मास्टर सूर्यसेन: जिसने क्रांति का अर्थ बलिदान देकर समझाया

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-जन्मदिन-


मास्टर सूर्यसेन का जिक्र अब लोगों की जुबान पर नहीं आता। बांग्लादेश और भारत की सरकारों ने उनके नाम से कुछ पार्क, स्टेशन आदि का नाम रखकर उनको भुलाने में ही बेहतरी समझी। 22 मार्च को 1894 को वे जन्मे और 12 जनवरी 1934 को फांसी देकर साम्राज्यवादी सरकार ने अपने बर्बर शासन की मिसाल कायम की। (Master Suryasen Explained Revolution)

फांसी से पहले उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गई। निर्दयतापूर्वक हथौड़े से उनके दांत तोड़ दिए गए, नाखून खींच लिए गए, हाथ-पैर जोड़-तोड़ दिए गए और जब वह बेहोश हो गए तो उन्हें अचेतावस्था में ही खींचकर फांसी के तख्ते तक लाया गया। क्रूरता और अपमान की पराकाष्ठा यह थी की उनकी मृत देह को भी उनके परिजनों को नहीं सौंपा गया और उसे लोहे के बक्से में बंद करके बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया। 

अशोक मुखोपाध्याय लिखते हैं, मास्टरदा सूर्य सेन कई मायनों में, ब्रिटिश काल में बंगाल में संगठित क्रांतिकारी समूहों के सामान्य तौर-तरीकों के बीच अपवाद थे।

उनका क्रांतिकारी समूह देवी काली के मंदिर में शपथ लेने की रस्म को निभाने की परंपरा पर नहीं चला। हालांकि, वह भगत सिंह की तरह पूरी तरह से नास्तिक नहीं थे, फिर भी वे धार्मिक अनुष्ठानों को राजनीतिक लक्ष्य के घालमेल से नाइत्तफाकी रखते थे। अपने भाषणों और लेखों में उन्होंने देश को माता और मातृभूमि के रूप में संदर्भित किया, लेकिन मातृदेवी के रूप में नहीं। (Master Suryasen Explained Revolution)

वह भारतीय राष्ट्रीय राजनीति में पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं की भर्ती की और उन्हें पुरुषों की तरह ही जिम्मेदारियां सौंपीं। इससे पहले की बंगाल के क्रांतिकारियों की परंपरा महिलाओं को “मां” के रूप में मानने और ब्रह्मचर्य निभाने वाली रही, जिससे महिलाओं की उनके ग्रुप में नो एंट्री रही।

मास्टरदा ने इस परंपरा को तोड़ा भी और उनके समूह पर ऐसा कोई धब्बा नहीं लगा, जैसा पहले सोचा जाता था। उन्होंने दो प्रतिभाशाली क्रांतिकारियों – प्रीतिलता वाद्दार और कल्पना दत्ता को बढ़ावा दिया – जो बेमिसाल क्रांतिकारी वीरांगनाएं रहीं।

वह जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव थे। एक दुर्लभ व्यक्ति, जिन्होंने विभिन्न स्वतंत्रता-प्रेमी कार्यकर्ता समूहों के बीच एकता की जरूरत को समझा, मतभेदों के साथ! उनके पास बहुस्तरीय भागीदारी के साथ एक संगठनात्मक संरचना थी। कोई “हां-नहीं” जैसा असाइनमेंट नहीं था। हर शख्स अपनी भागीदारी समर्पण की भूमिका के साथ अपने लिए जिम्मेदारी ले सकता था। हर सदस्य केवल उतना ही जानता था जितना जरूरी था। यही वजह रही कि उनके समूह को चटगांव में आंतरिक विश्वासघात के बावजूद कम से कम नुकसान उठाना पड़ा। (Master Suryasen Explained Revolution)

अहम तथ्य ये भी है कि मुस्लिम बहुल जिले में मास्टरदा तीन साल तक पुलिस गिरफ्त में नहीं आए और उनको आश्रय मिला, किसी ने कोई गद्दारी नहीं की, फरार होने की सूचना उसके एक रिश्तेदार ने पुलिस को दी थी!

मास्टर सूर्य सेन ने बलिदान से पहले 11 जनवरी को अपने एक मित्र को अंतिम पत्र लिखा था-

‘मृत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है। मेरा मन अनंत की ओर बह रहा है। मेरे लिए यह वो पल है, जब मैं मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूं। इस सौभाग्यशील, पवित्र और निर्णायक पल में मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूं? सिर्फ एक चीज- मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, स्वतंत्र भारत का स्वप्न। (Master Suryasen Explained Revolution)

प्रिय मित्रों, आगे बढ़ो और कभी अपने कदम पीछे मत खींचना। उठो और कभी निराश मत होना। सफलता अवश्य मिलेगी। अंतिम समय में भी उनकी आंखें स्वर्णिम भविष्य का स्वप्न देख रही थीं।


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