कोरियन फिल्म ‘द वेलिंग’: शैतान का एजेंट निकला नजूमी, जिसके झांसे में आकर सबने अपनों को खो दिया

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अभिषेक श्रीवास्तव-

यह एक अजीब सी डरावनी फिल्म है। अनदेखी। इसमें अचानक हुई किसी ध्वनि, किसी रोशनी से नहीं डराया जाता। अचानक कोई हाथ पीठ पर नहीं रख देता कि चीख निकल जाए। या कि आवाज़ हलक में ही अटक जाए। घर में कोई खड़खड़ भड़भड़ भी नहीं सुनायी देती आधी रात को, जो जिज्ञासा पैदा करे। रोज़ की सामान्य चर्या में दहशत यहां परत दर परत निर्मित होती है।

घटनाएं जैसे-जैसे प्याज़ की परतों जैसे खुलती जाती हैं, दहशत किसी विशाल कमरे की छह सिमटती हुई दीवारों के जैसे घेरता जाता है। हर अगला दिन आश्चर्य मिश्रित विस्मय लेकर आता है। मसलन, कोई मर गया! उठते ही खबर लगी। दीवारें और करीब खिसक आयीं, डर थोड़ा और जम गया। भ्रम थोड़ा और बढ़ा, संदेह थोड़ा और गाढ़ा हुआ। दहशत ने खुद को जैसे अद्यतन किया हो। आदमी थोड़ा और अपने खोल में सिमट गया। जैसे जंगल की आग करीब आने पर होता है। जैसे दम घुटने की आशंका में ही दम घुटने लगता है।

जैसे कोई अजनबी बाहरी जीव हमारी बस्ती में घुस आया हो। देखने में जो हाँड़-मांस का लगता हो, लेकिन आश्वस्ति नहीं होती कि वह अपने जैसा मनुष्य ही है। क्या है वो? कौन जाए देखने? परखने? जबकि रोज़ नए घरों में मातम हो रहा हो! घर को देखें, समाज को देखें कि सच को खोजें! ऐसे में सब सच ही बोलते हैं, सब सच ही सुनते हैं। कोई किसी से झूठ क्यों बोलेगा? मैंने देखा, वो मरा हुआ हिरण खा रहा था- एक ने कहा। मैंने देखा, वो सड़े हुए मशरूम खा रहा था- दूसरे ने कहा। हाँ हाँ, उसी से बीमारी फैली है- तीसरे ने कहा। नहीं, उसकी लड़की पागल हो गई थी, उसी ने सबकी हत्या की है- चौथे ने कहा। मेरी बच्ची भी आज सुबह अजीब हरकतें कर रही थी- पांचवें ने कहा। चलो, सब नजूमी के पास चलते हैं, वही बताएगा सच क्या है- छठवें ने कहा।

नजूमी ने बाधा शमन के लिए अनुष्ठान रखा। हत्याएं बदस्तूर जारी रहीं। बच्ची की हालत बिगड़ती गई। कमरे और सिमटे, दहशत दुख में बदलने लगी। जैसे-जैसे आग की लपटें ऊपर उठती जातीं, बच्चे चिल्लाते- बचाओ, कोई रोको इसे! नजूमी चीखा- खबरदार! अजनबी ही शैतान है, उसका खात्मा बस्ती को सारे दुख से निजात दिलाएगा। अनुष्ठान रोका तो और हत्याएँ होंगी। नजूमी झूठ क्यों बोलेगा? वो तो अपना ही आदमी है। अनुष्ठान और तेज हुआ, दुख और बढ़ा। असह्य हो गया, जब दीवारें केंद्र की ओर एक बिन्दु में समाने को दौड़ीं। एक और हत्या! संहार! नहीं!

नायक ने अनुष्ठान रोक दिया। नजूमी गुस्से में चला गया। आधी रात वह चुपके से वापस लौटा। नायक के घर के बाहर पहुंचते ही उसके नाक से खून गिरने लगा। फिर मुंह से भी। फिर खून का फव्वारा सा छूटा उसके भीतर से। सामने से आवाज आयी- तू यहाँ क्या कर रहा है? चला जा! वो डर गया। सामने एक परी थी। नजूमी डर के मारे उलटे पाँव भाग गया। फिर नायक को परी ने बताया, नजूमी और अजनबी मिले हुए हैं। अजनबी शैतान है, नजूमी में उसकी रूह।

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सबने सोचा, मानें या न मानें? ये कौन है भला जो इतना जानती है? लगता है इसी का किया धरा है सब। सब चिल्लाए- नजूमी कहाँ है? नजूमी की आवाज आयी- मत सुनना इसकी, यही असली शैतान है, मुझसे गलती हुई थी जो मैं अजनबी को शैतान मान बैठा। अच्छा! तो ये बात है! परी ने फिर समझाया- मत जाना उधर, अगर अपने परिवार की खैर चाहते हो। किस पर भरोसा करें? कौन सही है, कौन गलत? कौन है जो हमारी जान ले रहा है? किसने लगायी है इस बस्ती में आग? परी की बात उसने नहीं मानी। मौत की आहट से बदहवास वो अपने घर की ओर दौड़ पड़ता है। हू जिन… हू जिन… बेटी का नाम लेकर चिल्लाता है। भीतर पत्नी और माँ की लाश बरामद होती है। क्षत विक्षत। बाहर देहरी पर हू जिन के भीतर बैठी रूह अपने अगले शिकार का इंतजार कर रही है।

शैतान, दूसरे देश का वासी, जंगल में अपने आसन पर बैठा पादरी के समक्ष अपना प्रामाणिक रूप जाहिर करता है। रात के अंधेरे में नजूमी चुपके से आकर मरे हुओं की तस्वीर उतार ले जाता है। गाँव तबाह हो जाता है। न सड़ा हुआ मशरूम था, न उससे उपजी कोई महामारी।

बस्ती में आया अजनबी दरअसल शैतान था, बस मानुष जैसा दिखता था। शैतान को पादरी ने देख लिया था लेकिन बच नहीं सका। शैतान उसे कच्चा खा गया। बस्ती का नजूमी, जिस पर सबको भरोसा था, वो शैतान का एजेंट निकला। लोगों ने परी की बात नहीं मानी, उसे ही शैतान समझ लिया। नजूमी की बात में आकर सबने अपनों को खो दिया।

(अभिषेक श्रीवास्तव जनपक्षधर पत्रकारिता और लेखन की दुनिया में जानी मानी शख्सियत हैं)


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