#GuruPurnima: वह दिन, जब 2500 साल पहले बुद्ध ने पांच भिक्षुओं को पहला उपदेश दिया, जानिए क्या हैं चार आर्य सत्य

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आज गुरु पूर्णिमा है और बौद्ध, हिंदू और जैन इस दिन को अपनी आस्थाओं के अनुसार इस दिन की महिमा बताते हैं। दरअसल, आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन यानी आज ही तथागत बुद्ध ने सारनाथ में पांच भिक्षुओं को का पहला धम्म उपदेश दिया था। उन पहले शिष्यों को चार आर्य सत्य बताए, जो उन्होंने सत्य की खोज में लंबी यात्रा से समझे। इस दिन को बौद्ध अनुयायी ‘संघ दिवस’ भी कहते हैं। बुद्ध ने उपदेश में जिन चार आर्य सत्यों के बारे में बताया था, वे आज तक प्रासंगिक हैं।

पहला आर्य सत्य- दुख

पहला सत्य यह है कि सामान्य तौर पर जीवन असंतोषजनक है। जन्म से लेकर मृत्यु तक सुख के बहुत से क्षण होते हैं, वे कभी स्थायी नहीं होते, और जीवन में बहुत सी अप्रिय घटनाएं भी होती हैं:

दुख – बीमारी, निराशा, अकेलापन, चिंता और असंतोष जैसे सभी दुखों को आसानी से पहचाना और समझा जा सकता है। अक्सर इसका संबंध हमारे आसपास के माहौल से भी नहीं होता है – हो सकता है कि हम अपने सबसे घनिष्ठ मित्र के साथ हों और अपना पसंदीदा भोजन कर रहे हों, फिर भी हम दुखी हो सकते हैं।

क्षणिक सुख – हम किसी भी चीज़ का सुख ले रहे हों, यह सुख कभी स्थायी या संतोष प्रदान करने वाला नहीं होता है, और कुछ ही समय में यह सुख दुख में बदल जाता है। जब हमें ठिठुराने वाली सर्दी महसूस हो रही हो तो हम उससे बचने के लिए किसी गर्माहट वाले कमरे में जा सकते हैं, लेकिन वह गर्मी भी कुछ देर के बाद असहनीय हो जाती है, और एक बार फिर हम ताज़ा हवा को तलाश करने लगते हैं। कितना अच्छा होता कि यह सुख सदा के लिए कायम रहता, लेकिन समस्या यह है कि ऐसा कभी होता नहीं है।

बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्याएं – सबसे खराब बात यह है कि जीवन के उतार-चढ़ावों का सामना करने के लिए जिन तरीकों का प्रयोग करते हैं, उनसे और अधिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति के साथ हमारा संबंध खराब हो तो जिस प्रकार से हम उस व्यक्ति के साथ बर्ताव करते हैं उससे हमारा संबंध और ज़्यादा बिगड़ता है। हम उस संबंध को तोड़ लेते हैं, लेकिन चूंकि उस व्यक्ति ने हमारी बुरी आदतों को और बढ़ावा दिया है, इसलिए अगले संबंध में भी हम उसी व्यवहार को दोहराते हैं। परिणामतः वह संबंध भी बिगड़ जाता है।

दूसरा आर्य सत्य: दुख का कारण

हमारा दुख और क्षणिक सुख अकारण ही उत्पन्न नहीं होते हैं, बल्कि अनेक प्रकार के कारणों और परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं। हमारे आसपास के समाज जैसे बाहरी तत्व हमारे दुख की उत्पत्ति की स्थितियों का निर्माण करते हैं; लेकिन बुद्ध ने हमें सिखाया कि दुख के वास्तविक कारण को हमें अपने चित्त में तलाश करना चाहिए। घृणा, ईर्ष्या, लोभ आदि जैसे हमारे अपने अशांतकारी मनोभाव हमें मन, वचन और कर्म से आवश्यक रूप से आत्मनाशकारी ढंग से व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं।

बुद्ध ने इससे भी अधिक गहराई में चिंतन करके इन मनोभावों के पीछे छिपे दुख के वास्तविक कारण, वास्तविकता के बारे में हमारे मिथ्या बोध को उजागर किया। इसका संबंध हमारे व्यवहार के दीर्घगामी प्रभावों के बारे में चेतनता का अभाव, भ्रम और हमारे अपने, दूसरों के और समस्त सृष्टि के अस्तित्व के बारे में व्यापक गलत धारणा से है। सभी के बीच के अंतर्संबंध को देखने-समझने के बजाए हम यह समझने लगते हैं कि सभी का अस्तित्व स्वतंत्र है और कोई बाहरी तत्व उन्हें एक-दूसरे से नहीं जोड़ते हैं।

तीसरा आर्य सत्य: दुख का रोधन

बुद्ध ने कहा कि हमें इसे सहते रहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यदि हम दुख के कारण को ही नष्ट कर दें, तो उसका परिणाम उत्पन्न नहीं होगा। यदि हम यथार्थ के बारे में अपने भ्रम को समाप्त कर दें तो दुख की फिर कभी नहीं लौटेगा। बुद्ध हमारी किन्हीं एक-दो समस्या की बात नहीं कर रहे थे – उन्होंने कहा कि हम नई समस्याओं की उत्पत्ति को ही पूरी तरह से समाप्त कर सकेंगे।

चौथा आर्य सत्य: चित्त का मार्ग

अपने भोलेपन और अनभिज्ञता से मुक्ति के लिए हमें इनका प्रतिरोध करने वाले भावों के बारे में विचार करना होगा। तात्कालिक सुख प्राप्त करने के लिए छलांग लगाने के बजाए लंबी अवधि के लिए योजना तैयार करें। जीवन के किसी एक छोटे से पहलू पर केंद्रित रहने के बजाए उसके व्यापक परिदृश्य को देखें।

आज सुविधाजनक दिखाई देने वाले काम को करने के बजाए यह विचार करें कि हमारे कृत्यों का हमारे शेष जीवन और आने वाली पीढ़ियों पर क्या प्रभाव होगा।

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कभी-कभी जब जीवन की विफलताओं से हमारा सामना होता है तो हमें ऐसा लगता है कि इससे उबरने का एकमात्र हल यही है कि हम अपने आपको शराब के नशे में या गले तक जंक फूड भर कर अपने ध्यान को बंटा दें, और हम उसके दूरगामी परिणामों के बारे में नहीं सोचते हैं। यदि हम इन चीज़ों के आदी हो जाएं तो इसके हमारे स्वास्थ्य पर गंभीर परिणाम होते हैं जिनके कारण हमारा जीवन तो खतरे में पड़ता ही है, हमारे परिवार के लिए भी दुखद परिणाम हो सकते हैं। इस व्यवहार के पीछे मूल विचार यह होता है कि हमारे आचरण के परिणाम हमसे पूरी तरह अलग हैं। हमारे इस भ्रम का सबसे प्रभावी ढंग से प्रतिरोध इस प्रकार किया जा सकता है-

हमें इस बात को समझना चाहिए कि समस्त मानवजाति और इस ग्रह से हमारा गहरा संबंध है, और यह कि अपने अस्तित्व को लेकर हमारी कल्पनाएं यथार्थ से मेल नहीं खाती हैं। यदि हम निरंतर ध्यान साधना करके इस प्रकार सोचने का अभ्यास कर लें तो अंततः हम अपने उस भ्रम को दूर कर सकेंगे जो हमारी कोरी कल्पनाओं को बढ़ावा देता है।

हम सभी सुख चाहते हैं लेकिन सुख किसी न किसी कारण से हमारी पहुंच से बाहर बना रहता है। सुख की प्राप्ति के लिए बुद्ध द्वारा सुझाया गया मार्ग – ऊपर बताए गए चार आर्य सत्यों में जिसकी रूपरेखा प्रस्तुत की गई है – सार्वभौमिक है और बुद्ध द्वारा 2500 वर्ष पूर्व पहली बार सिखाए जाने से लेकर आज तक प्रासंगिक है।

इन चार आर्य सत्यों का उपयोग करते हुए अपनी दिन-प्रतिदिन की समस्याओं के समाधान का लाभ पाने के लिए बौद्ध बनना आवश्यक नहीं है। यह नामुमकिन है कि हर समय सब कुछ हमारी इच्छा के मुताबिक ही होता रहेगा, लेकिन मायूस और निराश और हताश होने की भी कोई वजह नहीं है। वास्तविक सुख को हासिल करने और अपने जीवन को सचमुच सार्थक बनाने के लिए हमें जो कुछ भी चाहिए, वह सब इन चार आर्य सत्यों में उपलब्ध है।

सीधी और सरल बात यही है कि हमें दुख के यथार्थ रूप को पहचानना होगा, दुख के यथार्थ कारणों से स्वयं को मुक्त करना होगा, दुख से सही रूप में छुटकारा पाना होगा, और चित्त के यथार्थ मार्ग का पालन करना होगा।

Source: StudyBuddha


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