बंगाल का तेभागा किसान आंदोलन

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देश की आजादी, साम्प्रदायिक दंगों और विभाजन की त्रासदी के दौरान बंगाल में व्यापक किसान आंदोलन उठ खड़ा हुआ था। इस किसान आंदोलन को तेभागा आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इसका नेतृत्व बंगाल की प्रान्तीय किसान सभा ने किया था। बंगाल की प्रान्तीय किसान सभा अखिल भारतीय किसान सभा का हिस्सा थी।

इस तेभागा आंदोलन का क्षेत्र आज के बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के कई जिलों तक फैला हुआ था। इसने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की साम्प्रदायिक विभाजन कराने तथा उसमें किसी न किसी रूप में शामिल कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग द्वारा निभायी गयी भूमिका के विरुद्ध हिन्दू, मुसलमान और आदिवासी किसानों की शानदार एकता स्थापित करने में एक बड़ी भूमिका निभायी थी।

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इस तेभागा आंदोलन की शुरूवात 1928 में बंगाल के विभिन्न जिलों में हो गयी थी। जैसोर जिले (मौजूदा बांग्लादेश में) के किसानों ने तेभागा का नारा दिया था। इसका मतलब बंटाईदार (बरगादार) की जमीन के उत्पाद का दो तिहाई हिस्सा बरगादार के हिस्से में दिलाने की मांग थी। बाद में 1940 के किसान सम्मेलन ने मांग की थी कि बरगा प्रथा समाप्त की जाय और कानून द्वारा बरगादार के पास बरगा जमीन के मालिकाने का अधिकार दिया जाये।

लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध ने इस आंदोलन में बाधा खड़ी कर दी। बंगाल जापानी बमबारी का शिकार होने वाला सबसे अग्रिम कतार का क्षेत्र था। इसके अलावा, किसान नेताओं और कार्यकर्ताओं की भारी तादाद या तो जेलों में डाल दी गयी थी या भूमिगत हो गयी थी। इस मुद्दे पर इस दौरान जन संघर्ष को आगे बढ़ाना काफी मुश्किल काम हो गया।

तेभागा आंदोलन की मांगों को लेकर आंदोलन द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ही शुरू हो सका था।

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बंगाल में 1937 में कृषक प्रजा मंत्रिमण्डल साथ में आया था। इस मंत्रिमण्डल ने एक भू-राजस्व आयोग का गठन किया था। आयोग ने 1940 में बंगाल सरकार के सामने अपनी अनुशंसायें पेश की थीं। इन अनुशंसाओं में अन्य बातों के अलावा स्थायी बंदोबस्त और जमींदारी प्रथा को समाप्त करने की सिफारिश की गयी थी। इसने बरगा प्रथा को भी समाप्त करने की सिफारिश की थी।

इसकी सिफारिश में यह भी शामिल था कि जब तक बरगा प्रथा समाप्त नहीं होती तब तक बरगादारों को उनकी जमीन में उपज का दो तिहाई हिस्सा दिया जाय। इन अनुशंसाओं से भी तेभागा आंदोलन को विकसित करने में मदद मिली थी।

लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद मुस्लिम लीग द्वारा उठाये गये पाकिस्तान के नारे की मुस्लिम आबादी के बीच स्वीकार्यता बढ़ती जा रही थी। इसी दौरान, कृषक प्रजा मंत्रिमण्डल का स्थान मुस्लिम लीग मंत्रिमण्डल ने ले लिया।

हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक तनाव बढ़ता जा रहा था। कलकत्ता में 1946 के अगस्त महीने में दंगा भड़क उठा था। दोनों ओर से बड़े पैमाने पर लोगों की हत्यायें हो रही थीं। पांच दिनों तक शहर का जीवन ठप सा पड़ गया था।

इसी के साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े पैमाने पर दंगे भड़क उठे थे। अक्टूबर 1946 में नोआखाली में दंगे भड़क उठे थे। जहां ब्रिटिश साम्राज्यवादी देश के विभिन्न हिस्सों में साम्प्रदायिक दंगों की आग भड़का रहे थे, वहीं तेभागा आंदोलन ने सभी समुदायों के किसानों को अपने साझा दुश्मन सामंती शोषकों के विरुद्ध एकजुट किया था। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ-साथ उनके स्थानीय सहयोगियों और मिलीभगत करने वालों के विरुद्ध व्यापक किसान आबादी को एकजुट करने में मदद की थी।

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इस आंदोलन से काफी पहले 1932 में कोकिल्ला जिले में (इस समय बांग्लादेश में) किसान आंदोलन विकसित हुआ था। फरवरी, 1932 में 15,000 किसानों ने एक रैली निकाली थी। इस किसान रैली पर पुलिस ने हमला किया था और 5 ग्रामीणों की हत्या कर दी थी तथा कई सारे लोगों को घायल कर दिया था। तब से यह इलाका साम्प्रदायिक सौहार्द का दुर्ग बन गया था तथा वर्गीय एकता की मजबूत भावना किसानों के बीच घर कर गयी थी।

यही वजह थी कि साम्प्रदायिक उन्माद के इस दौर में हिन्दुओं और मुसलमानों को बचाने में किसान नेताओं और ग्रामीणों ने इस इलाके में काफी काम किया था। दंगों के शिकार लोगों के बीच राहत कार्य का काम इस इलाके में किया गया।

तेभागा आंदोलन के शुरू होने के कुछ वर्ष पहले दिनाजपुर जिले तथा अन्य इलाकों में गरीब बरगादारों को अपने उत्पाद का आधा हिस्सा ही मिलता था। इन बरगादारों को उधार लेना पड़ता था। जोतदार लोग सूदखोरी की ऊंची दर रखते थे।

1939 को नवम्बर में दिनाजपुर जिला किसान सभा ने अधियारों (बंटाईदारों) की मांगों और सूदखोरी विरोधी सवालों पर संघर्ष करने की योजना बनायी। संघर्ष का यह विचार जिले के अलग-अलग हिस्से में जंगल की आग की तरह फैल गया।

अधियारों (बंटाईदारों) के आंदोलन ने इस तरीके से समूचे इलाके को अपने आगोश में ले लिया कि हजारों किसानों ने किसान सभा के स्वयंसेवकों के बतौर अपने को पेश कर दिया। इसमें ज्यादातर राजवंशी किसान थे। जोतदारों की मदद के लिए पुलिस पहुंच गयी। लेकिन किसान आंदोलन की ताकत को देखकर वहां के प्रशासन ने समझौता करा दिया।

अब सूद की दर 25 प्रतिशत कर दी गयी जो पहले 50 प्रतिशत हुआ करती थी। 10,000 किसानों की आम सभा के सामने यह समझौता हुआ था। किसानों की यह विजय अधियारों के लिए बहुत महत्व रखती थी और इसने आगामी तेभागा आंदोलन के लिए जमीन तैयार कर दी थी।

सितम्बर, 1946 में बंगाल की प्रांतीय किसान परिषद ने आगामी फसल की कटाई के मौसम में, यानी नवम्बर, 1946 से बरगादारों की तेभागा मांगों को लेकर आंदोलन करना तय किया।

बरगादारों और खेत मजदूरों ने इस संघर्ष में उल्लेखनीय एकता, साहस और अनुशासन का प्रदर्शन ठीक आंदोलन की शुरूवात से ही किया। बरगादार और खेत मजदूर; आंदोलन की मुख्य ताकत थे। यह आंदोलन 13 जिलों में शुरू हुआ था। यह उन जगहों पर सबसे तेज था जहां जोतदारों और बरगादारों के बीच जमीन के केन्द्रीकरण के चलते सबसे तीखा ध्रुवीकरण था।

ये लक्षण तीन उत्तरी जिलों- दिनाजपुर, रंगपुर और जालपाईगुड़ी में तथा दो पश्चिमी जिलों 24 परगना और मिदनापुर में सबसे तीखे रूप में दिखाई पड़ते थे। उत्तरी जिलों में राजवंशी आबादी केन्द्रित थी और ये ही सबसे जुझारू शक्ति थे।

धान की फसल की कटाई शुरू हुई और इसके साथ ही बरगादारों के खलिहान में फसल को इकट्ठा किया जाने लगा। अभी तक फसल को जोतदारों के खलिहान में इकट्ठा करने की परम्परा थी। आंदोलन का प्रथम चरण शांतिपूर्ण और सहज तरीके से गुजर गया। लेकिन मुस्लिम लीग की सरकार ने जोतदारों के पक्ष में अपनी ही सरकार द्वारा पारित कानूनों को लागू करने से इंकार कर दिया। संघर्ष की पहली मंजिल समाप्त होते ही जोतदारों ने एक वर्ग के बतौर अपनी ताकत का प्रदर्शन शुरू किया। बड़े जोतदारों ने छोटे जोतदारों को अपने इर्द-गिर्द खड़ा कर लिया।

जोतदारों ने मुस्लिम लीग की सरकार पर दबाव डाल कर बिल का पालन रद्द करा दिया।

मुस्लिम लीग मंत्रिमण्डल का मुख्य सामाजिक आधार मुस्लिम जोतदारों के बीच था। हालांकि इसने बिल को वापस तो नहीं लिया लेकिन उसने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।

जोतदारों के समर्थन में मुस्लिम लीग सरकार खुलकर आ गयी थी। आंदोलन के इलाकों में बड़े पैमाने पर पुलिस शिविर स्थापित कर दिये गये। जोतदारों की हमलावर कार्रवाइयां सबसे पहले फसल को अपने खलिहानों में ले जाने के रूप में सामने आयीं। इसमें उन्होंने अपनी गुण्डावाहिनियों के साथ-साथ पुलिस की मदद ली। कई मामलों में पुलिस खुद ही फसल को जोतदारों के खलिहान में ले गयी। जहां कहीं भी बरगादारों ने प्रतिरोध किया, वहां उन पर हमला किया गया और निर्दयता के साथ पीटा गया, यहां तक कि उन पर गोलियां चलायी गयीं। सरकार जोतदारों के स्वार्थों को पूरा करने के लिए आंदोलन को कुचलने पर आमादा थी।

किसानों ने कई स्थानों पर अपने हितों की हिफाजत के लिए दृढ़ और बहादुराना प्रतिरक्षा खड़ी कर दी थी। तेभागा की मांग उनके मन में इतनी गहराई से जड़ें जमाये हुए थी कि वे जोतदारों और पुलिस के हमलों को पीछे धकेलने के लिए कुछ भी तकलीफ उठाने के लिए तैयार थे।

रंगपुर जिले के एक गांव में जोतदारों ने एक किसान नेता की हत्या कर दी।

इस हत्या के विरोध में किसानों का गुस्सा भड़क उठा और दोषी जोतदारों से बदला लेने की मांग उठने लगी। इससे जोतदार घबरा गए और अपना गांव छोड़कर भाग खड़े हुए।

इस हत्या के विरोध में किसान सभा ने विरोध प्रदर्शन किया। इसमें हजारों किसान शामिल हुए। यह विरोध प्रदर्शन इतना सशक्त था कि पुलिस की इसमें हस्तक्षेप करने की हिम्मत नहीं पड़ी कि भूमिगत किसान नेताओं द्वारा सभा को सीधे सम्बोधन करते समय उनको गिरफ्तार करने की कोशिश करती।

इसके बाद पुलिस का कहर शुरू हुआ। जनवरी, 1947 में कई किसान नेताओं की हत्या कर दी। इसके विरोध में भी बड़े पैमाने पर किसानों का प्रदर्शन हुआ। एक और गांव में चार और किसानों की हत्या कर दी गयी। ये हत्यायें पुलिस गोलीबारी से की गयी थीं।

इससे भी बढ़कर बड़ी घटना दिनाजपुर जिले के खानपुर गांव में हुई। 1946-47 के दौरान खानपुर गांव में पुलिस फायरिंग से 22 किसानों की हत्यायें एक साथ ही कर दी गयीं। इनमें 14 तो तुरंत ही मारे गये, जबकि 8 अस्पताल में मर गए।

यह आंदोलन दिनाजपुर और रंगपुर जिलों तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि आंदोलन इनकी सीमाओं के पार भी फैल गया था। जालपाईगुड़ी के बरगादार ने देर से इस आंदोलन में भागीदारी की। इनमें से अधिकांश आदिवासी थे। यद्यपि उनमें साहस व जुझारूपन की कमी न थी, तथापि वे अच्छी तरह संगठित नहीं थे। उनका नेतृत्व भी कमजोर था।

इस हालात के बावजूद किसानों ने कार्रवाई करने का फैसला लिया था। उन्होंने बड़े जोतदार के खलिहान से फसल को अपने यहां लाने की कोशिश की। उस समय पुलिस अपना डेरा जोतदार के घर में डाले हुए थी। पुलिस ने फसल ले जाने वाले किसानों पर हमला किया और पुलिस फायरिंग से चार किसान मारे गए।

24 परगना जिले में कई बड़े जोतदार थे और वे बरगादारों और खेत मजदूरों का खून निचोड़ने के लिए कुख्यात थे। यहां पर पुलिस एक बड़े जोतदार के घर में डेरा डाले हुए थी। पुलिस ने 9 किसानों की यहां पर हत्या कर दी।

लेकिन यहां पर तेभागा आंदोलन ज्यादा संगठित था। यहां के एक गांव में पुलिस ने 5 किसानों की हत्या कर दी। इसकी खबर चारों तरफ फैल गयी। समूचा इलाका किसान आंदोलन की आग में धधक उठा था। हजारों किसान चारों दिशाओं से हत्या के स्थान पर इकट्ठे हो गए। इस दृश्य ने पुलिस और जोतदारों के अंदर भय की कंपकंपी पैदा कर दी।

इस घृणित पुलिस हमले की हद का इस बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि पुलिस फायरिंग में 72 बरगादारों की मौत हुई। इनमें से अकेले दिनाजपुर जिले में 39 लोग मारे गये। हजारों लोग घायल हुए। 3119 लोगों को गिरफ्तार किया गया, इनमें से अकेले दिनाजपुर जिले में 1200 लोग गिरफ्तार किये गये। अनगिनत पुलिस शिविर खड़े किये गये थे, इनमें से अकेले दिनाजपुर में 35 पुलिस शिविर कायम किये गये थे।

हालांकि तेभागा आंदोलन को कुचल दिया गया था, फिर भी इस तेभागा संघर्ष ने बरगादारों के जीवन में अमिट छाप छोड़ दी थी। एक किसान जो खानपुर में घायल हुआ था उसने अपने मरने से पहले यह कहा था कि हमें तेभागा चाहिए।

बरगादारों की लड़ाई आजादी के बाद भी चलती रही। उस समय के बरगादार आज के छोटे और मझोले किसान हैं। ब्रिटिश जमाने के सामंती शोषण के तरीके अब बदल गये हैं। आज किसान आंदोलन को ब्रिटिश भारत के स्थायी बंदोबस्त और जमींदारी प्रणाली के विरुद्ध नहीं लड़ना है। ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने स्थायी बंदोबस्त तथा जमींदारी प्रणाली लागू की थी।

इन जमींदारों को एक निश्चित मात्रा में और निश्चित समय सीमा के भीतर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को मालगुजारी देनी होती थी। बदले में जमींदारों को किसानों को अपने इलाके में लूट की छूट मिली हुई थी। इन जमींदारों ने अपने अधीन मध्यस्थों की एक श्रृंखला खड़ी कर रखी थी। इन मध्यस्थों को जोतदार कहा जाता था।

ये बड़ी जोतों के मालिक हुआ करते थे। लेकिन जोतदारों को भी जमीन में मालिकाना हक नहीं था। जमींदार जब चाहते तब इन्हें अपनी जमीन से बेदखल कर सकते थे। लेकिन जमींदार, जोतदारों पर मालगुजारी उसूलने के लिये निर्भर करते थे।

ये जोतदार किसानों को जमीन बंटाई पर देते थे। इन किसानों को बंगाल के अलग-अलग इलाकों में अधियार, बरगादार इत्यादि नामों से जाना जाता था। बरगादार बाद में कानूनी तौर पर स्वीकृत नाम पड़ गया था।

स्रोत: पाक्षिक समाचार पत्र नागरिक अधिकारों को समर्पित

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