सड़क से लेकर हैशटैग आंदोलन तक: संकट कहां है

0
683

रिज़वान रहमान

क्या सड़क अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है? हवा में लहराते परचम, गगन को उठने वाले नारे भूतकाल की घटना है? या यह दौर सड़क से लेकर सोशल मीडिया का है? आसमान की ओर उठते बुलंद आवाज़ के साथ ही साथ वायरल कंटेंट का है? घिसते चप्पल और फेसबुक लाइव का है? ट्वीटर पर ट्रेंड करते हैशटैग का है? या यह कहना उचित है कि ट्वीटर और फेसबुक सड़क की राजनीति को प्रभावहीन बना रहा है? विरोध का ‘खामोश खाना’ पुराने तरीकों को विस्थापित कर रहा है?

राजनीतिक योद्धाओं ने चश्मा बदल लिया है. राजनीति और राजनीतिक लड़ाई के लिए पुख्ता जमीन की अनिवार्यता पुरातन युग की घटना प्रतीत हो रही. सत्ताधारी से लेकर खाते-पीते लोग हों या फिर हाशिए के लोग, सब जमीन से ट्वीटर की तरफ भागे जा रहे हैं. लग रहा, 21वीं सदी में संघर्ष और न्याय, अलादीन के इसी जादुई चिराग से संभव है.

अगर ऐसा है तो प्रश्न उठता है, इसकी असीम ताकत के बाद भी आंदोलन असफल क्यों हो रहे? लीडरशीप की तस्वीर धुंधली क्यों पड़ती जा रही? कहीं इसकी वजह, सड़क का सिकुड़कर अथाह आभासी सागर में डूबते नाव के शहतीर की सी स्थिति में चले जाना तो नहीं?

इस संदर्भ में विश्लेषक संदेह प्रकट करते हैं. उनका कहना है कि 2014 के बाद से सोशल मीडिया एकमात्र जनता का माध्यम नहीं रह गया है. सरकार और पूंजीवादी ताकतें इसके इस्तेमाल में कहीं आगे हैं.

ये भी पढ़ें – पत्रकारिता का यह दौर बहुत ही झूठा, बनावटी, लफ़्फ़ाज़ और बड़बोला है

‘ट्वीटर एंड टीयर गैस: द पॉवर एंड फ्रैगिलिटी ऑफ नेटवर्क्ड प्रोटेस्ट’ (Twitter and Tear gas: The power and fragility of networked protest) किताब की लेखिका, पेशे से समाजशास्त्री और दुनियाभर में चले आंदोलन को नजदीक से देख चुकीं टुफेकसी (Zeynep Tufekci) कहती हैं, “यह मानना कि इंटरनेट की दुनिया में खड़ा हुआ आंदोलन वाजिब बदलाव ला सकता है, एक भूल होगी. बल्कि यह आंदोलन के लिए लाभकारी होने के बजाय क्षति पहुंचाने वाला हो सकता है.

साठ के दशक में हुए वाशिंगटन सिविल राइट्स मार्च के सफल होने और नई सदी के आक्यूपाई वॉल स्ट्रीट के उखड़ जाने के पीछे का सार भी यही है. दरअसल, सोशल मीडिया पर सरकार और उनकी सहायक एजेंसी की मौजूदगी आम जनता से कहीं अधिक विशालकाय है. सरकारें इसका उपयोग सेंसरशिप, निगरानी और नागरिकों के बीच भ्रामक जानकारी फैलाने के लिए करती हैं. अमेरिका से लेकर तीसरी दुनिया का हाल एक ही है.”

हालांकि, लेखिका इंकार नहीं करती कि मैक्सिको के जापातिस्ता आंदोलन से लेकर अरब क्रांति में सोशल मीडिया की अहम भूमिका रही है. इसके बावजूद कि समंदर में फैले बुलबुले की तरह फैले ट्वीट के बीच छोटा सा तबका ही दिखाई देता है जिसे ‘एक्टिव यूजर’ की संज्ञा दी जा सके.

2019 में प्यू रिसर्च सेंटर की एक स्टडी में पाया गया कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी महज 22 फीसदी लोग ही ट्वीटर पर हैं और 80 फीसदी ट्वीट सिर्फ 20 फीसदी लोगों द्वारा किए जाते हैं. इसका मतलब है कि इस मंच पर अधिकतर गतिविधि सिकुड़ी हुई आबादी के द्वारा घटित होती हैं.

ये भी पढ़ें – काकोरी केस का वो शहीद, जिसकी जवानी पाप करते गुजरी थी

विरोधाभास की धुंध में भटकते विचार

दिल्ली में सर्दी रोज-ब-रोज बेदर्द होती जा रही लेकिन आंदोलनरत किसान के हौसले बुलंदी पर हैं. दिल्ली की सरहद पर वे सर्द आसमान के नीचे इस उम्मीद में जमे हैं कि सरकार को उनकी मांग के आगे झुकना ही होगा, तो दूसरी तरफ सड़क को आबाद रखने वाले किसानों के विरोध और स्वर में सोशल मीडिया, खासकर ट्वीटर ‘जंग का मैदान’ बन चुका है.

ऐसा महसूस कर सकते हैं, जैसे सरकार और नागरिक नेपथ्य में हैं और युग अपने असल रूप में आरोप-प्रत्यारोप का है. हाल ये है कि सड़क के बरअक्स हैशटैग की तलवारें खनक रही हैं. स्क्रीन पर बैठा दिमाग भीड़ को कंट्रोल करने की क्षमता से लैस है. मुख्यधारा की मीडिया का बड़ा हिस्सा मन मुताबिक फिल्टर लगा लगाए है. वे किसानों को जो चाहे साबित करने का कारोबार करते दिखाई दे रहे हैं।

सियासी आईटी सेल की प्रयोगशालाओं से इतने जहरीले गैस का रिसाव हो रहा कि आबादी की आबादी मरणासन्न हो जाए. विचारों की नग्नता ही एकमात्र ऐसा आभूषण मुहैया है, जिसकी चमक की दीवानगी है. विरोधाभास की धुंध इतनी गहरी है कि कोई चलता फिरता व्यक्ति सच से दूर छिंटक जाए.

ऐसे में किसान समर्थक, राजनीतिक कार्यकर्ता के पास कमोबेश वैकल्पिक मीडिया ही रह जाता है. उनपर एक तरफ तो राजनीतिक लड़ाई का जिम्मा है तो दूसरी तरफ अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने का दारोमदार भी. इसलिए एक हद तक, ट्वीटर संकुचित ही सही, लेकिन लोकतांत्रिक बात कहने को सीमित जगह तो देता ही है, जहां विरोध के स्वर को भी जगह मिल जाती है.

ये भी पढ़ें – मुझे नागरिकता-कागज़ात की जरूरत नहीं है : चार्ली चैपलिन

13 साल के ट्वीटर ने दी स्थापित मीडिया को चुनौती

इस धरती पर ट्विटर को अवतरित हुए तेरह साल हुए हैं. इन वर्षों में ही इस मंच से जनता केंद्रित अनगिनत कैंपेन ने आकार लिया, स्थापित मीडिया को चुनौती मिली. यही वजह है कि एक दौर में हाशिए के मुद्दों पर अखबार-टेलीवीजन में जगह नहीं दी जाती थी, लेकिन अब वे जगह देने को मजबूर होते दिखाई पड़ते हैं.

ट्वीटर मुद्दों की वकालत करने, लोगों को जुटाने और जनता के बीच पहुंचने का बड़ा माध्यम बन चुका है. यह हाशिए के समुदाय या समूहों के लिए एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म है, जहां वे अपनी बात रख सकते हैं, प्रतिरूप गढ़ सकते हैं, दुष्प्रचार का जवाब दे सकते हैं. किसान आंदोलन से पहले पिछले साल, लगभग इन्हीं दिनों में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन हुए। सोशल मीडिया ने जिस हद तक आंदोलन को लाभ पहुंचाया, उससे कहीं अधिक नुकसानदेह भी रहा.

ट्वीटर एक्टिविज्म की खामियाें का दायरा विस्तृत है. #OccupyWallStreet , #ArabSpring , #BlackLivesMatter , #YesAwWomen और #MeToo जैसे हैशटैग न जीत हैं न हार। अरब स्प्रिंग एक तरह से प्लॉप हो गया और ब्लैक्स पर बर्बर रवैये का सिलसिला बढ़त लिए बरकरार है. हालांकि मी टू ने कुछ हद तक सफलता पाई और हाई-प्रोफाइल शख्सियतों का स्याह सच सामने आया.

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here