खोखली हो चुकीं देश की संस्थाएं और बेखुदी में डूबे बुद्धिजीवी-पत्रकार, बाहर निकलकर समाज के असल मुद्​दों पर बात करें : जस्टिस काटजू

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जस्टिस मार्केंडय काटजू

 

चंद रोज पहले अशोका यूनिवर्सिटी से प्रताप भानु मेहता और अरविंद सुब्रमण्यम ने इस्तीफा दे दिया. इस पर ऐसी रुबाई फूटी कि मानों जमीन-आसमान उलट-पुलट गया हो. दरअसल, प्रताप भानु मेहता, अरविंद सुब्रमण्य, रामचद्र गुहा, सुब्रमण्यम स्वामी और शशि थरूर जैसे बुद्धिजीवी और हमारे उदार मीडियाकर्मी, सिद्धार्थ वरदराजन, करण थापर, रवीश कुमार, शेखर गुप्ता, राजदीप सरदेसाई और अजीत अंजुम. इन सभी एक ही दिक्कत है कि अपने विचारों को लेकर अक्सर भड़क जाते हैं. इस तरह कि जैसे ये सब बड़े महान चिंतक हैं. हालांकि ये अलग बात है कि मैं इन्हें सामान्य और सतही समझता हूं.

मसलन. जिस इंसान को देश की हकीकत की जरा भी समझ है, उसके लिए ये बात साफ है कि भारत एक संसदीय लोकतंत्र है, जो संविधान के तहत है. या यूं कहें कि काफी हद तक ये धर्म-जाति के वोट बैंक पर निर्भर है. मेरा मानना है कि अगर देश को तरक्की करनी है तो धर्म-जाति की इन बेड़ियों को भष्म करना होगा. चूंकि संसदीय लोकतंत्र ने इसे थोड़ा उलझा रखा है.


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जिसे एक वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था के जरिये बदला जा सकता है. वो है विकास. हमें विकास का पहिया बड़ी तेजी से घूमना होगा. वरना हम चहुं ओर पसरी गरीबी और बेरोजगारी को ही कोसते रहेंगे. हमें अपने बच्चों से कुपोषण का स्तर घटाना है और जनता के लिए अच्छी शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं पर काम करना होगा.

लेकिन हमारे बहादुर बुद्धिजीवी और मीडियाकर्मी कभी इन मुद्​दों पर मुखातिब नहीं होंगे. इसलिए क्योंकि संसदीय लोकतंत्र को चुनौती का मतलब संवैधानिक सीमाएं लांघना है. और एक ऐसी ऐतिहासिक क्रांति की वकालत करना है, जो इन्हें भययीत करता है. लेकिन क्या ये सच नहीं है कि भारत में सबकुछ ध्वस्त हो चुका है. देश के संस्थाएं खोखली हो गई हैं. जबिक हर रोज लोग मुसीबत के जंजाल में धंसते जा रहे हैं. तो क्या भारत क्रांति के लिए अग्रसर नहीं है.


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चूंकि बुद्धिजीवी समाज की नाक-कान और आंखें होते हैं. उनके बिना समाज अंध है. लेकिन क्या हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों ने कभी अपनी खुद की गहराई से निकलकर गंभीरता से विचार किया है. क्या ये अंधों को अंधकार की ओर ले जाने जैसा नहीं है?

अक्सर ये लोग भारत की स्वतंत्रा और लोकतंत्र के दमन पर खूब रोते-पीटते हैं. लेकिन इस बात की अनदेखी करते हैं कि आजादी अपने आप में अंत नहीं है. ये केवल एक अंत का समाधान जरूर हो सकता है. मेरे लिहाज से आजादी का अंत अपने देश के नागरिकों के जीवन स्तर को आला दर्जे का बनाने का होना चाहिए.


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आजादी अच्छी चीज हो सकती है. लेकिन साथ ही ये बुरी चीज भी हो सकती है. अगर ये देशवासियों के जीवन को संवारने के अंत को हासिल करने में मददगार है तो अच्छी बात है. लेकिन अगर उसे प्राप्त करने में बाधक है तो बुरा है. मसलन, बोलने की आजादी का इस्तेमाल अगर धर्म-जाति के आधार पर नफरत का प्रचार करने में किया जाए.

या फिर लोगों के जमीने मुद्​दे-जैसे सामाजिक-आर्थिक से ध्यान भटकाने के लिए किया जाए. और उसके स्थान पर गैर-जरूरी मसलने-जैसे फिल्मी सितारों की आलीशान जिंदगी, क्रिकेटरों का करिश्मा और क्षुद्र राजनीति, फैशन और ज्योतिष पर चर्चा की जाए. तो ये गलत है.

ठीक इसी तरह जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं तो हमें इसकी तह तक जाकर पूछना चाहिए कि यह किस तरह का लोकतंत्र है. हमारे पास एक संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था है, लेकिन इससे जातिवाद-सांप्रदायिकता को बल मिला है.


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मगर हमारे बुद्धिजीवी कभी भी संसदीय लोकतंत्र के दायरे से आगे बढ़कर नहीं सोच पाते. ऐसा करके वे इसे एक पवित्र गाय के रूप में देखते और मानते हैं. हमारे मीडिया के लोग कभी भी इस दायरे के बाहर के विचारों को छाप और बोल नहीं पाएंगे.

इस तरह वे अभिव्यक्ति की आजादी को नजरंदाज करते हैं. केवल उसी की इजाजत देेंगे जो इन सीमाओं के अंदर होगा. लेकिन अगर लोगों की समस्याओं का समाधान उस दायरे और सिस्टम के बाहर है तो क्या ऐसे विचारों को रखने की आजादी नहीं होनी चाहिए. जाहिर है कि हमारे उदार-बुद्धिजीवियों का जवाब न ही होगा. क्या ये पाखंड नहीं है. (Institutions Hollow Intellectual Journalists Society Justice Katju)

(जस्टिस मार्केंडय काटजू, सुप्रीमकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रहे हैं. )

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