#StanSwamy: सदियों तक गूंजेगा सवाल- क्या अपराध है मेरा?

0
287

फादर स्टेन स्वामी ब्राजील के कैथोलिक पादरी येलदी कमेरा के शिष्य थे, जिनका प्रसिद्ध कथन था- ‘जब मैं किसी गरीब को खाना देता हूं तो वे मुझे संत कहते हैं। लेकिन जब मैं पूछता हूं कि वे गरीब क्यों हैं तो वे मुझे कम्युनिस्ट कहते हैं’।

फादर स्टेन स्वामी पर आतंकवाद का आरोप लगाया गया है, भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में शामिल होने के आरोप में 16 लोगों को जेल भेजा गया है। इनमें सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, शिक्षाविद, बुद्धिजीवी शामिल हैं स्टेन स्वामी भी इन 16 लोगों में शामिल थे। फादर स्टेन स्वामी 1991 में तमिलनाडु से झारखंड आए और आने के बाद से ही वह आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करते रहे हैं।

नक्सली होने के तमगे के साथ जेलों में सड़ रहे 3000 महिलाओं और पुरुषों की रिहाई के लिए वो हाई कोर्ट गए। वो आदिवासियों को उनके अधिकारों की जानकारी देने के लिए दूरदराज़ के इलाक़ों में गए। फ़ादर स्टेन स्वामी ने आदिवासियों को बताया कि कैसे खदानें, बांध और शहर उनकी सहमति के बिना बनाए जा रहे हैं और कैसे बिना मुआवज़े के उनसे ज़मीनें छीनी जा रही हैं।

उन्होंने साल 2018 में अपने संसाधनों और ज़मीन पर दावा करने वाले आदिवासियों के विद्रोह पर खुलकर सहानुभूति जताई थी। उन्होंने नियमित लेखों के ज़रिए बताया कि कैसे बड़ी कंपनियों, फ़ैक्टरियों और खदानों के लिए आदिवासियों की ज़मीनें हड़प रही हैं। साफ है कि यह सब सरकार को बहुत नागवार गुजरा और मौका मिलते हैं उन्हें दबोच लिया गया।

स्टेन स्वामी न कभी भीमा कोरेगांव गए, न उनकी उस घटना में कोई सहभागिता थी। इसके बावजूद उन्हें 2018 से लगातार जेल में रखा गया। अभी भी भीमा कोरेगांव के फर्जी मामले में और 15 कैदी हैं, जिनको न जमानत दी जा रही है और न ही मुकदमे का ट्रायल अब तक शुरू हुआ है। स्टेन स्वामी की जमानत याचिका पर सुनवाई होनी थी। हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान स्टेन स्वामी के वकील ने कहा कि बड़े भारी मन से कोर्ट को सूचित करना पड़ रहा है कि फादर स्टेन स्वामी का निधन हो गया है।

84 साल के फ़ादर स्टेन स्वामी को पिछले साल 8 अक्टूबर को रांची स्थिति उनके आवास से पुलिस ने उठा लिया था। उन्हें भीमा कोरेगांव केस में आरोपी बनाया गया था। बाद में कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया, जहां उनकी स्थिति लगातार बिगड़ती गयी, उनके अच्छे इलााज के लिए की जाने वाली अपीलें लगातार ख़ारिज की गईं।

यह भी पढ़ें: बॉम्बे हाईकोर्ट में जमानत याचिका पर सुनवाई से पहले फादर स्टेन स्वामी का निधन

गिरफ्तारी से 2 दिन पहले फादर स्टेन स्वामी का बयान

क्या अपराध किया है मैंने?

“मैं सिर्फ इतना और कहूंगा कि जो आज मेरे साथ हो रहा है, ऐसा अभी अनेकों के साथ हो रहा है।

सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, लेखक, पत्रकार, छात्र नेता, कवि, बुद्धिजीवी और अन्य अनेक जो आदिवासियों, दलितों और वंचितों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं और देश के वर्तमान सत्तारूढ़ी ताकतों की विचारधाराओं से असहमति व्यक्त करते हैं, उन्हें विभिन्न तरीकों से परेशान किया जा रहा है।

इतने सालों से जो संघर्ष में मेरे साथ खड़े रहे हैं, मैं उनका आभारी हूं।

पिछले तीन दशकों में मैंने आदिवासियों और उनके आत्म-सम्मान और सम्मानपूर्वक जीवन के अधिकार के संघर्ष के साथ अपने आप को जोड़ने और उनका साथ देने का कोशिश की है। एक लेखक के रूप में मैने उनके विभिन्न मुद्दों का आकलन करने का कोशिश की है। इस दौरान मैंने केंद्र व राज्य सरकारों की कई आदिवासी-विरोधी और जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध अपनी असहमति लोकतांत्रिक रूप से जाहिर की। मैंने सरकार और व्यवस्था की अनेक नीतियों, नैतिकता, औचित्य व क़ानूनी वैधता पर सवाल किया है।

मैंने संविधान की पांचवी अनुसूची के गैर-कार्यान्वयन पर सवाल किया है। यह अनुसूची [अनुच्छेद 244(क), भारतीय संविधान] स्पष्ट कहती है कि राज्य में एक ‘आदिवासी सलाहकार परिषद’ का गठन होना है, जिसमें केवल आदिवासी रहेंगे और समिति राज्यपाल को आदिवासियों के विकास एवं संरक्षण संबंधित सलाह देगी।

मैंने पूछा है कि क्यों पेसा कानून को पूर्ण रूप से दरकिनार कर दिया गया है। 1996 में बने पेसा कानून ने पहली बार इस बात को माना कि देश के आदिवासी समुदायों का ग्राम सभाओं के माध्यम से स्वशासन की अपनी संपन्न सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास है।

सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के समता निर्णय पर सरकार की चुप्पी पर मैंने अपनी निराशा लगातार जताई है। यह निर्णय [Civil Appeal Nos : 4601-2 of 1997] का उद्देश्य था आदिवासियों को उनकी ज़मीन पर हो रहे खनन पर नियंत्रण का अधिकार देना एवं उनकी आर्थिक विकास में सहयोग करना।

2006 में बने वन अधिकार कानून को लागू करने में सरकार के उदासीन रवैए पर मैंने लगातार अपना दुःख व्यक्त किया है।

इस कानून का उदेश्य है आदिवासियों और वन-आधारित समुदायों के साथ सदियों से हो रहे अन्याय को सुधारना।

मैंने पूछा है कि क्यों सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले- जिसकी ज़मीन, उसका खनिज- को लागू करने में इच्छुक नहीं है [SC: Civil Appeal No 4549 of 2000] एवं लगातार, बिना ज़मीन मालिकों के हिस्से के विषय में सोचे, कोयला ब्लाक का नीलामी कर कंपनियों को दे रही है।

भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में झारखंड सरकार के 2017 के संशोधन के औचित्य पर मैंने सवाल किया है। यह संशोधन आदिवासी समुदायों के लिए विनाश का हथियार है। इस संशोधन के माध्यम से सरकार ने ‘सामाजिक प्रभाव आंकलन’ की अनिवार्यता को समाप्त कर दी और कृषि व बहुफसलिया भूमि का गैर-कृषि इस्तेमाल के लिए दरवाज़ा खोल दिया।

सरकार द्वारा लैंड बैंक स्थापित करने के विरुद्ध मैंने कड़े शब्दों में विरोध किया है। लैंड बैंक आदिवासियों को समाप्त करने की एक और कोशिश है, क्योंकि इसके अनुसार गांव की गैर-मजरुआ (सामुदायिक भूमि) ज़मीन सरकार की है और न कि ग्राम सभा की। सरकार अपनी इच्छा अनुसार यह ज़मीन किसी को भी (मूलतः कंपनियों को) को दे सकती है।

हज़ारों आदिवासी-मूलवासियों, जो भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के अन्याय के विरुद्ध सवाल करते हैं, को ‘नक्सल’ होने के आरोप में गिरफ्तार करने का मैंने विरोध किया है। मैंने उच्च न्यायालय में झारखंड राज्य के विरुद्ध PIL दर्ज कर मांग की है कि

1) सभी विचारधीन कैदियों को निजी बांड पर बेल में रिहा किया जाए।

2) अदालती मुकदमा में तीव्रता लाई जाए क्योंकि अधिकांश विचारधीन कैदी इस फ़र्ज़ी आरोप से बरी हो जाएंगे।

3) इस मामले में लंबे समय से अदालती मुक़दमे की प्रक्रिया को लंबित रखने के कारणों के जांच के लिए न्यायिक आयोग का गठन हो।

4)पुलिस विचारधीन कैदियों के विषय में मांगी गई पूरी जानकारी PIL के याचिकाकर्ता को दे।

इस मामले को दायर किए हुए दो साल से भी ज्यादा हो गया है लेकिन अभी तक पुलिस ने विचारधीन कैदियों के विषय में पूरी जानकारी नहीं दी है।

मैं मानता हूं कि यही कारण है कि शाेषक व्यवस्था मुझे रास्ते से हटाना चाहती है, और हटाने का सबसे आसान तरीका है कि मुझे फ़र्ज़ी मामलों में गंभीर आरोपों में फंसा दिया जाए और साथ ही, बेकसूर आदिवासियों को न्याय मिलने की न्यायिक प्रक्रिया को रोक दिया जाए।

मुझसे NIA ने पांच दिनों (27-30 जुलाई व 6 अगस्त) में कुल 15 घंटे पूछताछ की..मेरे समक्ष उन्होंने मेरे बायोडेटा और कुछ तथ्यात्मक जानकारी के अलावा अनेक दस्तावेज़ व जानकारी रखीं, जो कथित तौर पर मेरे कंप्यूटर से मिलीं और कथित तौर पर माओवादियों के साथ मेरे जुड़ाव का खुलासा करती हैं। मैंने उन्हें स्पष्ट कहा कि ये छल-रचना है और ये दस्तावेज़ और जानकारी चोरी से मेरे कंप्यूटर में डाले गए हैं और इन्हें मैं अस्वीकृत करता हूं।

NIA ने भीमा-कोरेगांव मामले में जिसमें मुझे ‘संदिग्ध आरोपी’ बोला है और मेरे निवास पर दो बार छापा (28 अगस्त 2018 व 12 जून 2019) मारा गया था, से कुछ लेना देना नहीं है। अनुसंधान का मूल उद्देश्य है निम्न बातों को स्थापित करना –

1) मैं व्यक्तिगत रूप से माओवादी संगठनों से जुड़ा हुआ हूं एवं

2) मेरे माध्यम से बगईचा भी माओवादियों के साथ जुड़ा हुआ है।

मैंने स्पष्ट रूप से इन दोनों आरोपों का खंडन किया।

छह सप्ताह तक चुप्पी के बाद, NIA ने मुझे उनके मुंबई कार्यालय में हाजिर होने को बोला है। मैंने उन्हें सूचित किया है कि

1) मेरे समझ के परे है कि 15 घंटे पूछताछ करने के बाद भी मुझसे और पूछताछ करने की क्या आवश्यकता है।

2) मेरी उम्र (83 वर्ष) व देश में कोरोना महामारी को देखते मेरे लिए इतनी लंबी यात्रा संभव नहीं है। झारखंड सरकार की कोरोना संबंधित अधिसूचना अनुसार 60 वर्ष से अधिक उम्र के बुज़ुर्ग व्यक्तियों को लॉकडाउन के दौरान नहीं निकलना चाहिए।

3) अगर NIA मुझसे और पूछताछ करना चाहती है तो वो वीडियो कांफ्रेंस के माध्यम से हो सकती है।

अगर NIA मेरे निवेदन को मानने से इंकार करे और मुझे मुंबई जाने के लिए ज़ोर दे, तो मैं उन्हें कहूंगा कि उक्त कारणों से मेरे लिए जाना संभव नहीं है। आशा है कि उनमें मानवीय बोध हो। अगर नहीं, तो मुझे व हम सबको इसका नतीज़ा भुगतने के लिए तैयार रहना है!

(साभार: जनमंच)

(आप हमें फ़ेसबुकट्विटरइंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं)

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here