जानिए क्यों कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा ‘मुस्लिम निकाह’ एक अनुबंध है… जिसके कई अर्थ हैं ?

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द लीडर। विवाह या शादी दो लोगों के बीच एक सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मिलन है जो उन लोगों के बीच, साथ ही उनके और किसी भी परिणामी जैविक या दत्तक बच्चों और समधियों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करता है. विवाह की परिभाषा न केवल संस्कृतियों और धर्मों के बीच, बल्कि किसी भी संस्कृति और धर्म के इतिहास में भी दुनिया भर में बदलती है. विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा या समाजशास्त्रीय संस्था है. यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई- परिवार-का मूल है. यह मानव प्रजाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्री माध्यम भी है. लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट ने मुस्लिम निकाह को एक अनुबंध माना है. जिसके कई अर्थ हैं. इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि, मुस्लिम निकाह हिंदू विवाह की तरह कोई संस्कार नहीं हैं.


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मुस्लिम निकाह एक अनुबंध है- कर्नाटक हाईकोर्ट

बता दें कि, कर्नाटक हाई कोर्ट ने कहा है कि, मुस्लिम निकाह एक अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) है, जिसके कई अर्थ हैं, यह हिंदू विवाह की तरह कोई संस्कार नहीं और इसके विघटन से उत्पन्न कुछ अधिकारों और दायित्वों से पीछे नहीं हटा जा सकता. यह मामला बेंगलुरु के भुवनेश्वरी नगर में एजाजुर रहमान की एक याचिका से संबंधित है, जिसमें 12 अगस्त, 2011 को बेंगलुरु में एक फैमलि कोर्ट के प्रथम अतिरिक्त प्रिंसिपल न्यायाधीश का आदेश रद्द करने का अनुरोध किया गया था. रहमान ने अपनी पत्नी सायरा बानो को पांच हजार रुपए के ‘मेहर’ के साथ विवाह करने के कुछ महीने बाद ही तलाक शब्द कहकर 25 नवंबर, 1991 को तलाक दे दिया था.

हिंदू विवाह की तरह एक संस्कार नहीं है मुस्लिम निकाह- कोर्ट

इस तलाक के बाद रहमान ने दूसरी शादी की, जिससे वह एक बच्चे का पिता बन गया. बानो ने इसके बाद गुजारा भत्ता लेने के लिए 24 अगस्त, 2002 में एक दीवानी मुकदमा दाखिल किया था. फैमली कोर्ट ने आदेश दिया था कि वादी वाद की तारीख से अपनी मृत्यु तक या अपना पुनर्विवाह होने तक या प्रतिवादी की मृत्यु तक 3,000 रुपये की दर से मासिक गुजारा भत्ते की हकदार है. न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित ने 25,000 रुपए के जुर्माने के साथ याचिका खारिज करते हुए सात अक्टूबर को अपने आदेश में कहा कि, निकाह एक अनुबंध है जिसके कई अर्थ हैं, यह हिंदू विवाह की तरह एक संस्कार नहीं है. यह बात सत्य है. न्यायमूर्ति दीक्षित ने विस्तार से कहा कि मुस्लिम निकाह कोई संस्कार नहीं है और यह इसके समाप्त होने के बाद पैदा हुए कुछ दायित्वों और अधिकारों से भाग नहीं सकता.


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पीठ ने कहा कि, तलाक के जरिए विवाह बंधन टूट जाने के बाद भी दरअसल पक्षकारों के सभी दायित्वों एवं कर्तव्य पूरी तरह समाप्त नहीं होते हैं. उसने कहा कि, मुसलमानों में एक अनुबंध के साथ निकाह होता है और यह अंतत: वह स्थिति प्राप्त कर लेता है, जो आमतौर पर अन्य समुदायों में होती है. कोर्ट ने कहा, यही स्थिति कुछ न्यायोचित दायित्वों को जन्म देती है. वे अनुबंध से पैदा हुए दायित्व हैं. कोर्ट ने कहा कि, कानून के तहत नए दायित्व भी उत्पन्न हो सकते हैं. उनमें से एक दायित्व व्यक्ति का अपनी पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता देने का परिस्थितिजन्य कर्तव्य है जो तलाक के कारण अपना भरण-पोषण करने में अक्षम हो गई है.

कुरान में सूरह अल बकरा के छंदों का दिया हवाला

कोर्ट ने कहा कि, यही स्थिति कुछ न्यायसंगत दायित्वों को जन्म देती है, वे पूर्व अनुबंध हैं. कानून में नए दायित्व भी उत्पन्न हो सकते हैं, उनमें से एक व्यक्ति की अपनी पूर्व पत्नी को जीविका प्रदान करने के लिए परिस्थितिजन्य कर्तव्य है जो तलाक से निराश्रित है. कुरान में सूरह अल बकरा के छंदों का हवाला देते हुए, न्यायमूर्ति दीक्षित ने कहा कि एक पवित्र मुस्लिम अपनी बेसहारा पूर्व पत्नी को निर्वाह प्रदान करने के लिए एक नैतिक और धार्मिक कर्तव्य का पालन करता है. कोर्ट ने कहा कि एक मुस्लिम पूर्व पत्नी को कुछ शर्तों को पूरा करने के अधीन भरण-पोषण का अधिकार है, यह निर्विवाद है.


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