फैज आज होते तो फिर पूछते, ‘लेखको, तुम कहां खड़े हो?’

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Faiz Today Ask Writers Stand

सामाजिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता के मामले में फैज अहमद फैज बहुत स्पष्ट थे। उनका मानना ​​था कि हर कलाकार में यह होना चाहिए। अपने निबंध ”लेखको, तुम कहां खड़े हो?’’ में उन्होंने समाज में एक लेखक की भूमिका को स्पष्ट किया।

उन्होंने कहा, ”लेखक या साहित्यकार को एक मार्गदर्शक, दार्शनिक और मित्र के रूप में अज्ञानता, अंधविश्वासों और अनुचित पूर्वाग्रहों के अंधेरे से लोगों को निकालना चाहिए। ज्ञान और तर्क की रोशनी से अत्याचार के खिलाफ स्वतंत्रता के रास्ते ले जाना चाहिए।”


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ये भी कहा, ”जो लोग कला को ऊंची बोली लगाने वाले को बेची जाने वाली चीज के रूप में रखते हैं, उनको समझना चाहिए कि कला न तो मालिक है और न ही गुलाम, बल्कि मानव जाति का सबसे सहज मार्गदर्शक है।”

बेशक, कला कलाकार की आवाज और विवेक है, लेकिन यह पूरे इतिहास में सभी लोगों की आवाज, एक सामूहिक आवाज की सबसे गहरी अभिव्यक्ति भी है। अपने सबसे उज्ज्वल रूप में कला भ्रम और पूर्वाग्रहों को नष्ट करता है और उच्चतम आदर्शों का पोषण करता है।

”मेरा ख्याल है, सभी साहित्यारों, लेखकों, कवियों, शायरों, कलाकारों का उद्देश्य होना चाहिए, खासतौर पर उनका, जो अपने जैसे इंसानों को सदियों के बंधन से मुक्त करने का प्रयास कर रहे हैं।”

फैज़ अहमद फैज़ पर नज्मों में कामकाजी लोगों की चिंताओं से जोड़कर लिखने का हास्यास्पद आरोप लगता है, जो असल में उस विचार को दिखाता है, जिसका मानना है कि कला की अहमियत खास हलकाें में होती है और वहीं उसे होना चाहिए। अचेत आम जनता में इसकी कोई दिलचस्पी नहीं है और उनकी कोई समझ नहीं है। कला को सिर्फ कला होना चाहिए।

यह इस विचार के खिलाफ है कि कला, ‘उच्च सत्य’ (प्लेटो के अनुसार) या ‘तर्कसंगत विज्ञान’ (हेगेल के अनुसार) के उलट हमेशा ज्ञान हासिल करने का जरिया है।

शायद इसी सोच के चलते फैज़ ने 1965 के युद्ध के दौरान पाकिस्तान सरकार के समर्थन में देशभक्ति गीत लिखने से इनकार कर दिया।


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‘इस वक़्त तो यूं लगता है कि अब कुछ भी नहीं है

महताब, न सूरज, न अंधेरा, न सवेरा

आंखों के दरीचों पे किसी हुस्न की चिलमन

और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा ‘

1982 में दिल का दौरा पड़ने के बाद लाहौर के मेयो अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान ‘एक बेख्वाब रात की वारदात’ नाम से इस नज्म लिखने वाले वाले फैज हमेशा अपने विचारों अडिग होकर साहित्य से बदलाव की कोशिश में जुटे रहे।


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उनका जन्म 13 फरवरी को लाहौर के पास सियालकोट शहर में हुआ था। उनके पिता एक बैरिस्टर थे और उनका परिवार एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, अरबी तथा फ़ारसी में हुई जिसमें क़ुरआन को कंठस्थ करना भी शामिल था।

उसके बाद उन्होंने स्कॉटिश मिशन स्कूल तथा लाहौर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की। कामकाजी जीवन की शुरुआत में वो एमएओ कालेज अमृतसर में लेक्चरर बने। उसके बाद मार्क्सवादी विचारधारा से बहुत प्रभावित हुए।


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