कैसे प्रकृति की तबाही का सबब बन रहे बड़े प्रोजेक्ट, चिपको अंदोलन की नेता गौरा देवी का इलाका बना गवाह

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Gaura Devi Leader Chipko Movement

उत्तराखंड की ताजा त्रासदी कुदरती है या प्रकृति के खिलाफ विकास की सनक का नतीजा। केदारनाथ आपदा के बाद इस राज्य में दूसरी बड़ी घटना को लेकर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं।

राज्य और केंद्र की सरकार बचाव व राहत कार्य में चाहे जितनी भी जान लगा दे, लेकिन जब उन कारणों पर पर्दा रहेगा या समस्या का समाधान निकालने की जगह मुंह चुराया जाएगा, मान लेना चाहिए खतरा बरकरार है और ऐसी त्रासदी आखिरी नहीं।

ऋषिगंगा परियोजना जिस क्षेत्र में स्थित है, वह चिपको आंदोलन के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध गौरा देवी का गांव-रैणी है। एक जमाने में जिस क्षेत्र में जंगलों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपक गए, बीते कुछ सालों से न केवल इस गांव के आसपास बल्कि पूरे जोशीमठ क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ हुई और विस्फोट भी किए गए। (Gaura Devi Leader Chipko Movement)

जोशीमठ से अतुल सती, जो भाकपा माले की राज्य कमेटी के सदस्य भी हैं, उन्होंने हाल में आई त्रासदी को लेकर लोगों से बात की. इसका ब्योरा चश्मदीद लोगों से बातचीत और निजी छानबीन के आधार पर दिया।

उन्होंने बताया, ”इतवार के द‍िन सुबह साढ़े 9 से 10 बजे के बीच जोशीमठ से 20 किमी दूर रैणी गांव, जो धौली व ऋषि गंगा के संगम पर ऊपर की ओर बसा है, के करीब ऋषिगंगा पर एक ग्लेशियर मलबे के साथ आया। ऋषि गंगा पर विद्युत उत्पादन कर रहा पावर प्रोजेक्ट इस मलबे के साथ ऋषि गंगा में समा गया। प्रोजेक्ट साइट पर कार्य कर रहे लगभग 30 मजदूर भी इसके साथ ही बह गए।”

कुछ मजदूर भाग कर जान बचा पाए। उनमें से एक कुलदीप पटवाल, जो कि मशीन में कार्य करते हैं, ने बताया, ”जब हमने धूल का गुबार आते देखा तो भागे। हम पहाड़ी होने के कारण ऊपर की तरफ भागने में सफल रहे। हमारे पीछे कुछ मैदानी मजदूर भी भागे, पर वे ऊपर नहीं चढ़ पाए और मलबे की चपेट में आकर बह गए। एक स्थानीय ग्रामीण नदी के पास बकरी चरा रहा था, वह भी बकरियों सहित बह गया। दो पुलिस वाले जो बतौर सिक्योरिटी वहां काम करते थे, वे भी बह गए। दो सिक्योरिटी के लोग भाग कर बच गए।”

अतुल सती बताते हैं कि रिणी का पुल, जो कि सीमा को शेष भारत से जोड़ता है, वह इस मलबे की चपेट में आ कर बह गया, जबकि पुल नदी से 30 फीट ऊपर रहा होगा। रिणी और ऋषिगंगा में मलबा ही मलबा नजर आ रहा है। इस पुल के बहने से न सिर्फ चीन सीमा पर तैनात सेना से बल्कि उस पार रहने वाली ग्रामीण आबादी से भी सड़क का संपर्क खत्म हो गया है। इससे अब कुछ ही दिनों में उन तक रसद पहुंचाने की समस्या खड़ी हो जाएगी।

उन्होंने बताया, ऋषिगंगा का मलवा धौली गंगा में पहुंचा और अपने साथ आस पास के भवन मंदिर ध्वस्त करता तपोवन की तरफ बढ़ा, जहां एक और हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट निर्माणाधीन है, 530 मेगावाट का तपोवन विष्णु गाढ़ प्रोजेक्ट। इस प्रोजेक्ट की बैराज साइट भी अब मलबे के ढेर में तब्दील हो चुकी है।

यहां कुछ मजदूर सुरंग में कार्य कर रहे थे, वे मलवे के आने से उसी सुरंग में फंस गए हैं। उन्हें निकालने का काम अभी चल रहा है। कुछ मजदूर बैराज साइट पर कार्य कर रहे थे, वे भी लापता हैं या मलबे के साथ बह गए हैं। इन सबकी संख्या फिलहाल डेढ़ सौ बताई जा रही है।

”तपोवन में भी धौली गंगा की जगह सिर्फ मलबा ही मलबा नजर रहा है। मलबा नदी से 20 फिट लगभग ऊपर तक आया है। यहां धौली गंगा पर बना पुल जो तपोवन व भँग्युल गांव को जोड़ता था, बह गया है। उसके सिर्फ निशान नजर आ रहे हैं”, अतुल ने बताया।

वे बताते हैं, ”2013 में भी तपोवन परियोजना का काफ़र डैम बह गया था। ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट भी एक बार 2013 में बह गया था। दोबारा एक साल पहले ही शुरू हुआ था। परियोजना निर्माण के दौरान अंधाधुंध विस्फोट व जंगल कटान भी ऐसी घटनाओं के लिए कारण होंगे ही, जिनको लेकर हम आम जन चिल्लाते रहे पर विकास के शोर में हमारी आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित हुईं। 10 दिन पहले यहां गया था तब ऋषिगंगा नीली सफेद धज में शांत बह रही थी। आज वह मलबे की गाद बनी निर्जीव थी।”

पर्यावण, विज्ञान व पहाड़ के मामलों पर दखल रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर जोशी ने कहा, मध्य हिमालयी भूभाग के कच्चे चट्टान काटकर विशालकाय डैम बनाए जा रहे हैं। नदियों का बहाव रोकने से पानी जमीन को कमजोर कर रहा है। भारी मशीनों से कमजोर पहाड़ियां दरकने लगी हैं। चमोली जिले में साल 2004 में तपोवन विष्णु गाड़ जल विद्युत परियोजना शुरू हुई।

इस परियोजना में दुनिया की अत्याधुनिक मशीनें लगाई गईं। टनल निर्माण में इतनी भारी मशीनों का उपयोग देश में पहली बार किया गया। बताया जाता है कि जहां कठोर चट्टानी क्षेत्र होता है, वहां भी यह मशीन एक महीने में 800 से 900 मीटर तक पहाड़ काट देती है। यह पहाड़ी के एक छोर से सुरंग काटते आगे बढ़ती हैं और दूसरे छोर से ही बाहर निकलती है। इसे बीच में वापस भी नहीं किया जा सकता है।

सुरंग बनाने में आसपास के कच्चे चट्टान हिल चुके हैं और धौली गंगा नदी में पानी बढ़ते ही पहाड़ दरक उठते हैं। इस सुरंग में काम करने वाले करीब डेढ़ सौ श्रमिकों का अभी तक पता नहीं चल पाया है। कीर्ति नगर, देवप्रयाग, मुनि की रेती इलाकों में भी भारी खतरा पैदा हो गया है। नदी किनारे कई घर नष्ट हो गए हैं।

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”अलकनंदा और धौलीगंगा नदी के किनारे बसे लोगों का जीवन हमेशा के लिए खतरे में पड़ गया है। हिमालय में ग्लेशियरों का फटना कोई नई बात नहीं है। ग्लेशियरों का पानी नदी-गधेरों से बहता हुआ आगे बढ़ता है। अब नदियों का बहाव रोकने से यह पानी तबाही पैदा करता है। विनाशलीला थामने को पहाड़ में भारी परियोजनाओं को रोका जाना चाहिए”, जोशी ने कहा।

सुभाष तरान ने गमोगुस्से में सरकार के रुख पर गंभीर सवाल उठाते हुए कहते हैं, कितने चतुर लोग हैं, कह रहे हैं ग्लेशियर टूटा है। मान लिया ग्लेशियर टूटा है तो क्या वो फरवरी के महीने में, जब वहां रात का तापमान शून्य से नीचे होता है, इतना जल्दी पिघल गया कि इतनी भयंकर बाढ़ आ गई? फरवरी के महीने में उस ऊंचाई पर बारिश नहीं होती, सीधी बर्फ गिरती है।

ऐसे मे सवाल यह उठता है कि इतना पानी आया कहां से। हिमालय के ऐसे नाजुक और भुरभुरे टैरेन में कहीं यह पानी रेवेन्यू के लिए आपने ही तो नहीं रोका था और ठीकरा फोड़ रहे हो ग्लेशियर के सिर? वैसे दो रोज पहले तक जहां बर्फवारी हो रही थी, वहां ग्लेशियर अपने आप से कैसे टूट सकता है?

ग्लेशियर की स्नो बाउंडेशन के बारे में जानते हैं आप? टूटा कुछ और है, जिसकी वजह से या तो एवलांच फर्म हुआ है या फिर भूस्खलन हुआ है। आप बताना नहीं चाहते।

वरिष्ठ पत्रकार विकास बहुगुणा कहते हैं, देखा जाए तो जिन लोगों की जान चली गई उनके प्रियजनों के अलावा बाकी किसी के जीवन में ऋषिगंगा आपदा से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। यही बात आठ साल पहले घटी केदारनाथ आपदा के लिए कही जा सकती है।

इस दौर में ज्यादातर शेष समाज के लिए ये त्रासदियां सिर्फ फेसबुक-वाट्सएप पर इनसे जुड़े वीडियो देखकर रोमांचित और बहुत हुआ तो दुखी या आक्रोशित होने का सबब हैं। अगर ऐसा न होता तो इन आपदाओं के बाद हम ठिठकते और फिर ठहरकर सोचते कि आगे क्या किया जाए, जिससे जान-माल का ऐसा नुकसान न हो।

भूगर्भशास्त्र के हिसाब से हिमालय का जो स्वभाव है, उसके हिसाब से वह निरंतर बदल रहा है। सवाल है कि हम कब बदलेंगे?

पहले हम ऐसे नहीं थे। हमारे पुरखे मानते थे कि ऊंचे हिमालयी इलाकों में इंसानी दखल कम से कम होना चाहिए। वे ऐसा मानते ही नहीं थे बल्कि अपने बरताव में इसका ख्याल भी रखते थे। जैसे बुग्यालों में जाने के ये अलिखित कायदे थे कि वहां जोर-जोर से न बोला जाए। बताते हैं कि आधी सदी पहले तक यात्री गौरी कुंड से सुबह-सुबह निकलते थे और 14 किलोमीटर दूर केदारनाथ के दर्शन करके शाम तक वापस आ जाते थे।

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हमारे पुरखों ने केदारनाथ में जैसे भव्य मंदिर बना दिया था, वैसे ही वहां रात बिताने के लिए और भवन भी वे बना ही सकते थे, लेकिन कुछ सोचकर ही उन्होंने ऐसा नहीं किया होगा। सोच शायद यही रही होगी कि जिस फसल से पेट भर रहा है उसके बीज हिफाजत से रखे जाएं। यानी करोड़ों लोगों का जीवन चलाने वाली गंगा-यमुना जैसी सदानीरा नदियों के स्रोत जिस हिमालय में हैं उसे कम से कम छेड़ा जाए। कहते हैं कि हिमालय में देवता विश्राम करते हैं, तो उन्हें क्यों डिस्टर्ब किया जाए?

लेकिन जिन इलाकों में जोर से न बोलने तक की सलाह थी वहां आज भयानक शोर है। सड़कों और बांधों के लिए पहाड़ों के परखच्चे उड़ाते डायनामाइट से लेकर श्रद्धालुओं को तीर्थ के फेरे करवाते हेलीकॉप्टरों तक इस शोर ने प्रकृति की नींद में खलल पैदा कर रखा है।

पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील इलाकों में नदियों का रास्ता मारकर बेपरवाही से बना दिए गए बांध-होटल-रेजॉर्ट हों या जगह-जगह प्लास्टिक की बोतलों और थैलियों के अंबार, यह सब बताता है कि एक समाज के तौर पर हमें खुद को सुधारने की जरूरत है। नहीं सुधरेंगे तो यह परिमार्जन देर-सबेर प्रकृति खुद कर लेगी, और वह कितना क्रूर हो सकता है यह हम केदारनाथ से लेकर ऋषि गंगा त्रासदी तक देख ही रहे हैं।

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ग्लेशियर हादसे पर पूर्व केंद्रीय मंत्री उमा भारती का बयान भी वायरल हुआ। उन्हाेंने कहा, जब मै मंत्री थी तब अपने मंत्रालय की तरफ़ से मैंने उत्तराखंड के बांधों के बारे में दिए एफिडेविट में यही आग्रह किया था कि हिमालय एक बहुत संवेदनशील स्थान है इसलिए गंगा एवं उसकी मुख्य सहायक नदियों पर पावर प्रोजेक्ट नहीं बनने चाहिए। इससे उत्तराखंड की जो 12% की क्षति होती है वह नैशनल ग्रिड से पूरी कर देनी चाहिए।

”कल मैं उत्तरकाशी में थी आज हरिद्वार पहुंची हूं। हरिद्वार में भी अलर्ट जारी हो गया है, यानि कि तबाही हरिद्वार आ सकती है। यह हादसा, जो हिमालय में ऋषि गंगा पर हुआ, यह चिंता और चेतावनी दोनों का विषय है”, भारती ने कहा।

जोशीमठ इलाके में हुए इस हादसे में हताहत मजदूरों और स्थानीय लोगों के प्रति भाकपा (माले) संवेदना प्रकट कर लापता हुए लोगों को ढूंढने के समुचित प्रयास, घायलों के इलाज का संपूर्ण खर्च राज्य सरकार को उठाने और मृतकों को समुचित मुआवजा देने की मांग की है।

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उत्तराखंड आपदा का दृश्य, फोटो-साभार ट्वीटर

माले के गढ़वाल सचिव इंद्रेश मैखुरी ने कहा, प्रकृति के अंधाधुंध दोहन और खिलवाड़ के नतीजे के तौर पर इस तरह की दुर्घटनाओं एवं त्रासदियों की मार लोगों को झेलनी पड़ती है और उसकी चपेट में अक्सर वे लोग आते हैं, जो इस खिलवाड़ और दोहन के लिए जिम्मेदार नहीं होते हैं।

2013 में उत्तराखंड में आई भीषण आपदा के बाद इस विनाशकारी विकास के मॉडल के बारे में विचार किया जाना चाहिए था, लेकिन इस प्राणघातक, प्रकृति घातक विकास के हिमायती कोई सबक सीखने के बजाय प्रकृति के दोहन की गति और तेज करने के लिए उतावले हैं।

(जारी किए गए प्रेस बयान और फेसबुक वॉल पर लिखी गईं पोस्ट के आधार पर)

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