इस्लाम बराबरी के हक़ का क़ायल है, इसमें कोई छोटा-बड़ा या काला, गोरा नहीं

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Islam Believer Equal Rights

अज़हान वारसी


इस्लाम बराबरी के हक़ का क़ायल है, इस्लाम में कोई छोटा बड़ा, काला, गोरा, अमीर, ग़रीब नहीं होता. बल्कि इस्लाम तो इस तरह के भेदभाव के ख़िलाफ़ है. और ये क़ुरआन की रौशनी में साबित है. क़ुरआन शरीफ़ सूरह नंबर 28 आयत नंबर 4 है. (Islam Believer Equal Rights)

“बेशक़ फ़िरऔन ने ज़मीन मे ग़लबा पाया था और उसके लोगों को (यानी ज़मीन के लोगों को ) अपना ताबे’ (ग़ुलाम ) बना लिया. और उनमें एक गिरोह को कमज़ोर देखता उनके बेटों को ज़िबह (क़त्ल) करता. उनकी औरतों को ज़िंदा रखता, बेशक़ वो फ़सादी था ”

इसका मतलब ये है कि उसने ज़मीन में सर उठाया, बाग़ियाना रवैया अपनाया. अपनी अस्ल हैसियत यानी बंदगी के मक़ाम से उठकर ख़ुदमुख़्तारी, ज़ालिम और घमंडी बनकर ज़ुल्म ढाने लगा.

यानी उसकी हुकूमत का क़ायदा ये न था कि क़ानून की निगाह में देश के सब रहने वाले बराबर हों और सबको बराबरी के हक़ दिए जाएं. बल्कि उसने रहन-सहन और सियासत का ये तरीक़ा अपनाया कि देशवासियों को गरोहों में बांट दिया जाए. किसी को रिआयतें और ख़ास अधिकार देकर हुक्मरां गरोह ठहराया जाए और किसी को ग़ुलाम बनाकर दबाया, पीसा और लूटा जाए. (Islam Believer Equal Rights)


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यहां किसी को ये शक न हो कि इस्लामी हुकूमत भी तो मुस्लिम और ज़िम्मी (इस्लामी राज्य में गैर मुस्लिम नागरिक) के बीच फ़र्क़ करती है. और उनके हक़ और अधिकार हर हैसियत से एक समान नहीं रखती.

ये शक इसलिये ग़लत है कि इस फ़र्क़ की बुनियाद फ़िरऔनी फ़र्क़ के बरख़िलाफ़ नस्ल, रंग, ज़बान या तबक़ाती फ़र्क़ पर नहीं है. बल्कि उसूल और मसलक के फ़र्क़ पर है.

इस्लामी निज़ामे-हुकूमत (शासन-व्यवस्था) में ज़िम्मियों और मुसलमानों के बीच क़ानूनी हुक़ूक़ में बिलकुल भी फ़र्क़ नहीं है. सारा फ़र्क़ सिर्फ़ सियासी अधिकारों में है और इस फ़र्क़ की वजह इसके सिवा कुछ नहीं कि एक उसूली हुकूमत में हुक्मरां जमाअत सिर्फ़ वही हो सकती है, जो हुकूमत के बुनियादी उसूलों की हामी हो. (Islam Believer Equal Rights)

इस जमाअत में हर वो शख़्स दाख़िल हो सकता है जो इसके उसूलों को मान ले और हर वो शख़्स इससे बाहर हो जाता है जो उन उसूलों को मानने से इंकार कर दे.

आसान अलफ़ाज़ मे बात करें तो बस ये समझ लें, कि फ़िरऔन-ज़ालिम बादशाह था. वो अपनी आवाम मे फ़र्क़ करता था. सारे अच्छे मक़ाम पर बस उन्हीं लोगों को रखता था जो उस के अज़ीज़ थे. और उसने अपनी ही हुक़ूमत मे गिरोह बना दिए थे. जिसमें वो भेदभाव करता था. और अल्लाह इन चीज़ो को पसंद नहीं करता. इसलिए अल्लाह ने क़ुरआन मे फ़रमा दिया के बेशक वो फ़सादी था.

इससे ये बात साफ़ हो जाती है कि भेदभाव इस्लाम में नहीं है, बल्कि इस्लाम में तो ये सब मना है. और ऐसा करने वाला सख़्त गुनहगार होगा. (Islam Believer Equal Rights)

(लेखक अज़हान वारसी साहित्यकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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