भारतीय तहजीब की मिसाल: संगीत के संत उस्ताद बिस्मिल्लाह खां

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– जन्मदिन –


गंगा किनारे उगते सूरज की आगवानी करती शहनाई की मधुर धुन, जिसमें इंसान ही क्या, पशु-पक्षी तक मंत्रमुग्ध हो जाएं। मंदिर हो महफिल, उस मिठास का हर कोई दीवाना, जो दिल में उतर जाती थी, जो कभी ईश्वर से बात करती तो कभी कुदरत से बतियाती, मन का बोझ हल्का करती तो कभी धरती के उपकार का गुणगान करती। हर दरार को भरने का जैसे कोई लेप हो। (Ustad Bismillah Khan)

भारतीय संगीत में एक से बढ़कर एक नाम हैं, लेकिन उनके बीच में एक संत भी था, जिसका हुनर कबीर के रूप में, नानक के रूप में, बाबा फरीद के रूप में, मंदिर की घंटी से लेकर मस्जिद की अजान में समाया हुआ रहा। ये थे उस्ताद बिस्मिल्ला खां। भारत रत्न। जिन्होंने आजादी की सुबह में शहनाई की धुन से हवाओं में हिंदुस्तान की संस्कृति घोली तो कभी देश के फख्र को लाल किले से पिरोया।

उस्ताद बिस्मिल्लाह खां 21 मार्च 1916 में बिहार के डुमरांव में जन्मे। उस्ताद बिस्मिल्ला खां के नामकरण का दिलचस्प वाकया बताया जाता है। कहा जाता है कि जब वह पैदा हुए तो उनके दादा रसूल बख्श खां ने उनकी तरफ देखते हुए ‘बिस्मिल्ला’ कहा। इसके बाद उनका नाम ‘बिस्मिल्ला’ रख दिया गया। उनका एक और नाम ‘कमरुद्दीन’ था।

परदादा उस्ताद सालार हुसैन खां से शुरू हुआ शहनाई का सफर परिवार की पांच पीढ़ियाें तक बना रहा। उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता पैंगबर खां डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन करते थे। (Ustad Bismillah Khan)

जिस ज़माने में बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की थी, तब गाने बजाने के काम को सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था। उनकी मां शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थीं कि- “क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोंक रहे हैं”।

तब शहनाई वादकों को शादी बगैरा में बुलवाया जाता था और बुलाने वाले घर के आंगन के आगे इन कलाकारों को आने नहीं देते थे। लेकिन बिस्मिल्लाह खां के पिता और मामू अडिग थे कि इस बच्चे को तो शहनाई वादक बनाना ही है।

खैर, छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को बनारस ले जाया गया। यहां उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और गंगा के साथ मेलजोल भी। बिस्मिल्लाह खां को उनके चाचा अली बक्श ‘विलायतु’ ने संगीत की शिक्षा दी, जो बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में अधिकृत शहनाई वादक थे। (Ustad Bismillah Khan)

जल्द ही उन्होंने प्रतिभा को जो प्रदर्शन किया, वह शहनाई का पर्याय बन गया, जो आज तक, उनकी गैरमौजूदगी के बावजूद कायम है। साल 1947 में देश की आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर भारत का तिरंगा फहरा रहा था, साथ ही देश विभाजन का दर्द भी था, उस वक्त बिस्मिल्लाह खां की शहनाई आजादी और खुशहाली का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह खां का शहनाई वादन एक रिवाज बन गया। भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह की पूर्व संध्या पर नई दिल्ली में लाल किले से बजाई गई शहनाई सुनने वालों के दिलों में गहराई से उतर गई।

शहनाई वादन का यह सफर साल दर साल नई ऊंचाई को छूता चला गया। वर्ष 1969 में ‘एशियाई संगीत सम्मेलन’ के ‘रोस्टम पुरस्कार’ समेत कई सम्मान ने भारत के बाहर शहनाई और देश को खास पहचान दिलाई। यूरोप, ईरान, इराक, अफगानिस्तान, कनाडा, अफ्रीका, अमेरिका, सोवियत संघ, जापान, हांगकांग समेत दुनियाभर में बिस्मिल्लाह खां की शहनाई ने बड़ा मकाम पाया।

देश के अंदर ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ और ‘शांतिनिकेतन’ ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि से नवाजा। सम्मान झोली में गिरते रहे। 1956 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1961 में पद्म श्री, 1968 में पद्म भूषण,1980 में उन्हें पद्म विभूषण और फिर 2001 में भारत रत्न मिला। मध्य प्रदेश सरकार ने तानसेन पुरस्कार से सम्मानित किया।

पेशेवर दुनिया में देखा जाए तो जुगलबंदी में उस्ताद विलायत खां के सितार और पंडित वीजीजोग के वायलिन के साथ बिस्मिल्लाह खां की शहनाई के एलपी रिकॉडर्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। कई फिल्मों में भी संगीत दिया। कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए धुनें यादगार हैं। आखिरी बार आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की तान छेड़ी।

‘बजरी’, ‘चैती’ और ‘झूला’ जैसी लोकधुनों में शहनाई की तपस्या ने उनको आम लोगों के बीच का बना दिया।

बिस्मिल्ला खां शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए जिंदगी थी। पत्नी के निधन संगी-साथी शहनाई ही थी। ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतींद्र मिश्र ने लिखा है- “खां साहब कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।”

संगीत-सुर और नमाज के अलावा बिस्मिल्लाह खां के लिए सारे इनाम-इकराम, सम्मान बेमानी थे। उस्ताद की बात मानकर सुबह-सुबह गंगा के घाट पहुंच जाते और कसरत करके रियाज करते। उन्होंने कई बार कहा कि- “सिर्फ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहजीब को एकाकार करने की ताकत रखता है”। (Ustad Bismillah Khan)

बिस्मिल्ला खां ताउम्र फकीरी जिंदगी में रमे रहे। संगीतज्ञ बतौर जो कुछ कमाया, वो परिवार या जरूरतमंदों लोगों पर खर्च कर दिया। ऐसा भी वक्त आया, जब तंगी से घिर गए और सरकार ने मदद करके सहारा दिया। इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की आखिरी हसरत थी, लेकिन उससे पहले 21 अगस्त 2006 को 90 साल की उम्र में वे अपनी शहनाई की धुन और ख्यालात देश की धरोहर में शामिल कर अलविदा कह गए। (Ustad Bismillah Khan)


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