दूर कर लें हर गलतफहमी, ये हैं तीनों नए कृषि कानून

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Misconceptions New Agricultural Laws
जया मेहता

देश की राजधानी दिल्ली की लगभग सभी सीमाएं किसानों के डेरों से घिरी हैं. नए तीन कृषि कानूनों को लेकर इस नाराजगी की खबर अब अंतरराष्ट्रीय मीडिया की भी सुर्खियों में भी है. हालांकि सोशल मीडिया पर आंदोलनकारियों और सरकार के समर्थक गुत्थमगुत्था हैं. उनके तर्कों को लेकर बड़ी आबादी ऐसी है जो तीनों कानूनों में एक आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 से संबंधित है, दूसरा कृषि उत्पाद मार्केटिंग और तीसरा ठेका खेती को संस्थागत रूप देने के बारे में है. माना जा रहा है कि ये तीनों सुधार मौजूदा कृषि उत्पादों के बाजार की संरचना को बदल देंगे, जिसको लेकर आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच तनातनी जारी है. सरकार फायदे गिना रही है तो आंदोलनकारी इनके नुकसान बताकर रद करने की मांग कर रहे हैं. (Misconceptions New Agricultural Laws)

कृषि संकट के बीच कोविड विश्व महामारी और लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था की गति थम सी गई. इसी दौरान संसद का मानसून सत्र 14 सितंबर 2020 को शुरू हुआ। कृषि सुधार के तीनों विधेयक राज्यसभा एवं लोकसभा में रखे गए. लोकसभा में यह विधेयक पास हो गए लेकिन 17 सितंबर को शिरोमणि अकाली दल की सांसद व खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इन विधेयकों के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया.

20 सितंबर को ये विधेयक राज्यसभा में रखे गए जहां समूचे विपक्ष ने विधेयकों की बारीक पड़ताल के लिए एक समिति बनाने की मांग की. यह भी मांग की कि इन विधेयकों को अमान्य करने के उनके प्रस्तावों पर राज्यसभा में मतदान करवाया जाए. (Misconceptions New Agricultural Laws)

राज्यसभा के उपसभापति ने उनकी मांग अस्वीकार कर दी, जिससे सदन में घमासान मच गया। हालांकि इसस अफरा-तफरी को नजरंदाज कर विधेयकों को पारित कर दिया गया. तीसरा कानून, ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन 1955’ 22 सितंबर 2020 को पारित हुआ और 27 सितंबर को राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद तीनों विधेयक कानून बन गए.

किसानों की प्रतिकात्मक तस्वीर

1. आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020

आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में भारत में लागू किया गया था. तब इस नियम को लागू करने का उद्देश्य उपभोक्ताओं को आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता उचित दाम पर सुनिश्चित करवाना था. इस कानून के अनुसार आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन, मूल्य और वितरण सरकार के नियंत्रण में होगा जिससे उपभोक्ताओं को बेईमान व्यापारियों से बचाया जा सके. आवश्यक वस्तुओं की सूची में खाद्य पदार्थ, उर्वरक, औषधियां, पेट्रोलियम, जूट आदि शामिल थे.

23 सितम्बर 2020 को पारित अधिनियम में संशोधन के बाद इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है. इन वस्तुओं पर जमाखोरी एवं कालाबाज़ारी को सीमित करने और इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने जैसे प्रतिबंध हटा दिए गए हैं.

अब इन वस्तुओं के व्यापार के लिए लाइसेंस लेना जरूरी नहीं होगा. हालांकि इस अधिनियम में प्रावधान है कि युद्ध, अकाल या असाधारण मूल्य वृद्धि जैसी आकस्मिक स्थितियों में प्रतिबंधों को फिर से लागू किया जा सकता है.

इस संशोधन को उचित ठहराते हुए सरकार का तर्क है कि किसान अपनी कृषि उपज को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बेचकर बेहतर दाम प्राप्त कर सकेंगे. इससे किसानों को व्यापार एवं सौदेबाजी के लिए बड़ा बाजार मुहैया होगा और उनकी व्यापारिक शक्ति बढ़ेगी. (Misconceptions New Agricultural Laws)

खाद्य पदार्थों के भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटा देने से भंडारण क्षेत्र (वेयर हाउसिंग) की क्षमता बढ़ाई जा सकती है और इसमें निजी निवेशकों को भी आमंत्रित किया जा सकेगा.

वहीं आंदोलनकारियों का तर्क है कि देश में किसान परिवारों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत को देखते हुए ऐसे किसान गिने-चुने ही हैं जो अपना कृषि उत्पाद मुनाफे की तलाश में दूर-दराज के इलाकों तक भेज पाते हों या जिनके पास इतने बड़े गोदाम हों, जहां वो अपनी फसल का लम्बे समय तक भंडारण कर सकें.

नए कानून से केवल बड़े व्यापारियों और कंपनियों को ही फायदा होगा. जो खाद्य पदार्थों के बाजारों में गहराई तक पैठ रखते हैं और ये अपने मुनाफे के लिए खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और परिवहन करके संसाधनविहीन बहुत सारे गरीब किसानों का नुकसान करेंगे.

प्याज मंडी

2. कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020

1970 के दशक में, राज्य सरकारों ने किसानों के शोषण को रोकने और उनकी उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के लिए ‘कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम’ (एपीएमसी एक्ट) लागू किया था. इस अधिनियम के तहत यह तय किया कि किसानों की उपज अनिवार्य रूप से केवल सरकारी मंडियों के परिसर में खुली नीलामी के माध्यम से ही बेची जाएगी.

मंडी कमेटी खरीददारों, कमीशन एजेंटों और निजी व्यापारियों को लाइसेंस प्रदान कर व्यापार को नियंत्रित करती है. मंडी परिसर में कृषि उत्पादों के व्यापार की सुविधा प्रदान की जाती है; जैसे उपज की ग्रेडिंग, मापतौल और नीलामी बोली इत्यादि.

सरकारी मंडियों या लाइसेंसधारी निजी मंडियों में होने वाले लेन-देन पर मंडी कमेटी टैक्स लगाती है. भारतीय खाद्य निगम (फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया-एफसीआई) द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कृषि उपज की खरीददारी सरकारी मंडियों के परिसर या निर्धारित केंद्रों में ही होती है. (Misconceptions New Agricultural Laws)

नए कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम 2020 के अनुसार कृषि व्यापार की यह अनिवार्यता कि मंडी परिसर में ही उपज बेचना जरूरी है, खतम कर दी गई है. नए कानून के मुताबिक किसान राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों के बाहर अपनी कृषि उपज बेच सकता है.

यह कानून कृषि उपज की खरीद-बिक्री के लिए नए व्यापार क्षेत्रों की बात करता है जैसे किसान का खेत, फैक्ट्री का परिसर, वेयर हॉउस का अहाता इत्यादि. इन व्यापार क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म की भी बात की जा रही है. इससे किसानों को यह सुविधा मिलेगी कि वे कृषि उपज को स्थानीय बाजार के अलावा राज्य के अंदर और बाहर दूसरे बाज़ारों में भी बेच सकते हैं.

इसके अलावा, इन नए व्यापार क्षेत्रों में लेन-देन पर राज्य अधिकारी किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगा पाएंगे. यह कानून सरकारी मंडियों को बंद नहीं करता बल्कि उनके एकाधिकार को समाप्त करता है, सरकार का दावा है कि इससे कृषि उपज का व्यापार बढ़ेगा.

अनाज मंडी

आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि यह कानून संविधान में निहित राज्य सरकारों के अधिकार की अवमानना करता है. सत्तर के दशक में कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) को राज्य सरकार की विधानसभाओं ने बनाया था और अब इस नए कानून से कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) निरस्त हो गए हैं और केंद्र सरकार ने इन्हें निरस्त करते समय राज्य सरकार से बात करना भी जरूरी नहीं समझा.

केंद्र सरकार राज्य सरकारों से सलाह लिए बिना उन्हें कैसे खत्म कर सकती है? वे सवाल उठा रहे हैं. यहां गौर किया जाना चाहिए कि वर्ष 2003 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी तो यह निर्णय लिया गया था कि निजी कंपनियों को मंडी परिसर के बाहर कृषि उपज खरीदने की अनुमति दी जानी चाहिए.

लेकिन, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, केंद्र सरकार ने केवल एक मॉडल अधिनियम तैयार किया और उसके मुताबिक राज्य सरकारों को मंडी अधिनियम में संशोधन करने की सलाह दी थी.


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आंदोलनकारी किसानों का दावा है कि इन सुधारों से उन्हें अपनी उपज के लिए उच्च मूल्य प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलेगा. इसके बजाय इन सुधारों से कॉरपोरेट्स को कृषि उपज की सीधी खरीद की सुविधा होगी, जिस पर किसी हद तक कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) होने की वजह से राज्य सरकार का कुछ तो नियंत्रण था.

कॉरपोरेट घरानों और बड़े व्यापारियों को खरीद-फरोख्त की खुली छूट मिल जाने से वे उन जगहों से ही किसानों की उपज खरीदेंगे जहां लेन-देन के लिए कोई शुल्क या टैक्स नहीं लिया जाएगा. (Misconceptions New Agricultural Laws) शुरुआत में कंपनियों द्वारा किसानों को लुभाने के लिए कुछ आकर्षक मूल्य के प्रस्ताव दिए जाएंगे लेकिन बाद में फसल के दामों पर पूरा नियंत्रण कंपनियों और व्यापारियों का हो जाएगा.

इस नए कानून का यह दुष्परिणाम होगा कि सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों में लेन-देन कमतर होने से व्यापार कम होने लगेगा और अंततः धीरे-धीरे सरकारी मंडियों का विघटन होता जाएगा और साथ ही साथ एफसीआई द्वारा खरीद भी खत्म हो जाएगी.

परिणाम यह होगा कि कृषि मंडियों पर सरकारी एकाधिकार के बजाय कॉरपोरेट का एकाधिकार होगा और किसान निजी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दया पर निर्भर हो जाएंगे. कृषि उपज के अंतरराष्ट्रीय बाजारों में आते उतार-चढ़ाव और अनुचित व्यापार के परिणामों से देश के किसानों को बचने के लिए कोई बफर जोन नहीं होगी.

किसानों की इन आशंकाओं पर मोदी सरकार बार-बार आश्वासन दे रही है कि एफसीआई द्वारा कृषि उपज की खरीद जारी रहेगी और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा. जबकि किसानों को इस आश्वासन पर ऐतबार नहीं है. उनका आरोप है, 2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में, भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया था कि वह स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को लागू करेगी. (Misconceptions New Agricultural Laws)

इस घोषणा पत्र में किसानों को आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने का वादा किया गया था. स्वामीनाथन कमीशन के अनुसार उत्पादन के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में उत्पादन की सारी लागतों को शामिल किया जाये जैसे कि श्रम की लागत, जमीन की परोक्ष-अपरोक्ष लागत, मशीन की लागत इत्यादि. फिर फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते वक्त इस कुल लागत पर पचास प्रतिशत कि बढ़ोतरी की जाये.

लेकिन जब चुनाव जीत लिया और सरकार बन गई तब 2015 में मोदी सरकार ने सर्वोच्च अदालत में एक हलफनामा दायर किया. इस हलफनामे में सरकार द्वारा कहा गया कि किसानों को आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दी ही नहीं जा सकती क्योंकि इससे पूरे बाजार में विकृति आ जाएगी.

इसके बाद, कृषि मंत्री ने कहा कि उन्होंने आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने के लिए कभी कोई वादा नहीं किया था. 2018-19 में, वित्त मंत्री ने एक बयान दिया कि वो स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के सुझावों को पहले ही लागू कर चुके हैं.

3. कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 2020

इस अधिनियम का उद्देश्य अनुबंध या ठेका खेती के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संस्थागत ढांचा तैयार करना है. ठेका या अनुबंध खेती में वास्तविक उत्पादन होने से पहले किसान और खरीददार के बीच उपज की गुणवत्ता, उत्पादन की मात्रा एवं मूल्य के सम्बंध में अनुबंध किया जाता है. बाद में यदि किसान और खरीददार के बीच में कोई विवाद हो तो इस कानून में विवाद सुलझाने के प्रावधान शामिल हैं.

इसके अनुसार, सबसे पहले तो एक समाधान बोर्ड बनाया जाए जो कि विवाद को सुलझाने का पहला प्रयास हो. यदि समाधान बोर्ड विवाद न सुलझा सके तो आगे इस विवाद को सबडिविजनल अधिकारी और अंत में अपील के लिए कलेक्टर के सामने ले जाया जा सकता है, लेकिन विवाद को लेकर अदालत में जाने का प्रावधान नहीं है.

विधेयक विवाद सुलझाने की बात तो करता है लेकिन इसमें खरीद के अनुबंधित मूल्य किस आधार पर तय होंगे इसका कोई संकेत नहीं है. किसानों को डर है कि एक बड़ी कंपनी तरह-तरह के दबाव बनाकर छोटे किसान से कम से कम मूल्य पर अनुबंध कर सकती है. उनका कहना है, चूंकि कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार नहीं बनाते हुए आसपास की सरकारी या निजी मंडियों के समतुल्य मूल्य देने की बात की गई है, इसलिए जरूरी नहीं कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल हो.

(लेखिका अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं)

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