उत्तराखंड आपदा: बचाव की गति तेज होती तो क्या छवि निर्माण न होता?

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इन्द्रेश मैखुरी

तपोवन में राष्ट्रीय राजमार्ग से सुरंग तक जाने वाली सड़क पर अब भीड़ छंट चुकी है. तेज हवाओं और उड़ती धूल के बीच इस सड़क पर अपनों की खोज में सूनी आँखों के किसी कोने में अपनों को पाने की आस में ऊपर-नीचते भटकते लोगों की संख्या अब न्यूनतम हो चली है.

बीते दो दिनों में सुरंग के बाहरी हिस्से से कुछ शवों के मिलने से तपोवन स्थित अस्थायी मौर्चरी पर भीड़ है. तमाशाई तो दूसरे दिन से छंटने शुरू हो गए थे. दो दिन पहले सुरंग में शव निकले और कल से टीवी मीडिया का बड़ा हिस्सा वापस लौट चुका है. शवों के निकलने और टीवी मीडिया के वापसी का एक ही समय होना, संयोग है या प्रयोग, कौन जाने?

दैनिक अखबार में उत्तराखंड के पुलिस महानिदेशक अशोक कुमार का बयान छपा है कि अब किसी के बचने की आस नहीं, रेसक्यू ऑपरेशन तीन-चार दिन में बंद कर दिया जाएगा.


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इससे पहले गढ़वाल के मंडलायुक्त रविनाथ रामन भी बयान दे चुके कि अब किसी के मिलने की आस नहीं है,इसलिए बचाव कर्मी संवेदनशील स्थलों पर उतरने का जोखिम न लें. सरकारी आंकड़ा है कि अब तक 204 लापता लोगों में से 55 शव प्राप्त हुए हैं.

तो क्या उक्त बयान देने वाले अफ़सरान को यह भरोसा है कि तीन-चार दिन में सब लापता लोग खोज लिए जाएँगे या फिर वे यह कह रहे हैं कि तीन-चार दिन में कोई मिला तो ठीक और नहीं तो मलबे का ढेर ही इन अभागे लोगों का स्थायी ठिकाना होगा ?

जिस रेसक्यू ऑपरेशन को तीन-चार दिन में बंद करने की बात की जा रही है,उसके बारे में जमीन पर लोगों की धारणा यह है कि उसमें तालमेल का घनघोर अभाव रहा है. शुरुआत में आनन-फानन में सारा अभियान सेना के हाथ सौंप दिया गया. फिर अभियान की कमान आईटीबीपी के हाथ आई और उसके कई दिनों बाद उसमें एनटीपीसी को शरीक किया गया, जिनकी तपोवन में वह सुरंग है,जहां पर सारा बचाव अभियान केन्द्रित है.

यह भी चर्चा है कि शुरुआत में तो बचाव अभियान संचालित करने वालों को सुरंग का नक्शा तक उपलब्ध नहीं था. हालांकि नक्शे का सवाल जब हमने एनटीपीसी के एक अधिकारी से पूछा तो उनका दावा अलहदा था. तपोवन में ही ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो उस सुरंग में काम करते या करवाते रहे हैं और इस नाते सुरंग को अच्छी तरह से जानते हैं. लेकिन उनसे पूछने की जहमत, अफरातफरी और हैडलाइन मैनेज करवाने की प्राथमिकता के बीच कौन उठाता !

तपोवन में सुरंग के बाहर बैराज साइट पर  पहुंचे तो टनल से बैराज की ओर अप्रोच रोड बनाने के काम पर लगी मशीने खड़ी थी और अप्रोच रोड का काम लगभग उसी जगह पर था, जहां हमने दो दिन पहले देखा था.

पूछने पर एक अधिकारी बताते हैं-लंच चल रहा ! लंच भी जरूरी है पर आपदा के खोज अभियान के समय क्या ऐसा नहीं होना चाहिए या ऐसा नहीं हो सकता कि एक समूह लंच के लिए जाये तो दूसरा काम संभाल ले ?

प्रशासन के अफसरों से लापता लोगों के परिजनों को लेकर हम मिले,उनके संदर्भ में बात की. अफसर कह रहे हैं कि आप सुझाव दीजिये हम वैसा कर देंगे,आप जहां कहें,हम वहां खुदवा देंगे. सुझाव दे भी दिया गया. अफसर सुझावों के लिए ऐसे खुले रहें, सामान्य समयों में भी ऐसे खुले रहे हैं तो कितना अच्छा हो. अफ़सरी की वह अदृश्य दीवार,जो हर वक्त उनके चारों ओर रहती है,जिसे सामने खड़े हो कर भी पार पाना, आम जन के लिए टेढ़ी खीर है,वह न रहे तो अच्छा हो !

सवाल यह भी है कि आपदा के बीच अपने परिजनों की खोज में दूसरे प्रदेश से आये लोग कैसे बताएंगे कि चारों तरफ पसरे मलबे के अंबार में उनके अपने कहां हो सकते हैं ?

सुरंग की खुदाई निरंतर चल रही है. सुरंग के अंदर से मलबा ला कर बाहर फेंका जा रहा है. मलबे का वह ढेर फैलता जा रहा है,उसका फैलाव इतना हो गया है कि नदी के बड़े हिस्से में यह मलबा पसर गया है या पसार दिया गया है.

परियोजना से जुड़े एक अधिकारी से हमने यह पूछा कि मलबे का नदी को बाधित करता यह ढेर,क्या नदी में अचानक पानी बढ़ने की दशा में घातक नहीं होगा ? वे बोले-आपका सुझाव अच्छा है,आपकी बात आगे पहुंचाता हूं ! क्या कहिए, क्या कीजिये !

परियोजना निर्माण के काम में शामिल रहे एक स्थानीय व्यक्ति बताते हैं कि पहले दिन यदि स्लश पंप का प्रयोग करके,सेफ लोडर के जरिये सुरंग में से मलबा बाहर निकाला जाता तो ज्यादा तेजी से काम होता. निर्माण कार्यों से जुड़ा हुआ एक आम व्यक्ति जो बात जानता है, क्या बड़े-बड़े इंजीनियरों और प्रशासकों को यह जानकारी नहीं रही होगी, क्या सरकार को ऐसे सुझाव दे सकने वाला एक भी काबिल व्यक्ति न मिला होगा?

कुल जमा बात यह है कि बचाव अभियान चल रहा है,  शव भी निकल रहे हैं. लेकिन पहले दिन से आपातकालीन स्थिति में जिस तेजी की जरूरत होती है, वह नहीं है. वह तेजी खबरों में है,सोशल मीडिया में है,छवि निर्माण में है ! सोचता हूं कि काम की गति तेज होती तो क्या छवि निर्माण ना होता ?

(लेखक भाकपा-माले से जुड़े हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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