भारत में कौन लड़ रहा महिलाओं से युद्ध, क्या आप इससे खबरदार हैं?

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Women India UP News
आशीष आनंद

देश में जो बदरंग माहौल दिखाई दे रहा है, किसी को भी सोचने को मजबूर कर देगा। खासतौर पर महिलाओं के लिए। वे इंसाफ की उम्मीद किससे करें? बच्चियों के अभिभावक किस पर ऐतबार करें! समाज से? कानून व्यवस्था से? अदालत से? संसद से? आखिर किससे? क्या ऐसी गुंजायश बाकी रखी जा रही है?

निर्भया के साथ बर्बरता से दुष्कर्म कर मौत के मुंह में धकेलने का कांड, तेलंगाना की एक डॉक्टर की दुष्कर्म कर जलाकर हत्या, आठ साल की बच्ची आसिफा से धर्मस्थल में दुष्कर्म कर बर्बरता से हत्या, हाथरस में वाल्मीकि समुदाय की युवती की दुष्कर्म कर हत्या, उन्नाव कांड जैसे चंद वो मामले हैं, जो सुर्खियों में आ गए, लेकिन फेहरिस्त इतनी लंबी है कि नाम भी नहीं गिने जा सकते।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का इस मामले में दर्ज डाटा किसी भी संवेदनशील इंसान के अंदर घिन पैदा कर सकता है। तीन महीने की बच्ची से लेकर 90 साल की बुजुर्ग महिलाओं तक को नहीं छोड़ा जा रहा।

हाल ही की तीन घटनाएं सोचने पर मजबूर करती हैं। इनको क्रम से लगाकर देखें तो सामने भयानक तस्वीर सामने आती है। एक चक्रव्यूह नजर आएगा।

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पहली घटना, आयशा नाम की युवती ने दहेज उत्पीड़न से आजिज आकर समाज के कलंक को उजागर कर दिया। दहेज की वजह से हत्याएं और अनदेखा उत्पीड़न खौफनाक है। सब्जी में तरी के बहाने, गोश्त में मसाले का जायका ठीक न होने या सूरत के बहाने, जाने कितनी हत्याएं हो चुकी हैं। ऐसी मुसीबत से बचने को बच्चियां-महिलाएं कहां जाएं, किससे फरियाद करें?

राहत पाने को कानून व्यवस्था की बात कही जाती है। इसको दूसरी घटना से समझा जाए। हाथरस में हाल ही में बेटी के साथ छेड़छाड़ की शिकायत करने वाले पिता को शोहदों ने गोली से उड़ा दिया। ऐसे कितने ही मामलों में बच्चियां घरों में कैद होने को मजबूर हो गईं, आत्महत्या कर ली या फिर उनके परिजनों को मुसीबत झेलना पड़ी है।

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कानून व्यवस्था यानी पुलिस से मदद न मिल पाने पर तीसरा रास्ता अदालत है। नीचे की अदालत में इंसाफ न मिले तो हाईकोर्ट है, वहां भी मायूसी हाथ लगे तो सुप्रीम कोर्ट है, सुप्रीम कोर्ट में भी सबसे जिम्मेदार पद वहां के प्रधान न्यायधीश हैं।

यहां का हाल भी अजीबोगरीब है। हाल ही में विवाहिता से दुष्कर्म के मामले में सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश ने आरोपी से पीड़िता संग विवाह करने का एक तरह से प्रस्ताव दे दिया। पूछा- क्या उससे विवाह करोगे! यह भी कहा, सरकारी कर्मचारी होने के नाते आपको इस अपराध से पहले सोचना चाहिए था।

कानून के आधार पर इंसाफ की जगह आरोपी से इस तरह मित्रवत व्यवहार करने की काफी आलोचना भी हुई है और दर्जनों महिला संगठनों ने मुख्य न्यायधीश से इस्तीफे की मांग की है।


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इससे पहले मुंबई हाईकोर्ट के एक जज ने कपड़ों के बाहर से सीने पर आपत्तिजनक स्पर्श को यौन अपराध न मानने की बात की। एक पूर्व मुख्य न्यायधीश अपने ऊपर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप की खुद ही सुनवाई करके खुद को बरी कर चुके हैं और अब संसद की राज्यसभा की ‘शोभा’ बढ़ा रहे हैं।

अदालत से अगर इस तरह का व्यवहार हो रहा है तो अगला रास्ता क्या होगा? बेशक, लोकतंत्र का सबसे बड़ा केंद्र यानी संसद। संसद इन सबको नियंत्रित कर सकती है। संसद, नए कानून बना सकती है, उन्हें अमल में ला सकती है, जजों पर महाभियोग चलाकर बर्खास्त कर सकती है।

जो संसद यह सब कर सकती है, वहां चुने हुए सांसद बैठे हैं। उनका खुद का चरित्र कैसा है?

एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की मई 2019 में जारी रिपोर्ट के अनुसार, मौजूदा लोकसभा सदस्यों में से लगभग आधे के खिलाफ आपराधिक आरोप हैं।

पिछली लोकसभा यानी 2014 की तुलना में 26 प्रतिशत और 2009 की तुलना में 44 प्रतिशत ज्यादा अपराध के आरोपी संसद की चौखट चढ़ गए। लोकसभा 2019 के 539 चुने गए सांसदों में 233 ने अपने खिलाफ दर्ज अपराधिक मामले घोषित किए हैं।

एडीआर ने यह भी पाया कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों के सबसे ज्यादा आरोपी सांसद और विधायक सत्ता का नेतृत्व कर रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हैं। इनमें से लगभग 30 प्रतिशत पर बलात्कार समेत महिलाओं के खिलाफ अन्य अपराध, हत्या, अपहरण जैसे संगीन मामले दर्ज हैं।

संसद में सबसे ज्यादा भाजपा के 116 सांसद, जिनमें 87 पर गंभीर आपराधिक आरोप हैं। इसके बाद कांग्रेस के 29 सांसद, जेडीयू के 13, डीएमके के 10 और टीएमसी के नौ सांसद अपराधिक मामलों के साथ मौजूदा संसद में हैं। कम गंभीर मामलों के आधार पर देखा जाए तो कुल संसद सदस्यों में 81 प्रतिशत किसी न किसी तरह अपराध के आरोपी हैं।

उस संसद से कितनी उम्मीद की जानी चाहिए, जिसकी लोकसभा के 19 सांसदों ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित मामलों की घोषणा चुनाव का पर्चा दाखिल करते समय ही कर दी थी, इनमें से तीन पर बलात्कार (आईपीसी धारा- 376) और छह पर अपहरण के मामले दर्ज हैं।

इसका एक और उदाहरण भी है। उत्तरप्रदेश में जिस समय महिला सुरक्षा के मुद्दे पर योगी सरकार आलोचनाओं से घिरी, ‘मिशन शक्ति’ लांच हुआ। नवरात्र का दिन था। इससे तीन दिन पहले ह्यूमन राइट वॉच की न्यूयॉर्क से रिपोर्ट जारी हुई।

रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में 95 प्रतिशत (19 करोड़ 50 लाख) महिला श्रमिक स्ट्रीट वेंडर, घरेलू काम, कृषि और निर्माण से लेकर घर के काम जैसे बुनाई या कढ़ाई जैसे अनौपचारिक क्षेत्र में, सरकार की एकीकृत बाल विकास सेवाओं के तहत 26 लाख आंगनबाड़ी पोषण कार्यकर्ता, 10 लाख से ज्यादा सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) और 25 लाख मिड डे मील के रसोइया हैं।

ह्यूमन राइट वॉच के सर्वे में इन्हीं में से तमाम महिलाओं ने कहा, ”हमारी जैसी महिलाओं के लिए कोई जगह सुरक्षित नहीं है।’’

रिपोर्ट कहती है कि 2013 का अधिनियम नियोक्ताओं को कार्यस्थल में महिला कर्मचारियों को यौन उत्पीडऩ से बचाने के लिए ढांचा बनाना, शिकायत निस्तारण और जरूरी सहायता देना था। अधिनियम में कार्यस्थल की परिभाषा का दायरा भी बढ़ाया गया, जिससे घरेलू कामगार महिलाओं समेत अनौपचारिक क्षेत्र को कवर किया। लेकिन ऐसा किया नहीं गया।

ये कानून 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित ‘विशाखा दिशानिर्देश’ पर आधारित है। अधिनियम में नियोक्ताओं को प्रत्येक कार्यालय में 10 या उसे अधिक कर्मचारियों के साथ एक आंतरिक समिति बनाना जरूरी है।

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इसी तरह उत्तर प्रदेश सरकार की महत्वकांक्षी 181 आशा ज्योति वूमेन हेल्पलाइन को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने शपथ लेने के बाद 100 दिन के काम में शामिल किया था। लेकिन दुखद यह है कि इस योजना में सरकार द्वारा पिछले वित्तीय वर्ष में महज एक हजार रुपये ही आवंटित किया गया और उससे पिछले वित्तीय वर्ष का आवंटित धन खर्च ही नहीं किया गया।

शर्मनाक यह है कि इस तरह का हाल होने के बावजूद एक बड़ा हिस्सा बलात्कारियों के पक्ष में जुलूस निकालने से लेकर उनका महिमामंडन सरेआम कर चुका है और मौजूद भी है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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