंगें।
——-

(2)

मेरे घर का रास्ता!
फिसलनपट्टी जैसा है
जिस पर कितनी ही बार फिसला हूं
उठा हूं, आगे बढ़ा हूं…!!
टेडी-मेढ़ी पगडंडियां-
धरती की हथेली पर रेखाओं जैसी हैं
खेत ऐसे जैसे कोई स्वर्ग तक
सीढियां बना रहा हो…..!!
——–

(3)

पहला आंदोलन
शायद बीज ने किया होगा
मिट्टी के विरुद्ध
और फूट पड़ा होगा पौधा बनकर।
या फिर शिशु ने
कोख़ के भीतर किया होगा
जन्म लेने के लिए।
हर बार
आंदोलनकारी को प्रेम मिला है
मिट्टी से भी, और माँ से भी।
क्योंकि
माँएं जानती हैं
कि आंदोलन के बगैर
सृजन संभव नहीं।
———

(4)

मैं भीतर से डरा हुआ
वह व्यक्ति हूं
जो विद्रोह किये बगैर
क्रांति चाहता है।
——-

(5)

स्त्री श्रम की अनदेखी का-
इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा..?
कि पृथ्वी पूरे चौबीस घंटे घूमती है अपनी धुरी पर
तब जाकर सवेरा होता है!
और हम कहते हैं
कि सूरज निकल आया है!
——-

(6)

अब शहर से कोई रास्ता मेरे घर नहीं जाता
बस एक स्कूल होता तो मैं शहर नहीं जाता
मेरी बोली, मेरा गाँव सब जिंदा रहते मुझमें
चार पैसे कम रह जाते तो मैं मर नहीं जाता
——

(7)

अबकी बार बसन्त में
हैं जरा प्रतिकूल हवाएं,
अबकी बार बसन्त में
बन चुकीं हैं शूल हवाएं,

 

अबकी बार बसन्त में
यह आंधी, यह कोहरा सा,
धुंधली-धुंधली सी राहें
लेकर आयीं धूल हवाएं,

 

अबकी बार बसन्त में
सपनों पर भी पहरे होंगे,
अबकी बार बसन्त में
ज़ख्म और भी गहरे होंगे,

 

अबकी बार बसन्त में
झूठ लिपटकर आएगा,
नित नये अखबारों में
होठों पे सच ठहरे होंगे,

 

अबकी बार बसन्त में
मुझसे मिलने मत आना,
अबकी बार बसन्त में
राग बसन्ती भी मत गाना,

 

अबकी बार बसन्त में
रंग सुहाने नहीं लगेंगे,
अभी जरा सी मायूसी है
प्रेमगीत भी न दोहराना,
अबकी बार बसन्त में
—–

(8)

जितनी नफरत-
हमें युद्ध से करनी चाहिए थी
हमने उतनी नफ़रत
प्रेम से की हैं।
शायद इसीलिए-
इस दुनियां में फूलों से ज्यादा
युद्ध का सामान है।
—–

(9)

जहां-
पीढ़ियों को दौड़ना था
रफ्तार का जश्न होना था
सुना है उन सड़कों पर
लोहे की कीलें उग आयी हैं……।
———

(10)

राजा!
महान कहलाता है इतिहास की किताबों में।
प्रजा महान नहीं होना चाहती
क्योंकि उसने-
जीत की कीमत चुकाई है।
इसलिए-
प्रजा युद्ध नहीं चाहती,
संघर्ष भी नहीं,
जीत-हार…
कुछ भी नहीं!
प्रजा युद्ध की कीमत जानती है-
इस पार भी-उस पार भी।
———

(11)

राजा युद्ध लड़ते हैं
सत्ता के लिए
प्रजा युद्ध नहीं लड़ती
संघर्ष करती है-
ताकि सांसे चलती रहें।
राजा अभिमान करता है
युद्ध में जीत पर।
प्रजा अभिमान नहीं करती
याद करती है-
बिछड़े हुओं को।
——

(12)

देते साहस थे कभी, यह जो हैं अखबार।
अब यह कोने में पड़े, रद्दी बन बेकार।।
जन के पीछे पड़ गया, तानाशाही तंत्र।
चैनल-वैनल कुछ नहीं, पूंजी के षड्यंत्र।।
सड़कों पर है क्यों खड़े, खेती-वेती छोड़।
देखो किसने है किया, पूंजी से गठजोड़।।
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(13)

उफनते-उबलते शब्दों को
बना लेने दो रास्ते
सुलगते-धधकते शब्दों को,
पा लेने दो मंज़िले।
कविताओं, गीत, गज़लों को
लिखने दो इतिहास।
अभी रास्ते हैं अवरुद्ध!
कलमें बेशक होंगी क्रुद्ध!!
होने दो अपने शब्दों को-
झंखड़ों-झंझावातों के विरुद्ध!!!
—–

(14)

मैने परिभाषित करना चाहा!
खुशियों को।
एक बच्चा हंस दिया-
अपनी मां को देखकर।

 

मैने दुख लिखना चाहा!
बच्चा रो दिया-
खिलौना टूटने पर।

 

मैने समझना चाहा!
मजबूरियों को।
बच्चा निकल पड़ा-
खिलौने बेचते हुये।
—-

(15)

कभी-कभी लगता है-
रात को बाहर सड़क पर
चौकीदार के लठ से आती ठक-ठक की आवाज़,
हमारी सभ्यता पर अट्टहास करती है
कि अभी तक जरूरी क्यों है?
कि अंदर चैन से सोने के लिए,
बाहर कोई ठिठुरती रात में घंटों जागकर पहरा दे।

 

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