सिर्फ कोरोना वायरस नहीं, ये अदृश्य जीव भी ले रहे हर साल सात लाख इंसानों की जान

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आशीष आनंद-

कोरोना वायरस से फैली विश्व महामारी से दुनिया जूझ ही रही है और भारत में यह भयावह हालत में है। लेकिन सिर्फ कोरोना ही इंसानों की जान नहीं ले रहा। कोरोना की आमद से पहले ही अदृश्य किस्म के घातक हमलावर सूक्ष्म जीव इंसानों की जान लेने पर आमादा हैं। वैज्ञानिक शोध के मुताबिक पूरी दुनिया में हर साल लगभग सात लाख लोगों की जान सुपरबग बन चुके बैक्टीरिया ले रहे हैं.

अनुमान ये है कि 2050 तक सुपरबग के हमले में मरने वालों की संख्या सालाना दस मिलियन तक हो सकती है. मरने वालों की संख्या और मौत के संभावित आंकड़ों से साफ है कि ये किसी विश्वयुद्ध जैसी सूरत है. एक ऐसा युद्ध जिसका मोर्चा दुनिया के निर्जन इलाकों आर्कटिक और अंटार्कटिक तक में बांधना जरूरी हो चुका है.

सुपरबग नाम का ये दुश्मन खुली आंखों से देखा भी नहीं जा सकता और उसका हमला धर्म, लिंग, जाति, क्षेत्र, देश, आर्थिक हालत से भेदभाव किए बगैर जारी है. वैज्ञानिक ही कह रहे हैं कि इसके लिए राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर सभी देशों की सरकारें मिलकर साझा युद्ध चलाएं. इसके कुछ प्रयास हो भी रहे हैं. कई स्टार्टअप इसके लिए काम कर रहे हैं, हालांकि ये फिलहाल नाकाफी ही साबित हो रहा है.

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इन हमलावरों की ‘कुंडली’

सुपरबग की ताकत हासिल कर रहे बैक्टीरिया एक कोशिकीय होते हैं और धरती के पहले जीव हैं, जिनकी पैदायश तकरीबन चार अरब वर्ष पहले हुई. तब मानव का कोई अता-पता भी नहीं था, मानव ही क्या कोई और जीव भी नहीं पैदा हुआ था. जीवन की शुरुआत ही इनसे हुई. डच वैज्ञानिक वान लीवेंहोइक ने 17वीं शताब्दी में ऐसे पहले एक कोशिकीय जीव प्रोटोजोआ को खोजा.

रॉड जैसे आकार के कारण 1838 में ग्रीक शब्द बैक्टीरिया से नामकरण हुआ. सर्वशक्तिमान तो नहीं, लेकिन ये सर्वव्यापी जैसी हालत में तो हैं ही. गतिशील और रुके हुए, दोनों तरह के बैक्टीरिया होते हैं. अंटार्कटिका के ग्लेशियर तक में हो सकते हैं. कुछ बैक्टीरिया तो प्रकाश संश्लेषण में भी सक्षम हैं, मतलब सूरज की रोशनी से अपना भोजन तैयार कर लेते हैं. इस तरह ये आयरन और सल्फर से पोषक ऊर्जा हासिल करते हैं.

शोध बताते हैं कि एक ग्राम मिट्टी में लगभग 40 मिलियन और ताजे पानी के एक एमएल में दस लाख जीवाणु कोशिकाएं होती हैं. धरती पर पांच नोनिलियन यानी पांच के आगे 54 जीरो के बराबर बैक्टीरिया हैं. प्रथ्वी का ज्यादातर बायोमास बैक्टीरिया से बना है.

अधिकांश बैक्टीरिया खतरनाक नहीं, लेकिन कई बहुत खतरनाक होते हैं. एक जैसी शक्ल सूरत और खानदान वालों में से ही कुछ बैक्टीरिया सुपरबग बन जाते हैं. खासियत के हिसाब से इन्हें कुछ नाम दिए गए हैं. जैसे, पैथोजेनिक बैक्टीरिया खतरनाक होते हैं, वे मेजबान से भोजन लेकर बीमारी फैलाते हैं. यानी जिस कोशिका में डेरा होता है, वहीं से खाते-पीते हैं और उसी थाली में छेद करते हैं.

जबकि ग्रास बैक्टीरिया को दोस्त कहा जाता है. प्रोबायोटिक कहे जाने वाले बैक्टीरिया आंत में हानिकारक बैक्टीरिया पर हमला करके पाचनतंत्र को ठीक बनाए रखने में मदद करते हैं. सिम्बायोटिक भी ठीक कहे जाते हैं, लेकिन मुफ्त सेवा नहीं है इनकी. पहले मेजबान से भोजन लेते हैं और फिर दुश्मन बैक्टीरिया के हमले को रोकने को मोर्चा संभालते हैं.

एक किस्म है ऑटोट्रोफिक और केमसिंथेटिक की. ये प्रकाश संश्लेषण और रासायनिक क्रिया से ऊर्जा लेते हैं. हेट्रोट्रोफिक अन्य जीवों से भोजन प्राप्त करते हैं और सैप्रोफाइटिक मृत और खराब पदार्थ से भोजन हासिल करते हैं.

इंसान, पौधे, जल, थल, पशु, पक्षी सभी जगह ये मौजूद हैं. एक वयस्क इंसान के अंदर ढाई से तीन किलो वजन बैक्टीरिया का होता है, जबकि एक कोशिका में लगभग 90 बैक्टीरिया होते हैं. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनकी कितनी बड़ी तादाद हम सबके अंदर है.

एक बैक्टीरिया ऐसा भी है जिसे आंखों से देखा जा सकता है. पानी की नन्हीं बूंद की तरह होता है. इसका नाम है थायोमरगैरिटा नामीबियेंसिस. ये ग्राम निगेटिव बैक्टीरिया में शुमार है, जिसका आकार दशमलव एक से लेकर दशमलव तीन मिलीमीटर तक होता है, कई बार इसका आकार दशमलव सात पांच मिलीमीटर तक हो सकता है.

बैक्टीरिया सुपरबग कैसे बन जाते हैं?

बग मतलब कीड़ा, सुपरबग यानी महाकीड़ा. शक्तिशाली और महाशक्तिशाली या महाशक्ति. महाशक्ति बनने की कोशिश बैक्टीरिया नहीं करते, बल्कि हम इंसानों की करतूत का नतीजा है, जिसको दुनिया भुगत रही है और अभी भुगतेगी भी. बिल्कुल उसी तरह जैसे हम घर के किसी बच्चे को पहले खांसी की दवा मानकर दारू ढक्कन से दें, फिर उसकी बचपने में मर्दानगी का बखान करने के लिए छोटा पैग दें, फिर उसके पीने पर अंकुश ही न लगाएं और फिर वह दारूबाज हो जाए और किसी की न माने और परिवार से लेकर समाज के लिए खतरा बन जाए.

जिस सुपरबग क्लेबसिएला निमोनी, ई-कोलाई आदि से खतरे की बात हो रही है, वे भी ऐसे ही हैं. सभी खतरनाक नहीं, लेकिन उन्हीं में से कई एंटीबायोटिक दवाओं के बेजा इस्तेमाल, मल से लेकर मेडिकल अपशिष्ट का प्रबंधन न होने से सुपरबग बन जाते हैं.

गुजरात के जंगल में शेरों की जान लेने वाला क्लेबसिएला निमोनी खुद वहां नहीं पहुंच सकता. महानगरों का कूड़ा-कचरा-मल, अस्पतालों की दवाओं को ढोकर जंगल से होकर गुजरने वाली नदियां इसका जरिया बन गईं. बैक्टीरिया के लिए किसी देश की कोई सीमा नहीं है. वे पर्यटकों, पशु-पक्षियों, नदियों, जहाजों किसी भी माध्यम से कहीं से कहीं पहुंच सकते हैं.

पिछले दिनों एक रिसर्च ये बात भी सामने आई कि स्पेस स्टेशन में भी बैक्टीरिया ने आमद दर्ज करा दी. भले ही वे खतरनाक नहीं पाए गए. अलबत्ता इसकी संभावना तो है ही कि वे वहां भी खतरनाक रुख अख्तियार कर लें.

अंटार्कटिका में कैसे पहुंचा सुपरबग का जीन?

वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिका की मिट्टी की जांच करके एनडीएम-वन पाया तो वे चौंक गए. अब इस बात का पता लगाने की कोशिश हो रही है कि ये वहां पहुंचा कैसे. एक अनुमान ये भी है कि हर साल तमाम प्रवासी पक्षी भारत की नदियों और झीलों पर पहुंचते हैं और फिर वापस हो जाते हैं.

भारत की नदियों की हालत ये है कि यहां शहरों का सीवेज और मेडिकल वेस्ट तक बहता है. अधिकांश शहरों सीवर ट्रीटमेंट प्लांट है ही नहीं या फिर सीवर लाइन ही नहीं है. जहां सीवर लाइन है, वहां उसे नालों के जरिए नजदीक की नदी में बहाया जाता है.

यहां तक कि नगर निगम और नगर पालिका नए नाले को बनाने के लिए यही डिजायन तय करती हैं कि कहां पर नदी में उसे जोड़ा जाएगा. दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में भारत की प्रमुख नदी गंगा का नाम टॉप पर है, जबकि इस नदी को मां का दर्जा हासिल है. ऐसे में सुपरबग का दायरा कहां तक होगा, कहना मुश्किल है.

एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल बड़ी वजह

बैक्टीरिया के सुपरबग बनने के पीछे वजह को 19-20 दिसंबर 2018 को नेशनल एकेडमी और वेटनरी रिसर्च (भारत) 17वें कन्वोकेशन में इंडियन वेटनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट में महामारी डिवीजन के प्रमुख डॉ. बीआर सिंह ने ठोस तथ्यों के आधार पर बताया. ये शोधपत्र रिसर्चगेट वेबसाइट पर ‘हू इज रेस्पांसिबल फॉर एएमआर एंड हाउ टू हैंडिल इट’ नाम से उपलब्ध है.

डॉ. सिंह का कहना है कि एंटीबायोटिक दवाओं का सबसे बड़ा उपभोक्ता भारत है. भारत में बनने के साथ ही दुनियाभर की दवा कंपनियां इस देश में एंटीबायोटिक दवाएं उड़ेल रही हैं, जिनमें बड़ी भारी मात्रा उन दवाओं की है, जिनमें मानक का पालन नहीं होता या उनको बनाने या बेचने की अनुमति भी नहीं मिली, मतलब फर्जी!

विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस बारे में चेता चुका है. पूरी धरती पर हर साल लगभग 200 मिलियन किलोग्राम एंटीबायोटिक दवाओं की खपत हो रही है. बताया जाता है कि हर साल एंटीबायोटिक की 1300 करोड़ गोलियां भारतीय गटक जाते हैं, जबकि चीन में 1000 करोड़ और अमेरिका में 700 करोड़ गोलियां निगली जाती हैं. चिकित्सकों की मर्जी के अलावा मनमाने तरीके से मेडिकल स्टोर से दवाएं लेकर खाने की लापरवाही और मजबूरी से ये धंधा काफी फलफूल रहा है.

पिछले दस साल में दुनिया में जहां 36 फीसद एंटीबायोटिक दवाओं की खपत बढ़ी है, वहीं भारत में 66 प्रतिशत. जबकि कृषि और पशुपालन में भी बेहताशा एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल जारी है. इस मामले में भारत पांचवें नंबर पर है. विश्व में दूसरे नंबर पर भारत की आबादी है इसलिए इस खतरे की बाढ़ को मापना आसान नहीं होता.

वर्ष 2013 में 58 हजार शिशु सुपरबग की भेंट चढ़ गए. खतरनाक पैथोजेन बैक्टीरिया, जिनकी वजह से 2050 से हर साल दस मिलियन लोगों के मरने का अनुमान लगाया जा रहा है उनको ‘एसकेप’ नाम दिया गया है.

ईएसकेएपीई (एसकेप) में एंट्रोकोक्कस फीसियम, स्टेफाइलोकोक्कस ऑरियस, क्लेबसिएला निमोनी, एसिनेटोबैक्टर बॉमैनी, सूडोमानास ऐरूगिनोसा और एंट्रोबैक्टर स्पेसीज शामिल हैं.

डाक्टरों के हाथ में भी सुपरबग!

स्वच्छता रखने की नसीहत देने वाले डॉक्टर ही सुपरबग हथेलियों में लेकर घूम रहे हों तो चौंकना स्वाभाविक है. इस पर बाकायदा शोध हो चुका है. होता दरअसल ये है कि तमाम गंभीर मरीजों को देखने और छूने के बाद बहुत से चिकित्सक सैनीटाइजर लगा लेते हैं. जबकि सैनीटाइजर बिना अच्छे से साबुन से हाथ धोये लगाना बैक्टीरिया को सुपरबग बनाने की खुराक देना है.

सादा पानी से हाथ धोना भी काफी नहीं है. साबुन से रगड़कर हाथ धोने से ही बैक्टीरिया कम होते हैं. सर्जरी या खुले घाव देखने वाले चिकित्सकों के हाथों में सुपरबग होने की संभावना ज्यादा होती है. इसी तरह अस्पताल के कर्मचारियों में ये समस्या और ज्यादा हो सकती है, जहां दस्ताने तक का इस्तेमाल कम ही होता है.


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कैसे बर्ताव करता है सुपरबग?

एंटीबायोटिक्स के असर से साधारण बैक्टीरिया एक तरह से नई किस्म की नस्ल बन जाता है, जो दवा को बेअसर करने की क्षमता पैदा कर लेता है. जैसे हॉलीवुड फिल्मों में कल्पना की जाती है कि परमाणु बम के असर से छिपकली जैसा जीव डायनोसोर जैसा हो जाए.

डॉ.बीआर सिंह बताते हैं सुपरबग की एक ही कोशिका में खास मैकेनिज्म विकसित हो जाती है. बे्रन जैसी कोई अलग व्यवस्था तो नहीं होती लेकिन अगर किसी दवा से कोई भी बैक्टीरिया मरता है तो वहां से केमिकल मैसेज बाकियों पर पहुंच जाता है और वे प्रतिरोध करना शुरू कर देते हैं.

सुपरबग अपने कवर में ई-फ्लक्स पंप के जरिए अंदर आने वाली दवा को बाहर फेंक देता है. खुद पर इनका नियंत्रण गजब का होता है. किसी भी कोशिका में ये होते हैं, उसमें डिवीजन करके आबादी बढ़ाते हैं और जब कोरम पूरा हो जाता है तो डिवीजन बंद कर देते हैं.

क्या बैक्टीरिया से पीछा छुड़ाया जा सकता है?

जब प्रथ्वी का अधिकांश बायोमास बैक्टीरिया से बना है और हमारे शरीर में ही इतनी बड़ी तादाद है तो उससे पीछा छूट जाए ये संभव नहीं है. बल्कि बिना बैक्टीरिया से मानव जीवन की मुश्किलें बढ़ जाएंगी, क्योंकि अधिकांश बैक्टीरिया तो शरीर को रोग से लड़ने लायक बनाते हैं, मदद करते हैं.

बल्कि वैज्ञानिक तो यहां तक कह रहे हैं कि बिना बैक्टीरिया के जीवन ही संभव नहीं है. बहरहाल, इंसानों की दुनिया को लड़ना उनसे है जो सुपरबग हैं. उन हालात को खत्म करने को लड़ना है, जो सुपरबग की फौज तैयार कर रहे हैं. ये इसलिए भी जरूरी है कि करोड़ों वर्ष से दफन कई वायरस धरती पर जिंदा होना शुरू हो गए हैं, ये सुपरबग के साथ मिलकर कितना कहर ढा सकते हैं, इसकी कल्पना भी खौफनाक है.

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