अमृता प्रीतम: गंगाजल से वोदका तक प्यास का सफरनामा

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-स्मृति दिवस-

अशोक कुमार शुक्ला-

अमृता प्रीतम का जन्म 1919 में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गुजरांवाला शहर में हुआ। बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा भी वहीं पर हुई। इनके माता पिता पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढ़ाते थे। इनका बचपन अपनी नानी के घर बीता जो रूढ़िवादी विचारधारा की महिला थी। अमृता बचपन से ही रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ी होने वाली बालिका थीं। बचपन में अमृता ने देखा कि उनकी नानी की रसोई में कुछ बर्तन और तीन गिलास अन्य बर्तनों से अलग रखे रहते थे परिवार में सामान्यतः उन बर्तनों का उपयोग नहीं होता था। अमृता के पिता के मुसलमान दोस्तों के आने पर ही उन्हें उपयोग में लाया जाता था। बालिका अमृता ने अपनी नानी से जिद करते हुए गिलासों में ही पानी पीने की जिद की और फिर कई दिन की डांट-फटकार और सत्याग्रह के बाद अंततः अपने पिता के मुसलमान दोस्तों के लिए अलग किए गए गिलासों को सामान्य रसोई के बर्तनों में मिलाकर रूढ़ियों के विरुद्ध खड़ी होने का पहला परिचय दिया। (Amrita Pritam Journey)

जब ये 11 वर्ष की हुईं तो उनकी मां की मृत्यु हो गई। मां के साथ गहरे भावनात्मक लगाव के कारण मृत्यु शैय्या पर पड़ी मां के पास यह अबोध बालिका भी बैठी थी। बालिका ने घर के बड़े बुजुर्गों से सुन रखा था कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं और भगवान् बच्चों की बात नहीं टालते सो अमृता भी अपनी मरती हुई मां की खाट के पास खड़ी हुई ईश्वर से अपनी मां की सलामती की दुआ मांगकर मन ही मन यह विश्वास कर बैठी थी कि अब उनकी मां की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता….. पर मां की मृत्यु हो गई, और उनका ईश्वर के ऊपर से विश्वास हट गया। ईश्वर के प्रति अपने विश्वास की टूटने को उन्होने अपने उपन्यास ‘एक सवाल’ में कथानायक जगदीप के माध्यम से हूबहू व्यक्त किया है जब जगदीप अपनी मरती हुई मां की खाट के पास खड़ा हुआ है और एकाग्र मन होकर ईश्वर से कहता है-‘ मेरी मां को मत मारो।’ नायक को भी ठीक उसी तरह यह विश्वास हो गया कि अब उसकी मां की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता….. पर मां की मृत्यु हो गई, और अमृता की तरह कथा नायक जगदीप का भी ईश्वर के ऊपर से विश्वास हट गया। (Amrita Pritam Journey)

उन्होंने अपना सृजन मुख्य रूप से पंजाबी और उर्दू भाषा में किया है। अपनी आत्मकथा में अमृता ने अपने जीवन के संदर्भ में लिखा हैः-

‘‘ …इन वर्षो की राह में, दो बड़ी घटनाएं हुईं। एक- जिन्हें मेरे दुःख सुख से जन्म से ही संबंध था, मेरे माता-पिता, उनके हाथों हुई। और दूसरी मेरे अपने हाथों। यह एक-मेरी चार वर्ष की आयु में मेरी सगाई के रूप में, और मेरी सोलह सत्रह वर्ष की आयु में मेरे विवाह के रूप में थी। और दूसरी- जो मेरे अपने हाथों हुई- यह मेरी बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में मेरी एक मुहब्बत की सूरत में थी।…’’

अपने विचारों को कागज़ पर उकेरने की प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। मन की कोरें में आते विचारों को डायरी में लिखने से जुड़े एक मजेदार किस्से को उन्होंने इस प्रकार लिखा हैः-

‘‘…पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अंदर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गई।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खोला गया और डायरी को पढ़ा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्वक व्याख्या मांगी गई। उस दिन को भुगतकर मैंने वह डायरी फाड़ दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।…’’ (Amrita Pritam Journey)

विख्यात शायर साहिर लुधियानवी से अमृता का प्यार तत्कालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था। साहिर के साथ अपने लगाव को उन्होंने बेबाकी से अपनी आत्मकथा में इस प्रकार व्यक्त किया है।

‘‘… पर ज़िंदगी में तीन समय ऐसे आए हैं-जब मैंने अपने अंदर की सिर्फ़ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अंदर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया…दूसरी बार ऐसा ही समय मैंने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढ़ा हुआ था। उसके गले में दर्द था…सांस खिंचा-खिंचा था, उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी…और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े खड़े पोरों से, उंगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुए सारी उम्र गुजार सकती हूं। मेरे अंदर की सिर्फ़ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज़ कलम की आवश्यकता नहीं थी।…

लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिए आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामेाशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था…वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था। और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े छोटे टुकड़े कमरे में रह जाते थे। कभी…एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी… तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं… ’’ (Amrita Pritam Journey)

साहिर के प्रति उनके मन में प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी अनेक रचनाओं में हुई है-

‘‘…देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक चीज़ थी जिसे मैं संभाल-संभाल कर रखती थी। यह साहिर की नज़्म ताजमहल थी, जो उसने फ्रेम कराकर मुझे दी थी। पर देश के विभाजन के बाद जो मेरे पास धीरे-धीरे जुड़ा है, आज अपनी अलमारी का अंदर का खाना टटोलने लगी हूं तो दबे हुए खजाने की भांति प्रतीत हो रहा है…

…एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र पर से लाई थी और एक कागज़ का गोल टुकड़ा है जिसके एक ओर छपा हुआ है’-एशियन राइटर्स कांफ्रेंस और दूसरी ओर हाथ से लिखा हुआ है साहिर लुधियानवी। यह कांफ्रेंस के समय का बैज है, जो कांफ्रेंस में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक लेखक को मिला था। मैंने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर। साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और…’’

विभाजन का दर्द अमृता ने सिर्फ़ सुना ही नहीं देखा और भोगा भी था। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने अपना उपन्यास ‘पिंजर’ लिखा। 1947 में 3 जुलाई को अमृता ने एक बच्चे को जन्म दिया और उसके तुरंत बाद 14 अगस्त 1947 को विभाजन का मंजर भी देखा, जिसके संदर्भ में उससे लिखा-

‘‘ दुःखों की कहानियां कह- कहकर लोग थक गए थे, पर ये कहानियां उम्र से पहले खत्म होने वाली नहीं थीं। मैंने लाशें देखीं थीं, लाशों जैसे लोग देखे थे, और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली, तब…एक ही दिन में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक रिश्ते कांच के बर्तनेां की भांति टूट गए थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में चुभी थीं और मेरे माथे में भी …’’

जीवन के उत्तरार्ध में अमृता जी इमरोज़ नामक कलाकार के बहुत नजदीक रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है-

‘‘मुझ पर उसकी पहली मुलाकात का असर- मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया, और तेज़ बुखार चढ़ गया। उस दिन, उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था- बहुत बुखार है? इन शब्दों के बाद उसके मुंह से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बड़ा हो गया हूं। (Amrita Pritam Journey)

…कभी हैरान हो जाती हूं – इमरोज़ ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ है… एक बार मैंने हंसकर कहा था, ईमू ! अगर मुझे साहिर मिल जाता, तो फिर तू न मिलता- और वह मुझे, मुझसे भी आगे, अपनाकर कहने लगा- मैं तो तुझे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज़ पढ़ते हुए ढूंढ लेता! सेाचती हूं – क्या खुदा इस जैसे इंसान से कहीं अलग होता है…’’

अमृता प्रीतम ने स्वयं अपनी रचनाओं में व्यक्त अधूरी प्यास के संदर्भ में लिखा है कि-

‘‘गंगाजल से लेकर वोदका तक यह सफ़रनामा है मेरी प्यास का।’’

अमृता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः-

‘‘ मैं जब अमृता प्रीतम की कोई रचना पढ़ता हूं, तब मेरी भारत विरोधी भावनाएं खत्म हो जाती हैं।’’

इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकड़ा ’ के हिंदी में अनूदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानंदन पंत ने लिखा था-

‘‘अमृता प्रीतम की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर, प्रेम और सौंदर्य की धूप छांव वीथि में विचरने के समान है। इन कविताओं के अनुवाद से हिंदी काव्य भाव धनी तथा शिल्प समृद्ध बनेगा… ’’

अमृता प्रीतम नकी रचनाओं में ‘दिल्ली की गलियां’(उपन्यास), ‘एक थी अनीता’(उपन्यास), काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें (सभी कहानियां 1970 के आस-पास) ‘यह हमारा जीवन’(उपन्यास 1969), ‘आक के पत्ते’ (पंजाबी में बक्क दा बूटा ),‘चक नम्बर छत्तीस’, ‘यात्री’ (उपन्यास 1968,), ‘एक सवाल (उपन्यास ),‘पिघलती चट्टान (कहानी 1974), धूप का टुकड़ा (कविता संग्रह), ‘गर्भवती’(कविता संग्रह) आदि प्रमुख हैं। (Amrita Pritam Journey)

उपन्यासों पर फिल्मों और दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण भी हुआ है।

(गद्यकोश से साभार)

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