#HabibTanvir: हबीब तनवीर: रंगमंच की दुनिया के लीजेंड

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प्रख्यात नाटककार, निर्देशक, पटकथा-लेखक, गीतकार और शायर। इतनी खूबियां। वह भी अलीगढ़ कॉलेज के उस प्रतिभाशाली छात्र में, जिसने अपना कॅरियर पत्रकारिता से शुरू किया। ये थे रंगमंच की दुनिया के लीजेंड हबीब तनवीर। जिनका असली नाम हबीब अहमद खान। रायपुर, जो आज छत्तीसगढ़ की राजधानी है, वहां एक सितंबर 1932 को पैदा हुए और लोककला को निखाने का महाअभियान चलाकर आठ जून 2009 को चल बसे। आल इंडिया रेडियो से भी जुड़े रहे, जिसकी एआईआर नाम से शुरुआत कभी आठ जून को ही हुई।

हबीब तनवीर ने लॉरी म्युनिसिपल हाईस्कूल से मैट्रिक पास की, म़ॉरीस कॉलेज, नागपुर से स्नातक किया (1944) और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमए किया। बचपन से ही कविता लिखने का शौक चढ़ा तो तनवीर के छद्मनाम नाम से लिखने लगे, जो बाद में उनके नाम से जुड़ गया। उन्होंने इंग्लैंड में ड्रामा का तकनीकी प्रशिक्षण लिया।

आगरा बाज़ार और चरण दास चोर उनके मशहूर नाटक हैं। आगरा बाजार में नज़ीर अकबराबादी की शायरी, उनके व्यक्तित्व और उनके युग को प्रस्तुत किया गया है। इसमें प्रशिक्षित कलाकारों के बजाय सड़कों और गलियों में संगीत वाद्ययंत्र और तमाशा दिखाने वालों ने अपनी कला के जौहर दिखाए हैं। कहते हैं ये ड्रामा इसलिए भी यादगार है कि इसमें नया थिएटर के कलाकारों ने अपनी स्थानीय भाषा यानी छत्तीसगढ़ी में संवाद अदा किए थे।

उन्होंने अपनी पत्नी मोनिका मिश्रा के साथ ‘नया थिएटर ‘के नाम से एक थिएटर कंपनी की स्थापना की थी। गांधी, ब्लैक एंड व्हाइट और मंगल पांडे सहित हबीब ने नौ फिल्मों में अभिनय किया। राज्यसभा के सदस्य भी बनाए गए। चरण दास चोर हबीब का सबसे लोकप्रिय नाटक था। ये ड्रामा तीन दशकों तक भारत और यूरोप में स्टेज किया गया।

50 वर्षों की लंबी रंग यात्रा में हबीब तनवीर ने 100 से अधिक नाटकों का मंचन किया व पटकथाएं लिखीं। उनका कला जीवन बहुआयामी था। वे जितने अच्छे अभिनेता, निर्देशक व नाट्य लेखक थे उतने ही श्रेष्ठ गीतकार, कवि, गायक व संगीतकार भी थे। फ़िल्मों व नाटकों की बहुत अच्छी समीक्षाएं भी कीं।

उनकी नाट्य प्रस्तुतियों में लोकगीतों, लोक धुनों, लोक संगीत व नृत्य का खूबसूरत जोड़ मिलता है। उन्होंने कई वर्षों तक देश भर ग्रामीण अंचलों में घूम-घूमकर लोक संस्कृति व लोक नाट्य शैलियों का गहन अध्ययन किया और लोक गीतों का संकलन भी किया।

मुंबई में तनवीर प्रगतिशील लेखक संघ और बाद में इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़े। ब्रिटिशकाल में जब इप्टा से जुड़े तब अधिकांश वरिष्ठ रंगकर्मी जेल में थे। उनसे इस संस्थान को संभालने के लिए भी कहा गया था। 1954 में उन्होंने दिल्ली का रुख किया और वहां कुदेसिया जैदी के हिंदुस्तान थिएटर के साथ काम किया। इसी दौरान उन्होंने बच्चों के लिए भी कुछ नाटक किए।

छठवें दशक की शुरुआत में नई दिल्ली में हबीब तनवीर की नाट्य संस्था ‘नया थियेटर’ और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना लगभग एक समय ही हुई। कहा जाता है कि देश के सर्वश्रेष्ठ नाट्य संस्था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पास आज जितने अच्छे लोकप्रिय व मधुर गीतों का संकलन है उससे कहीं ज्यादा संकलन ‘नया थियेटर’ के पास मौजूद हैं। एच.एम.वी. जैसी बड़ी संगीत कंपनियों ने हबीब तनवीर के नाटकों के गीतों के कई आडियो कैसेट भी तैयार किए जो बहुत लोकप्रिय हुए।

दरअसल, आजादी से पहले हिन्दी रंगकर्म पर पारसी थियेटर की पारंपरिक शैली का गहरा असर था। हिंदुस्तान के नगरों और महानगरों में पाश्चात्य रंग ढंग के हिसाब से नाटक खेले जाते थे। आजादी के बाद भी अंग्रेजी और दूसरे यूरोपीय भाषाओं के अनुदित नाटक और पाश्चात्य शैली हिंदी रंगकर्म को जकड़े हुए थी। उच्च और मध्य वर्ग के अभिजात्यपन ने पाश्चात्य प्रभावित रुढ़ियों से हिंदी रंगमंच के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर रखा था और हिंदी का समकालीन रंगमंच नाट्य प्रेमियों को मायूस करता था।

1955 में हबीब इंग्लैंड में चले गए। वहां उन्होंने रॉयल अकादमी ऑफ नाटक कला (राडा) में अभिनय और निर्देशन में काम किया। अगले दो साल उन्होंने यूरोप के थियेटर को समझने के लिए सफर किया। आठ महीने बर्लिन में 1956 में रहे, जिसके दौरान उन्हें बर्टोल्ट ब्रेख्त के कई नाटकों को देखा और समझा, जो ब्रेख्त की मौत के कुछ महीने बाद आया था।

इसके बाद उन्होंने अपने नाटकों में स्थानीय मुहावरों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, ताकि सांस्कृतिक कहानियों और विचारधाराओं को व्यक्त किया जा सके। शैली, प्रस्तुति और तकनीक में एकदम सरलता से चिह्नित किया।

हबीब 1958 में भारत लौट आए और पूर्णकालिक निर्देशन करने लगे।

हबीब तनवीर को संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड (1969), पद्मश्री अवार्ड (1983) संगीत नाटक एकादमी फेलोशीप (1996), पद्म विभूषण(2002) जैसे सम्मान मिले। वे 1972 से 1978 तक संसद की राज्यसभा के सदस्य भी रहे। उनका नाटक चरणदास चोर एडिनवर्ग इंटरनेशनल ड्रामा फेस्टीवल (1982) में पुरस्कृत होने वाला पहला भारतीय नाटक था।


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