कोरोना ‘महामारी’ समझाती है कि कैसे विशुद्ध डॉक्टर एक अशुद्ध अवधारणा है

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        प्रमोद रंजन –

कोविड जैसी नयी, संक्रामक और भुतहा अवधारणाओं में घेर दिए गए रोग के बीच काम करने का तनाव कितना गहरा और जानलेवा तक हो सकता है, इसे समझने के लिए ‘मेडिकल स्टूडेंट्स डिजीज’ नामक बीमारी के चर्चा यहां प्रासंगिक होगी। इस बीमारी को ‘मेडिकल के विद्यार्थियों का सेकेंड इयर सिंड्रोम’ या ‘इंटर्नस सिंड्रोम’ भी कहा जाता है।

मनोचिकित्सा में इसके और भी अनेक नाम तथा अनेक प्रकार हैं। जैसा कि नाम से विदित है, यह बीमारी मेडिकल के विद्यार्थियों को उस समय होती है, जब वे पहली बार विभिन्न प्रकार के घातक रोगों के मरीजों के संपर्क में आते हैं। चूंकि उन्हें इस प्रकार की परिस्थितयों का पूर्व अनुभव नहीं होता है, इसलिए उन्हें लगने लगता है कि वे स्वयं भी उन घातक बीमारियों से ग्रस्त हो गए हैं जिनके बारे में वे पढ़ते रहे हैं और जिसके मरीजों को उन्होंने देखा है।

यह सिंड्रोम इतना प्रभावी होता है कि उस बीमारी के वास्तविक शारीरिक लक्षण भी उनमें उभरने लगते हैं। यह बीमारी सिर्फ मेडिकल के विद्यार्थियों को ही नहीं होती बल्कि बीमारियों के बारे बहुत अधिक सोचने और चर्चा करने वाले लोगों को भी होती है, जिसे हाइपोकॉन्ड्रिअक्स कहा जाता है। तनाव के इस अतिरेक ने निश्चित रूप से डॉक्टरों तथा मध्यम वर्ग के लोगों के बीच कथित कोविड से होने वाली मौत की संख्या बढ़ाने में भूमिका निभाई।

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ग्रीक चिकित्सक, सर्जन और दार्शनिक गैलन के सबसे चर्चित परिनिबंध का शीर्षक है – ‘श्रेष्ठ चिकित्सक एक दार्शनिक भी होता है’

डॉक्टरों पर आम जनता के विश्वास का इतिहास, ज्ञान-विज्ञान के निर्माण का इतिहास है, जो कम से कम ढाई हज़ार साल या उससे भी अधिक पुराना है। इस विश्वास के निर्माण की प्रक्रिया को ईसा से लगभग 450 साल पहले यूनान में अरस्तू (469-399 ईसापूर्व) के उद्भव के साथ देखा जा सकता है।

जीव विज्ञान के जनक के तौर पर मशहूर अरस्तू चिकित्सक के साथ-साथ दार्शनिक, राजनीतिशास्त्री, तर्कशास्त्री, नीतिशास्त्री और कला-मर्मज्ञ भी थे। लंबे समय तक एक चिकित्सक से इन गुणों की अपेक्षा की जाती रही।

मसलन, उसे जीव-विज्ञान के अध्येता के साथ-साथ एक दार्शनिक भी होना चाहिए ताकि वह जीवन के अर्थ और मृत्यु की अपरिहार्यता को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सके। उससे तर्क और राजनीति की समझ तथा कलात्मक संवेदनाओं की भी अपेक्षा की जाती है ताकि वह शारीरिक-समस्याओं को उनकी संपूर्णता में देख सके।

कई महान चिकित्सक लेखक और चिंतक रहे हैं। मसलन, हिप्पोक्रेट्स, (460-375 ईसापूर्व) गैलेन (130 – 210 ई.), मैमोनिदेस (1138–1204 ई.), पेरासेलसस (1493-1541 ई.) और आंद्रेयेस विसेलियस (1514-1564 ई.) आदि ने अपने चिकित्सकीय अनुभवों, प्रविधियों को अपने साहित्य में करीने से दर्ज किया है।

ग्रीक चिकित्सक, सर्जन और दार्शनिक गैलन के तो सबसे चर्चित परिनिबंध का शीर्षक ही है – ‘श्रेष्ठ चिकित्सक एक दार्शनिक भी होता है’ (The Best Doctor Is Also a Philosopher), लेकिन बाद की सदियों में ऐसा नहीं रह गया।

वाल्टेयर (1694-1778) ने 18वीं शताब्दी में ही लक्ष्य किया था कि “डॉक्टर जिन दवाओं का नुस्खा लिखते हैं, उनके बारे में वे थोड़ा सा ही जानते हैं। जिन बीमारियों को ठीक करने के लिए नुस्खा लिखते हैं, उनके बारे में भी वे बहुत कम जानते हैं तथा मनुष्य जाति को तो वे कुछ भी नहीं जानते हैं।”

20वीं और 21वीं सदी की व्यवस्था ने जिन चिकित्सकों को रचा है, वे मनुष्य को टुकड़ों में देखते हैं, हालांकि आज भी संवेदनशील और मानव-जीवन में गहन दार्शनिक रूचि रखने वाले कुछ चिकित्सक हैं, लेकिन चिकित्सा का ज्ञान प्रदान करने वाले हमारे संस्थान (मेडिकल कॉलेज) जिन चिकित्सकों का उत्पादन कर रहे हैं, वे एक संपूर्ण ‘स्वास्थ्यकर्मी’ के रूप में विकसित नहीं होते हैं, बल्कि महज़ दवाओं एवं शल्य-क्रियाओं (सर्जरी) आदि के जानकार होते हैं; वह भी बहुत सीमित क्षेत्र में। आज अच्छा चिकित्सक होने का अर्थ मानव-शरीर के महज़ किसी एक हिस्से का विशेषज्ञ होना है।

आज किसी चिकित्सक से एक संपूर्ण चिकित्सक होने की भी नहीं, बल्कि आंख, नाक, दांत, हड्डी, त्वचा, हृदय, गुर्दा, प्रसूति, नींद के सूक्ष्मातिसूक्ष्म शाखाओं में से महज़ किसी एक शाखा से संबंधित तकनीक और दवाइयों की जानकारी रखने की उम्मीद की जाती है। उपरोक्त पतन के बावजूद चिकित्सक समाज ही नहीं बल्कि शासन-व्यवस्था का अहम हिस्सा रहे हैं।

भारत समेत दुनिया के सभी देशों के क़ानून के अनुसार एक ज़ेरे-इलाज व्यक्ति के बारे में चिकित्सक के मत को अकाट्य माने जाने का प्रावधान है। चाहे वह दफ़्तर से छुट्टी लेने का मामला हो, किसी आरोपी के न्यायालय में अनुपस्थित रहने का या किसी की मृत्यु के कारणों के निर्धारण का।

रोग और उसके इलाज का निर्धारण भी चिकित्सक की ही ज़िम्मेदारी रही है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर चिकित्सकों के ये अधिकार छिनते गये। कोविड के दौरान तो उनके पास इससे संबंधित कोई वास्तविक अधिकार ही नहीं रहा। कोविड के दौर में उनकी इस संपूर्ण-दृष्टि के ग़ायब होने का ख़ामियाज़ा दुनिया ने उठाया और लाभ उन लोगों ने उठाया जो दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना चाहते हैं।

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कोविड के दौरान क्या हुआ?

अधिकांश लोग समझते हैं कि चिकित्सक ही जांच द्वारा तय करते हैं कि किसे कोविड है और किसे नहीं तथा अगर किसी की मौत होती है तो चिकित्सक ही यह तय करते हैं कि वह मृत्यु कोविड से हुई है या किसी अन्य कारण से। इसलिए जब कोई खुद को चिकित्सक बताता है या अपने परिवार में चिकित्सकों के होने का ज़िक्र करता है तो लोग उसकी बात पर अनिवार्य रूप से विश्वास करते हैं, लेकिन कोविड के मामले में वस्तुस्थिति कुछ और है।

दरअसल, बिग-फार्मा से लेकर परोपकारी संस्थाओं, सलाहकार लॉबियों, टेक-जाइंट्स नीति-निर्माता समितियों तक फैले विशाल स्वास्थ्य-व्यवसाय में डॉक्टर एक ऐसा बिचौलिया है, जो इस संपूर्ण व्यवसाय के दाव-पेंचों को सबसे कम समझता है।

एक ओर, कोविड के निर्धारण के लिए किये जाने वाले टेस्ट अविश्वसनीय रहे और उन पर सवाल उठाना चिकित्सकों के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहने दिया गया। अगर वे ऐसा करने की कोशिश करते हैं तो भारत समेत अधिकांश देशों में लागू महामारी क़ानूनों के तहत उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई (यहां तक कि जेल भी) हो सकती है। कई देशों में ऐसे चिकित्सकों को जेल भेजा भी गया है।

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चिकित्सक की भूमिका एकदम रबर स्टैंप की तरह

कोविड से हुई मौत के निर्धारण में भी चिकित्सक की भूमिका एकदम शाब्दिक अर्थ में रबर स्टैंप की तरह है। कोविड से हुई मौतों के निर्धारण के लिए भारत समेत दुनिया के अधिकांश देशों में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा विकसित एक विशेष कोड का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसमें सिर्फ़ मृतक का लक्षण, जांच रिपोर्ट आदि भरनी होती है और उस कोड के अनुसार ही निर्धारित करना होता है कि मौत का मुख्य कारण किस बीमारी को बताया जाना है।

अगर किसी व्यक्ति की कोविड की टेस्ट-रिपोर्ट पॉज़िटिव आई है तो चाहे किसी भी कारण से उसकी मौत हुई हो, उस कोड के अनुसार उसे कोविड से हुई मौत के रूप में ही गिना जाएगा। यहाँ तक कि भले ही कोविड की जांच भी न हुई हो, रिपोर्ट अस्पष्ट या निगेटिव आयी हो, लेकिन अगर उसमें ऐसे कोई भी लक्षण मौजूद हों, जो कोविड के लक्षणों से मिलते जुलते हों, जैसे- खांसी, सर्दी, ज़ुकाम, साँस लेने में तकलीफ़, तो उसे उस कोड के अनुसार उसकी मौत को कोविड से हुई मौत के रूप में दर्ज किया जाना है।

मान लीजिए, मई, 2020 में एक चिकित्सक के पास एक 75 साल का व्यक्ति आता है। वह चिकित्सक वर्षों से उसके दमा का इलाज कर रहा है। उस मरीज को हृदय रोग भी है। पिछले कुछ दिनों से उसे खांसी, बुख़ार है। सांस लेने में तकलीफ़ हो रही है, दमा तेज़ हो गया है। अचानक उसने अपने परिजनों से सीने में दर्द की शिकायत की। वे हृदयाघात की आशंका में लॉकडाउन से बचते-बचाते उसे लेकर किसी तरह चिकित्सक के पास पहुंचते हैं, लेकिन कोविड के लिए निर्धारित मानक संचालक प्रक्रिया (एसओपी) के तहत चिकित्सक उसका तुरंत इलाज नहीं कर सकता। उसे पहले कोविड टेस्ट करवाना होगा। वह उसे एक-दूसरे अस्पताल में रेफर करता है, वहां से उसे कहीं तीसरी जगह कोविड की जांच के लिए भेजा जाता है। जब तक जांच की रिपोर्ट नहीं आती है, उसे ऑब्ज़र्वेशन में रखा जाना है। यानी न उसे कोई छुएगा, न उसका कोई इलाज होगा। जांच होने से पहले ही उसकी मौत हो जाती है।

चिकित्सक जानता है कि व्यक्ति की मौत हृदयाघात से हुई है, वह इसे लेकर सुनिश्चित है कि अगर पोस्टमार्टम हो तो हृदयाघात ही सामने आएगा लेकिन उसे उसकी मौत की सूचना निर्धारित कोड के अनुसार एक प्रारूप (फार्म) में भरनी है, जिसे भरने के लिए उन्हें स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि खांसी, बुख़ार और सांस लेने में तकलीफ़ जैसे लक्षणों के कारण इस व्यक्ति की मौत का अंतनिर्हित कारण (underlying cause of death) कोविड-19 ही दर्ज किया जाना है और कोविड से मृत्यु की यह सूचना निर्धारित प्रारूप में छह घंटे के भीतर मुख्यालय पहुंच जानी चाहिए।[vi] इस सूचना को एक सॉफ्टवेयर में अपडेट किया जाता है और मरीज़ के कोविड से मरने की सूचना डब्ल्यूएचओ के सर्वरों से होती हुई हमारे सामने आ जाती है।

अगर मृतक का कोविड-टेस्ट हुआ होता और उसमें कोविड की पुष्टि हुई होती, तब भी सच यही था कि उसकी मौत का मुख्य कारण हृदयाघात और इलाज में देरी थी। मृत्यु को संभव बनाने में उसके दमे की भी भूमिका थी। मृत्यु में कोविड की कोई सीधी भूमिका नहीं थी।

कोविड एक सह-रूग्णता थी, जो कि उस 75 वर्षीय व्यक्ति के शरीर में मौजूद आधा दर्जन अन्य सह-रूगण्ताओं, मसलन- पैर का पुराना घाव और पेशाब में संक्रमण के साथ शामिल की जानी चाहिए थी। चिकित्सक या मृतक के परिजन चाहें, तब भी कोविड के संदिग्ध मृतक का पोस्टमार्टम नहीं हो सकता क्योंकि कोविड के मामले में सामान्यत: पोस्टमार्टम पर रोक है।

आंकड़ों में इस गड़बड़ी का कारण है कि डब्ल्यूएचओ द्वारा कोविड से मृत्यु का कारण दर्ज करने के लिए विशेष दिशा-निर्देश जारी हैं, जिसमें ऐसे हर व्यक्ति को, जिसमें कोविड की तरह के लक्षण हों, चाहे उसकी टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव आई हो या पॉज़िटिव, उसे कोविड से मृत के रूप में दर्ज किया जाना है।

दूसरी ओर, कोविड के लक्षणों में सर्दी, ज़ुकाम, हृदय रोग, अस्थमा, चर्म रोग आदि तक के लक्षणों को शामिल कर लिया गया है। (वस्तुत: मनुष्य को होने वाली अनेकानेक व्याधियों को कोविड के लक्षण के रूप में शुमार कर लिया गया है। कैंसर और किडनी ख़राब होने के अतिरिक्त ऐसे बहुत कम लक्षण हैं, जिन्हें कोविड का लक्षण नहीं माना जाता।)

इतना ही नहीं अगर किसी व्यक्ति में कोविड के कोई लक्षण नहीं हों तथा उसकी कोविड टेस्ट रिपोर्ट भी नेगेटिव आयी हो तो भी उसे इपिडिमॉलिस्ट हिस्ट्री के आधार पर कोविड से मृत घोषित करने का प्रावधान किया गया है। इपिडिमॉलिस्ट हिस्ट्री का अर्थ है- ऐसे इलाक़े में रहना जहां कोविड फैला हो या ऐसे किसी व्यक्ति के संपर्क में आने की आशंका का मौजूद होना, जिसमें बुख़ार या कोविड का कोई भी लक्षण मौजूद हो। इससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मृतक का जिससे संपर्क हुआ था, उसकी भी कोविड रिपोर्ट निगेटिव थी। इसी प्रकार, सभी लावारिस लाशों को भी कोविड से मृत के रूप में चिह्नित किए जाने का निर्देश है।

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आंकड़ा-संकलन की प्रविधि

यहां यह समझना आवश्यक है कि किस प्रकार एक बारीक़ हेर-फेर से आंकड़ों का यह खेल चलाया गया है और किस प्रकार विश्व स्वास्थ्य संगठन के नियमों से बंधे दुनिया के तमाम देश इसकी चपेट में आए। विज्ञान कहता है कि ज़्यादातर मामलों में किसी की मृत्यु के एक से अधिक कारण होते हैं। मनुष्य को होने वाले रोग सामान्यत: बीमारियों के सिलसिले (चेन) को जन्म देते हैं। इस सिलसिले में एक बीमारी दूसरी बीमारी को जन्म देती है। कुछ मामलों में ये बीमारियां एक-दूसरे संबद्ध होती हैं, जबकि कुछ मामलों में व्यक्ति को एक-दूसरे से भिन्न कई बीमारियां भी हो सकती हैं, जो उसकी मृत्यु का कारण बनी हों। इसमें किसी एक बीमारी को मृत्यु के कारण के रूप में चुनना टेढ़ी खीर है।

पूर्व में अलग-अलग चिकित्सक अपने-अपने ज्ञान और अनुभव के अनुसार इसमें से किसी एक बीमारी को मृत्यु के कारण के रूप में दर्ज कर देते थे, जिसमें कई प्रकार की गड़बड़ियां होती थीं और आंकड़ों का एक विश्वव्यापी प्रारूप नहीं बन पाता था।

18वीं शताब्दी के आरंभ से ही इस प्रकार की एक सर्वोपयोगी प्रारूप बनाने की कोशिश की जाती रही है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान ने 1893 में पहली बार इसके एक प्रारूप को मंज़ूरी दी, जो फ्रांसीसी सांख्यिकीविद् जैक बर्टिलन द्वारा निर्मित प्रारूप पर आधारित था। बाद के वर्षों में इस प्रारूप को ‘मृत्यु के कारणों की अंतर्राष्ट्रीय सूची’ और अंतत: ‘रोगों का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण’ (International Classification of Diseases : ICD) के नाम से जाना गया। रोगों के वर्गीकरण के इस तरीक़े में परिवर्तन भी होते रहे।

1948 में डब्ल्यूएचओ के गठन के बाद इस प्रारूप को वैश्विक स्तर पर व्यापक मान्यता मिली। डब्ल्यूएचओ ने नयी आवश्यकताओं के अनुसार, 1980 और 1990 के दशक में कई परिवर्तन किए। अभी यह सूची ‘रोगों का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण’ (आईसीडी : 10) के नाम से जानी जाती है। इसमें अंक ‘10’ वर्गीकरण में किए गये 10वें संशोधन को इंगित करता है, जो वर्ष 2015 से लागू है।

आईसीडी: 10 का ही प्रयोग भारत समेत दुनिया के सभी देश अपने विशिष्ट दिशा-निर्देशों के साथ करते हैं। रोगों की इस अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण प्रणाली के तहत उस रोग को मृत्यु का अंतर्निहित कारण माने जाने का प्रावधान है, जिसने अन्य रोगों की श्रृंखला शुरू की। मसलन, भारत की नियमावली बताती है कि “मृत्यु का कारण उस रोग, असामान्य स्थिति या ज़हर को कहा जाए, जिसने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मृत्यु में योगदान किया हो।

सामान्यत: मृत्यु दो या उससे अधिक स्थितियों के संयुक्त प्रभाव के कारण होती है। एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से उपन्न होने वाली ये स्थितियाँ आपस में पूरी तरह असंबद्ध हो सकती हैं या हो सकता है कि वे आकस्मिक रूप से एक-दूसरे से संबंधित भी हों। अर्थात् यह हो सकता है कि एक स्थिति ने दूसरी को और दूसरी ने तीसरी को जन्म दिया हो और इस प्रकार यह संख्या बढ़ती गयी हो।

जहां इस प्रकार की एक से अधिक स्थितियां हों, वहां उस बीमारी अथवा चोट को मृत्यु के अंतर्निहित कारण के रूप में चुना जाएगा जिसने इन स्थितियों के क्रम की शुरुआत की थी।

इस प्रकार, मृत्यु का अंतर्निहित कारण (1) वह बीमारी अथवा चोट है, जिसने उन कड़ियों की शुरुआत की, जो सीधे तौर पर मृत्यु का कारण बनी, या (2) वह दुर्घटना, हिंसा या परिस्तिथियां जिसने मृतक को घातक चोट पहुंचाई थी।”

आईसीडी: 10 के अनुरूप ये ही नियम दुनिया के सभी देशों में रहे हैं। सरल शब्दों में कहें तो उस पहली बीमारी को मृत्यु के मुख्य (अंतर्निहित) कारण के रूप में दर्ज किया जाता है जिसने उन अन्य बीमारियों को जन्म दिया जो मृत्यु का कारण बनीं।

यह स्वाभाविक और उचित भी है, लेकिन कोविड को वैश्विक महामारी घोषित करने के तुरंत बाद डब्ल्यूएचओ ने आपात बैठक बुलाकर आईसीडी में कोविड-19 के लिए U07.1 और U07.2 नामक दो विशेष नये कोड जोड़ दिये। कोड U07.1 उन मौतों के लिए, जिनमें कोविड-19 का वायरस मिला हो, जबकि कोड U07.2 में उन मौतों को संभावित, संदिग्ध, लक्षण आधारित बताकर दर्ज करना है, जिनमें वायरस नहीं मिला है।

मौतों के वर्गीकरण की इस पद्धति में इस नए कोड के कारण कोविड को ही अधिकांश मौतों के मामले में सभी देशों में मुख्य कारण के रूप में दर्ज किया जाने लगा जबकि मृत्यु के अधिकांश मामलों में कोविड किसी घातक बीमारी से ग्रसित व्यक्ति को बाद में हुआ रोग था, जिसने अधिकांश मामलों में मृत्यु में सीधी भूमिका भी नहीं निभाई थी। पहले के नियमों के अनुसार इसे अधिक से अधिक परवर्ती कारण (सह-रूग्ण्ता) में दर्ज किया जा सकता था।

मौतों के वर्गीकरण की पद्धति में उपरोक्त बदलाव के कारण कोविड-19 को मौत का कारण बताने वाले आंकड़े तेज़ी से बढ़े। यह एक फ्रॉड था, जो डब्ल्यूएचओ की नियमावली के पंखों पर सवार होकर पूरी दुनिया में पसर गया, जिसने अभूतपूर्व अफराफरी को जन्म दिया तथा इसके उपचार के अविवेकपूर्ण उपायों और व्यापारिक-साजिशों को अनायास ही वैधता प्रदान कर दी, जो मौतों का कारण बन रहा है।

आंकड़ों के संकलन और संधान के निर्माण की प्रक्रिया के पीछे के निहित कारणों, हितों और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के बारे में आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करने की अपेक्षा एक चिकित्सक से उसकी शिक्षा-दीक्षा के दौरान नहीं की जाती।

चिकित्सकों को ज्यादा से ज्यादा इन कोडों के फार्मों को भरने और सॉफ्टवेयरों का उपयोग करने की विधि बताई जाती है। और, जैसा कि पहले कहा गया, इन विधियों पर सवाल उठाना न सिर्फ उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया है, बल्कि व्यावहारिक स्तर पर ऐसे सवाल उठाने पर उन्हें अनुशासनात्मक कार्रवाईयों का भी सामना करना पड़ सकता है।

कोविड से मृत्यु के जिस काल्पनिक मामले का ऊपर जिक्र किया गया, उसमें चिकित्सक सिर्फ अपनी मुहर लगाकर मृतक के परिजनों को एक मृत्यु प्रमाण-पत्र जारी करेगा। यह उसकी वैधानिक ज़िम्मेदारी है और अंतिम सीमा भी।

वस्तुत: अधिकांश मामलों में हम एसओपी और इलाज में लापरवाही से मरे अपने प्रियजनों की मौत को लोग कोविड से हुई मौत मानकर अपनी भयभीत श्रद्धांजलि अर्पित किए जा रहे हैं।

(प्रमोद रंजन असम यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं, सामाजिक मुद्दों और विज्ञान के मामले पर उनके लेख और पुस्तकें चर्चा में रहे हैं। उपरोक्त लेख जनपथ पर प्रकाशित संंपूर्ण लेख का अंश है, संबंधित तथ्य और संदर्भ सामग्री उस लेख में संलग्न है।)

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