किसान आंदोलन पर फ़िल्म: ‘कि जब तक रात बाकी है’

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मनीष आज़ाद-

वर्तमान किसान आंदोलन अभी इतिहास नहीं हुआ है, लेकिन अपने भीतर करवट लेते एक इतिहास को छुपाए हुए है। राजकुमारी अस्थाना ने अपनी इस दस्तावेजी फिल्म में इसी ‘करवट लेते इतिहास’ को अपने संवेदनशील कैमरे से स्क्रीन पर लाने की कोशिश की है। (Film On Farmers Movement)

फ़िल्म की शुरुआत में ही वे अपने शानदार नरेशन में इस आंदोलन के ऐतिहासिक महत्व को दर्शकों के सामने इन शब्दों में पेश कर देती हैं-‘…इसे देखकर मुझे 1857 याद आ रहा है जब विद्रोहियों ने अंग्रेजों से अपनी जमीन बचाने के लिए दिल्ली पर धावा बोला था।’

इस फ़िल्म की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 50 मिनट की इस फ़िल्म ने आंदोलन के ऐतिहासिक महत्व को दर्ज करते हुए इसके सामने कुछ बेहद महत्वपूर्ण सवाल भी खड़े किए है। जैसे दलित मजदूरों का सवाल, साम्प्रदायिकता का सवाल, या महिलाओं के जनवादी अधिकार के संदर्भ में ‘खाप’ के प्रतिक्रियावादी रुख का सवाल।

बिना इन सवालों से टकराये क्या आंदोलन अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी का निर्वाह कर पायेगा? फ़िल्म का यह हिस्सा बहुत महत्वपूर्ण है।

एक दलित युवक (जाट लड़की से शादी करने के कारण जिसके परिवार के 3 सदस्यों की हत्या कर दी गयी) से बातचीत करते हुए मानो फ़िल्म यही मैसेज दे रही हो कि हमे महज तीन कानून ही नहीं बदलना है, वरन देश का सामाजिक विधान भी बदलना है।

2012 में आयी नकुल स्वाने की फ़िल्म ‘इज़्ज़तनगर की असभ्य बेटियां’ में आप इस सामाजिक विधान की कार्यप्रणाली को विस्तार से देख सकते हैं।

फ़िल्म में एक जगह निर्देशिका यह महत्वपूर्ण टिप्पणी करती हैं कि यही सही वक्त है जब हम इन सवालों को उठाये क्योंकि ऐसे आंदोलनों के समय लोगों के दिलो-दिमाग नए विचारों के लिए खुले रहते है। एक तरह का रेनेसॉ (Renaissance) वक़्त है यह। (Film On Farmers Movement)

फ़िल्म में एक जगह वे खाप के महिला विरोधी रुख का समर्थन करने वाले एक शख्स से भिड़ती भी हैं और फ़िल्म को नई ऊंचाई पर ले जाती हैं। राजकुमारी अस्थाना नये दौर की उन फिल्मकारों में से हैं जो अपने ‘विषय’ का खुद भी हिस्सेदार होती है। न कि विषय के बाहर खड़ी एक तटस्थ फिल्मकार।

पंजाब-हरियाणा में किसानों ने ज़्यादातर टोल प्लाजा को बंद करा दिया है। ऐसे ही एक टोल प्लाजा पर बैठे किसानों के साथ बातचीत करते हुए बहुत सहजता से कैमरे का एंगल बदलता है और एक कार वाला किसानों को धन्यवाद देता धीमे से आगे निकल जाता है (क्योंकि उसे अब टोल नहीं देना पड़ा)। निर्देशिका आंदोलन के इस रूप को देखकर बेहद प्रभावित हैं। उनकी टिप्पणी बेहद रोचक है-‘यदि मैं लीडर होती तो आंदोलन के इस रूप का राष्ट्रीयकरण कर देती।’ (Film On Farmers Movement)

फ़िल्म का अंत बहुत अर्थपूर्ण और प्यारा है। एक कैम्प में सारे पुरुष बहुत सहज तरीके से मिर्च काटने, लहसुन छीलने जैसे वे काम कर रहे हैं, जिसे हमारी आंखे महिलाओं के साथ जोड़ कर देखने की आदी हो गयी हैं। यहां भी करवट लेते इतिहास की ओर स्पष्ट संकेत है। यहां हरबर्ट बीबरमान (Herbert Biberman) की मशहूर फिल्म ‘साल्ट ऑफ दि अर्थ’ की याद ताज़ा हो जाती है।

भोर लाने के लिए सबसे जरूरी तो जन-आंदोलन व जन-संघर्ष ही है। लेकिन उस भोर में लालिमा लाने के लिए ऐसी फिल्में व कला के अन्य रूप भी बेहद जरूरी हैं।

यह फ़िल्म vimeo पर उपलब्ध है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और सरोकार से जुड़ी फिल्मों के समीक्षक हैं, यह उनके निजी विचार हैं)


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