अब तक किन देशों ने तालिबान से मिलाया हाथ – किधर रुख कर रहे हैं इस्लामिक देश ?

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द लीडर हिंदी, लखनऊ । अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान की लड़ाई इस समय पूरी दुनिया देख रही है। तालिबान ने एक हफ्ते के अंदर पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर अपना कब्ज़ा जमा लिया है। दुनिया भर में इस मुद्दे को अलग-अलग तरीके से देखा जा रहा है। फिर वह इस्लामिक देश हों, चीन हो या रूस, सभी ने इस मुद्दे को अपने तरीके से और अपना फायदा देखते हुए स्वीकार किया है या फिर नकार दिया है।

अब तक किन देशों ने दी तालिबान सरकार को मान्यता ?

  • बांग्लादेश
  • चीन (China)
  • रूस (Russia)
  • पाकिस्तान

बांग्लादेश ने दी हरी झंडी 

बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमेन ने कहा कि उनका देश अफगानिस्तान में तालिबान की बनाई गई सरकार को स्वीकार करेगा। अगर वह लोगों की सरकार है। मोमेन ने सोमवार को कहा, ‘कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन सी नई सरकार बनती है, अगर तालिबान सरकार बनती है, जो बन गई है, तो हमारे दरवाजे उनके लिए खुले रहेंगे।’ विदेश मंत्री ने कहा, ‘हम लोगों की लोकतांत्रिक सरकार में विश्वास करते हैं।

चीन ने दी हरी झंडी 

चीन ने कहा कि वह तालिबान के साथ दोस्ताना रिश्ते विकसित करना चाहता है। एक दिन पहले ही इस्लामिक कट्टरपंथी समूह ने काबुल को अपने नियंत्रण में लिया है।

विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने मीडिया से कहा, ‘चीन अफगानिस्तान के लोगों के स्वतंत्रतापूर्वक अपनी तकदीर चुनने के अधिकार का सम्मान करता है और अफगानिस्तान के साथ दोस्ताना और सहयोगपूर्ण रिश्ते विकसित करना जारी रखना चाहता है।’

रूस भी दे सकता है मान्यता

रूस ने काबुल में अपने दूतावास को खाली करने की किसी योजना से इनकार करके यह साफ कर दिया है कि तालिबान सरकार को मान्यता दी जा सकती है। विदेश मंत्रालय के अधिकारी ज़मीर काबुलोव ने सोमवार को कहा कि उनके राजदूत तालिबान नेतृत्व के संपर्क में हैं।

काबुलोव ने यह भी कहा कि यदि तालिबान का आचरण ठीक रहता है तो इसके शासन को मान्यता दी जा सकती है। अफगानिस्तान में रूस के राजदूत दिमित्री झिरनोव की दूतावास की सुरक्षा को लेकर तालिबान के प्रतिनिधियों के साथ बैठक कर सकते हैं।

पाकिस्तान का क्या है स्टैंड ?

पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हामिद मीर से एक न्यूज़ चैनल ने सवाल किया गया कि अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद से पाकिस्तान से जश्न की तस्वीरें आ रही हैं. नेता बधाई दे रहे हैं. इस पर हामिद मीर ने कहा, ‘पाकिस्तान में दो तरह के लोग हैं. एक वो जो धार्मिक हैं और दूसरे वो लोग जो बहुमत में है और तालिबान के खिलाफ हैं.’ उन्होंने कहा, ‘तालिबान को बधाई देने वालों में धार्मिक नेता शामिल हैं. जबकि पाकिस्तान की विपक्षी पार्टियों और पाकिस्तानी अवाम की बड़ी संख्या इसके खिलाफ है.’

क्या कहना है इस्लामिक देशों का ?

बाक़ी दुनिया के अलावा मुस्लिम देश भी अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम पर नज़र बनाए हैं. कुछ देशों की इस संकट में सक्रिय भूमिका है तो कुछ ने रणनीतिक ख़ामोशी अख़्तियार कर ली है.

ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक को-ऑपरेशन यानी इस्लामी सहयोग संगठन ने एक बयान जारी कर कहा था कि वह अफ़ग़ानिस्तान के संकट से चिंतित है. OIC ने अपने बयान में सभी पक्षों से हिंसा रोकने और पूर्ण संघर्षविराम लागू करने की मांग की थी. OIC ने कहा था कि वह अफ़ग़ानिस्तान में शांति स्थापित करने में सक्रिय भूमिका निभाने को तैयार है.

ईरान

पड़ोसी देश ईरान अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात को लेकर चिंतित है. अफ़ग़ानिस्तान से भागे अफ़ग़ान सैनिक ईरानी इलाक़ों में शरण ले रहे हैं.

शुक्रवार को जारी एक बयान में ईरान ने तालिबान से काबुल और हेरात में मौजूद अपने राजनयिकों और कर्मचारियों की सुरक्षा की गारंटी देने की मांग की थी. हेरात इस समय तालिबान के नियंत्रण में है. शिया बहुल ईरान सुन्नी तालिबान को लेकर हमेशा से चिंचित रहा है.

1998 में उत्तरी शहर मज़ार-ए-शरीफ़ में तालिबान ने एक ईरानी पत्रकार समेत आठ ईरानी राजनयिकों की हत्या कर दी थी. तब ईरान तालिबान पर हमला करने ही वाला था लेकिन हाल के महीनों में ईरान ने तालिबान से संबंध बेहतर करने की कोशिश की है. जुलाई में ही तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल तेहरान में ईरानी विदेश मंत्री से मिला था.

तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल तेहरान में ईरानी विदेश मंत्री से मिला

उज़्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान फिक्रमंद

मध्य एशिया के ये तीनों पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान के हालात से प्रभावित होते रहे हैं. अफग़ानिस्तान संकट की वजह से यहां शरणार्थी आते हैं. हालांकि हाल के दिनों में उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान शरणार्थियों के प्रति सख़्त हुए हैं.

जुलाई में जब अफ़ग़ान सैनिक भागकर उज़्बेकिस्तान पहुंचे थे तब उज़्बेकिस्तान ने सैनिकों को लौटा दिया था और सीमा पर चौकसी कड़ी कर दी थी. वहीं ताजिकिस्तान ने भी सीमा पर चौकसी बढ़ाते हुए बीस हज़ार अतिरिक्त सैनिक तैनात किए थे. अफ़ग़ानिस्तान में गहराते संकट के मद्देनज़र ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान ने आपसी सहयोग भी बढ़ाया है. दोनों देशों की सेनाएं साझा सैन्य अभ्यास करती रही हैं.

वहीं तुर्कमेनिस्तान ने तालिबान से संबंध मज़बूत करने की कोशिश की है. सीमा पर तालिबान का नियंत्रण मज़बूत होते ही तुर्कमेनिस्तान ने तालिबान के प्रतिनिधिमंडल को बातचीत के लिए बुला लिया था. हालांकि तालिबान ये कहता रहा है कि वह पड़ोसी देशों की सुरक्षा के लिए ख़तरा नहीं बनेगा और उसका दूसरे देशों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने का कोई इरादा नहीं है.

बावजूद इसके उज़्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर चिंतित हैं. अभी तक मध्य एशिया के इन देशों ने तालिबान को लेकर कोई टिप्पणी भी नहीं की है.

उज़्बेकिस्तान के राष्ट्रपति

क्या रहेगा तुर्की का कदम

तालिबान की बढ़त के बावजूद तुर्की ने काबुल के हामिद करज़ई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का संचालन संभालने का इरादा बरकरार रखा है. तुर्की ने दो दिन पहले ही जारी एक बयान में कहा था कि काबुल एयरपोर्ट का मुद्दा अगले कुछ दिनों में शक्ल लेगा और इस हवाई अड्डे का चलते रहना फ़ायदेमंद होगा.

तुर्की ने अमेरिकी सैन्य बलों की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी के बाद काबुल एयरपोर्ट के संचालन का इरादा ज़ाहिर किया था. तुर्की ने कहा था कि वह एयरपोर्ट की सुरक्षा का ज़िम्मा संभाल लेगा. हालांकि तालिबान तुर्की के इस इरादे से ख़ुश नहीं है. तालिबान ने तुर्की को धमकी दे रखी है कि वो काबुल एयरपोर्ट पर अपनी सेना न भेजे.

तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तेयेब अर्दोआन ने हाल ही में एक बयान में कहा है, ‘”हमारी नज़र में, तालिबान का रवैया वैसा नहीं है, जैसा एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान के साथ होना चाहिए.” उन्होंने तालिबान से अपील की थी कि वो दुनिया को जल्द से जल्द दिखाए कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल हो चुकी है. उन्होंने कहा था, “तालिबान को अपने ही भाइयों की ज़मीन से कब्ज़ा छोड़ देना चाहिए.”‘

तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ने वाले और अब पराजित होकर उज़्बेकिस्तान पहुंचे कमांडर मार्शल दोस्तम से भी तुर्की के नज़दीकी संबंध रहे हैं. इसके अलावा तुर्की मज़ार-ए-शरीफ़ में भी निवेश करता रहा है.

तुर्की के पाकिस्तान के साथ नज़दीकी संबंध हैं और पाकिस्तान के तालिबान के साथ, ऐसे में तुर्की की भूमिका अफ़ग़ानिस्तान में अहम हो सकती है. पाकिस्तान प्रधानमंत्री इमरान ख़ान तालिबान और तुर्की को करीब लाने की कोशिश में जुटे हैं.

तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इरदुगान

फिलहाल ठीक नहीं पाकिस्तान से रिश्ते

पाकिस्तान के तालिबान के साथ नज़दीकी संबंध हैं और अमेरिका से ‘डील’ करने में पाकिस्तान इन रिश्तों को इस्तेमाल करता रहा है. हालांकि तालिबान अपने ऊपर पाकिस्तान के प्रभाव को नकारते हैं और उसे अपना एक अच्छा पड़ोसी देश मानते हैं.

पाकिस्तान में तीस लाख से अधिक अफ़ग़ानिस्तान शरणार्थी भी हैं और दोनों देशों के बीच ढाई हज़ार किलोमीटर लंबी सीमा भी हैं. ऐसे में पाकिस्तान तालिबान का सबसे अहम सहयोगी देश माना जाता है. हालांकि इमरान ख़ान ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में उनका कोई पंसदीदा नहीं है.

अफ़ग़ानिस्तान सरकार पाकिस्तान पर तालिबान की मदद करने और अफ़ग़ानिस्तान में दख़ल देने के आरोप लगाती रही है. हाल ही में राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के बीच ताशकंद में खुली बहस भी हो गई थी.

इमरान खान और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी

सऊदी अरब और यूएई खामोश

इस्लामी दुनिया के बड़े सुन्नी देश सऊदी अरब ने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर रणनीतिक ख़ामोशी अख़्तियार की हुई है. सऊदी अरब के अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान दोनों से ऐतिहासिक संबंध हैं. सऊदी अरब ने तालिबान से भी संबंध बनाए रखे हैं.

सऊदी अरब पाकिस्तान के जरिए अफ़ग़ानिस्तान में अपना प्रभाव तो बढ़ाना चाहता है लेकिन अफ़ग़ान संकट पर खुलकर नहीं बोल रहा है. ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो 1980-90 के दशक में सऊदी ने रूस के ख़िलाफ़ अफ़ग़ान मुजाहिदीन का समर्थन किया था. लेकिन मौजूदा संकट में सऊदी ने अपने आप को अलग ही रखा है.

वहीं संयुक्त अरब अमीरात ने भी अपने आप को मौजूदा अफ़ग़ानिस्तान संकट से दूर ही रखा है.

अशरफ़ ग़नी सऊदी के सलमान के साथ

अहम रही है क़तर की भूमिका

क़तर मुस्लिम दुनिया का एक छोटा सा देश है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान संकट में इसकी बड़ी भूमिका रही है. तालिबान का राजनीतिक दफ़्तर क़तर के दोहा में ही है. अमेरिका के सहयोगी देश क़तर ने अपनी ज़मीन पर तालिबान को अमेरिका से बातचीत करने के लिए ठिकाना उपलब्ध करवाया और सभी सहूलतें दीं.

2020 में क़तर में तालिबान के साथ हुए समझौते के तहत ही अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकल रहा है.

क़तर में तालिबान का राजनीतिक दफ़्तर

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