मुझे नागरिकता-कागज़ात की जरूरत नहीं है : चार्ली चैपलिन

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Charlie Chaplin Memorial Day
-मनीष आज़ाद
चार्ली चैपलिन (16 अप्रैल 1889 – 25 दिसम्बर 1977) 

सत्ता और ताक़त का माखौल उड़ाने वाला कलाकार

हिटलर, मित्र सेनाओं या समाजवादी सोवियत संघ से हारने से पहले एक कलाकार से बुरी तरह हार चुका था. वह कलाकार था ‘सर चार्ल्स स्पेंसर चार्ली’ यानी चार्ली चैपलिन. 1940 में चार्ली चैपलिन ने हिटलर पर अपनी मशहूर फिल्म ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ बनायी. यह उनकी पहली बोलती फिल्म भी थी. इस फिल्म में उन्होंने दुनिया के सबसे ताकतवर तानाशाह को जिस तरह से चित्रित किया उससे फासीवाद से सताए और फासीवाद से नफ़रत करने वाले लोगों को एक तरह का ‘रिलीफ’ मिला. इस फिल्म को कई देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया था. कहते हैं कि हिटलर ने अकेले में इस फिल्म को कई बार देखा लेकिन कभी हंस नहीं पाया और हार गया. तानाशाहों में हास्यबोध कहाँ होता है. आज भी हम अपने समय के तानाशाहों का अक्स इस फिल्म में देख सकते है. (Charlie Chaplin Memorial Day)

चार्ली चैपलिन ने अपनी फिल्मों से कॉमेडी को एक नई ऊंचाई दी. उनका ट्रैम्प (Tramp) चरित्र उस भूखे, बेरोजगार आम आदमी का चरित्र था जो अपनी त्रासदी को कॉमेडी में बदलने में माहिर था. त्रासदी को कॉमेडी में बदलना आसान काम नहीं है. यह एक निर्मम युद्ध है. यह युद्ध वही लड़ सकता है जिसने पूंजीवादी नियति को अस्वीकार कर दिया हो. याद कीजिये चार्ली चैपलिन की पहली फिल्म ‘द किड’. एक लावारिस बच्चे की सरपरस्ती के लिए बच्चे और चार्ली चैपलिन की राज्य की एजेंसी से युद्ध. जहां क्षण-क्षण कॉमेडी त्रासदी में बदलती है और त्रासदी कॉमेडी में. यह क्रूर पूंजीवादी नियमों-कानूनों पर मासूमियत की जीत की फिल्म है. जैसा की चार्ली चैपलिन खुद कहते थे, यहाँ ‘क्लोस-अप’ में त्रासदी है तो ‘लॉन्ग शॉट’ में कॉमेडी. जीवन भी तो ऐसा ही है.

1936 में आयी उनकी फिल्म ‘मॉडर्न टाइम्स’ अपने खास अंदाज में पूंजीवादी अनुशासन और उसके ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’ की धज्जियां उड़ा देती है. पूंजीवाद में इन्सान को कल पुर्जो में बदलने के खिलाफ विद्रोह है यह फिल्म. इस फिल्म पर भी कई देशों में प्रतिबन्ध लगा दिया गया था.

किसी भी मानव द्रोही व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई सबसे पहले कला के क्षेत्र में ही जीती जाती है. चार्ली चैपलिन की फ़िल्में ऐसी ही फ़िल्में है.

अपनी इसी प्रतिबद्धता के कारण उन्हें अमेरिका में मैकार्थीवाद का भी शिकार होना पड़ा.

बहुत कम कलाकार ऐसे होते है, जिनकी कला से सभी देशों की जनता अपनापन महसूस करे. चार्ली चैपलिन की फ़िल्में भी ऐसी ही है. और यह अनायास नहीं है. चार्ली चैपलिन खुद को एक विश्व नागरिक समझते थे. 1942 में फासीवाद के ख़िलाफ़ कलाकारों के एक सम्मेलन में उन्होंने जो कहा, वह आज भारत में देशभक्ति और नागरिकता की बहस में बहुत ही प्रासंगिक है. चार्ली चैपलिन ने उस सम्मेलन में घोषणा की — “मैं नागरिक नहीं हूं. मुझे नागरिकता-कागज़ात की जरूरत नहीं है. इस अर्थ में मैं किसी एक देश का देशभक्त नहीं हूँ. लेकिन मैं पूरी मानवता का प्रेमी हूं. मैं एक विश्व नागरिक हूँ.” (Charlie Chaplin Memorial Day)

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