भारतीय तहजीब के खजाने का कोहिनूर है उर्दू, इसके साथ बड़ी नाइंसाफी का वक्त : जस्टिस काटजू

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जस्टिस मार्केंडय काटजू

 

मैंने देश-दुनिया की तमाम भाषाओं में कविताएं पढ़ीं. इसमें अमेरिकन, फ्रेंच, जर्मन, रसियन, स्पैनिश और हिंदी, बंगाली, तमिल समेत तमात और भाषाओं का साहित्य शामिल है. अपने तजुर्बे के साथ मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि उर्दू शायरी का कोई जवाब नहीं है. इंसान के दिल के जज्बात को जितनी खूबसरती के साथ उर्दू शायरी बयान करती है. और वो भी पूरे आत्मसम्मान के साथ. वो दुनियां की कोई दूसरी कविता नहीं कर पाती. इस लिहाज से उर्दू को दुनिया की शानदार कविता का सम्मान बख्शा जा सकता है. (Urdu Indian Culture Justice Katju)

1947 में भारत की आजादी और बंटवारे के बाद कुछ चुनिंदा लोगों ने उर्दू को दबाने की कोशिश की. ये मुलम्मा मढ़कर कि उर्दू एक विदेशी जुबान है, खासतौर से मुसलमानों की. लेकिन ये दुष्प्रचार पूरी तरह से गलत था.

मुझे हमेशा से उर्दू पढ़ने का शौक रहा है. इसका जानकार होने के नाते में इसे तमाम तरीके और मंचों के जरिये प्रोत्साहित करने की कोशिश करता रहा हूं. लोगों को भी समझाते हुए कि उर्दू एक भारतीय और देसी भाषा है. 1947 तक ये भारत के विभिन्न हिस्सों में पढ़ाई जाती रहे है, जिसे पढ़ने वाले छात्र हिंदू, मुस्लिम, सिख और इसाई, सभी शामिल रहे हैं. यकीनन उर्दू केवल मुसलमानों तक नहीं ठिठकी रही, बल्कि इसने देश भर में अपनी जगह बनाई है.


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मैंने सुप्रीमकोर्ट में न्यायाधीश रहते हुए भी उर्दू को प्रमोट करने की कोशिश की है. उर्दू के कई शेरों को अपने जजमेंट में कोट किया है. 2011 में अरुणा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के एक इच्छामृत्यु से जुड़े मामले में फैसला सुनाते हुए मैंने उर्दू के मशहूर शायर मिर्जा गालिब का शेर कोट किया था, जो इस तरह है. ”मरते हैं आरजू में मरने की, मौत आती है मगर नहीं आती.”

इसी तरह एक अन्य फैसले में मैंने फैज अहमद फैज के शेयर का जिक्र किया था. शेर है- ”बने हैं अहले हवस मुद्​दई भी मुंसिफ भी, किसे वकील करें किससे मुंसिफी चाहें.” मेरा ये फैसला पाकिस्तान में भी खूब सुर्खियों में रहा था. मेरे एक दोस्त पाकिस्तान गए. उन्होंने मुझे बताया कि आपका जजमेंट वकीलों के बीच बहस का सबब बना है और अदालत के बाहर उस जजमेंट की प्रतियां बांटी जा रही हैं.


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पाकिस्तान में 27 साल जेल की सजा में बंद भारतीय नागरिक गोपालदास की रिहाई को लेकर मैंने पाकिस्तान सरकार से एक अपील की थी. और उस जजमेंट की शुरुआत मैंने फैज एक शेर से की थी. इस तरह ”कफस उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो, कहें तो बेहर-ए-खुदा आज जिक्र ए यार चले.” और पाकिस्तान ने गोपालदास को रिहा कर दिया था. इस तरह मैंने फैसलों में उर्दू शायरी का जिक्र करता रहा हूं.

मैं उर्दू के मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी की एक नज्म अपने फैसले में कोट करना चाहता था, लेकिन ऐसा नहीं कर पाया, क्योंकि उससे पहले ही मैं रिटायर हो गया था. हालांकि इसे मैंने अपने ब्लॉग पर लिखा है. उर्दू के साथ ये बहुत बड़ी नाइंसाफी है. उर्दू भारतीय संस्कृति के खजाने का एक चमकता हुआ रत्न है.

(लेखक सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश और भारतीय प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष रहे हैं. ये उनके अंग्रेजी लेख का अनुवाद है. )

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