मैं हर गिरती लाश के पास दो आंसू बहाकर उन तक पहुंचना चाहता हूं जो अभी जिंदा हैं

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Tears Fallen Corpse Reach Alive

हफीज किदवई


वह जो इंसान था, लाश बन गया. वह जो मेरा दोस्त था, मुर्दा हो गया. वह जो मेरे रिश्तेदार थे, ठंडे हो गए. वह जिन्हें मैं जानता था, याद बन गए. सब कुछ देखते ही देखते तो हो रहा है. हम हमेशा कहते हैं, लंबा जीवन बहुत कष्ट का होता है. इसमे तमाम अपने करीबियों की मौत का दुःख टका हुआ होता है, लेकिन हम करें क्या? क्या यह कह देना ठीक है कि अब मेरा मन इस दुनिया में नही लगता, ऊब होती है.

हरगिज नही, हम इस ऊब, इस उकताहट, इस भाग जाने की नीयत को ठीक नही समझते. घड़ी-घड़ी हम नहीं कह सकते कि मेरा मन यहां नही लगता, कहीं दूर भाग जाने को, कहीं जंगल की शांति में बैठ जाने को दिल करता है. मैं शुतुरमुर्ग नहीं हो सकता हूं. हर मौत पर मैं तनकर खड़ा होता हूं. यही तो कृष्ण जी ने सिखाया है. अर्जुन जब-जब अपनों की मौत पर रोए, तब-तब कृष्ण जी ने उन्हें बताया, यह कुरुक्षेत्र है. अर्जुन, दुःख को ताकत बनाओ, आंसू को रोकना सीखो.

जब कोई बहुत करीबी मरता है, तो मेरा दिल फटने के होता है, तब फिर दिल सख्त हो जाता है और कहता है, अव्यवस्था के हाथ शहीद हुए लोगों का गम जरूर करो. मगर टूटो नही. इसी कुरुक्षेत्र में डटकर खड़े रहो. अपनों के खून से सनी मिट्टी में अपने पैरों को गाड़ दो और तब तक पूरी आंखे खोलकर महामारी की चूक से मुकाबला करो, जब तक या तो मिट्टी में न मिल जाओ, या फिर अव्यवस्था खत्म हो.


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मैंने अपनों के दुखों पर आंख को सुखाना कृष्ण जी से सीखा है. मैंने दिल के दर्द को किनारे रखकर खड़ा होना गांधी से सीखा है. रोता हूं मगर कभी इतना निराश नही होता कि मुझे यह जगह छोड़ने के ख्याल आएं. मैं हर गिरती लाश के पास दो आंसू बहाकर, उन तक पहुंचना चाहता हूं, जो अभी ज़िन्दा हैं.

मेरे बहुत अजीज दोस्त, मेरी तमाम सांसे, इस कुव्यवस्था की वजह से शहीद हो गईं. इनको हम शहादत ही कहेंगे ,क्योंकि इनके जिस्म ने हफ्तों कोरोना से लड़ा है. बहुत बार बिल्कुल अकेले लड़ा है. यह बहुत जीवट थे, उलझे, लड़े, एक बार लगा जीत गए मगर उनको तो शहीद होना था. अब हमें, उनके बाद कि दुनिया को संभालना है, उनके बाद जो बदसूरती चिपकेगी, उसे सुधारना है.

उनके न रहने से जो चमन उजाड़ हो गए हैं, उन्हें निखारना है. यह दुनिया कभी खत्म नहीं होगी, इसकी खूबसूरती हो सकता है कुछ फीकी पड़ जाए, तो हमें इसे ही वापस लाना है. हम सबकी मौत का गम इकट्ठे मनाएंगे मगर उससे पहले उन हाथों को कमजोर करना है, जिनकी लापरवाही से हमारा खूबसूरत बाग़ उजड़ गया.


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हम अब ऐसी व्यवस्था में लगेंगे की कोई और इन महामारियों का शिकार न हो. विज्ञान को घर-घर पहुचाएंगे, ताकि कोई भी इसके अभाव में सांसे बचाने के बेतुके तरीके अपनाकर जान न गवाए. हमारे पास अब करने को पहले से बहुत ज़्यादा है. गांधी ने बेगम अनीस क़िदवई से उनके शौहर की शहादत पर कहा था. तुम्हारा ग़म यकीनन बहुत ज़्यादा है, इसकी कोई भरपाई नहीं, जाओ और राहत शिविरों में उनकी मदद करो, जिन्हें तुम्हारे जैसों की ही मदद की जरूरत है.

बस यही करना है, अपने आंसू पोछने हैं, दूसरे के आंसू भी पोछने हैं और तीसरे की आंख में आंसू न आएं, इसके लिए खड़े होना है, कहीं भी नहीं जाना है, हर दर्द के बीच खड़े होकर हिम्मत बढ़ानी है. मौत पर टूटेंगे नहीं बल्कि मज़बूत होंगे, बहुत मज़बूत…

 

(हफीज किदवई सोशल एक्टिविस्ट हैं. ये लेखक उनके सोशल पेज से यहां साभार प्रकाशित है.)

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