स्मृति दिवस: अमृता प्रीतम की चुनिंदा कविताएं

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अमृता प्रीतम ने उपन्यासों के अलावा बहुत सी कविताएं लिखी हैं, जिनकी सहजता दिल की गहराई में उतर जाती है। (Amrita Pritam Poems)
रचनाओं में ‘दिल्ली की गलियां’(उपन्यास), ‘एक थी अनीता’(उपन्यास), काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें (सभी कहानियां 1970 के आस-पास) ‘यह हमारा जीवन’(उपन्यास 1969), ‘आक के पत्ते’ (पंजाबी में बक्क दा बूटा ),‘चक नम्बर छत्तीस’, ‘यात्री’ (उपन्यास 1968,), ‘एक सवाल (उपन्यास ),‘पिघलती चट्टान (कहानी 1974), धूप का टुकड़ा (कविता संग्रह), ‘गर्भवती’ (कविता संग्रह) आदि प्रमुख हैं। (Amrita Pritam Poems)
अमृता प्रीतम का जन्म 1919 में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गुजरांवाला शहर में हुआ। बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा भी वहीं पर हुई। अमृता बचपन से ही रूढ़ियों के विरूद्ध खड़ी होने वाली बालिका थीं। उन्होंने अपना सृजन मुख्य रूप से पंजाबी और उर्दू भाषा में किया है। (Amrita Pritam Poems)

 

याद

आज सूरज ने कुछ घबरा कर
रोशनी की एक खिड़की खोली
बादल की एक खिड़की बंद की
और अंधेरे की सीढ़ियां उतर गया…
आसमान की भवों पर
जाने क्यों पसीना आ गया
सितारों के बटन खोल कर
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया…
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं
तुम्हारी याद इस तरह आयी
जैसे गीली लकड़ी में से
गहरा और काला धूंआ उठता है…
साथ हजारों ख्याल आये
जैसे कोई सूखी लकड़ी
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं
वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये
वक्त का हाथ जब समेटने लगा
पोरों पर छाले पड़ गये… (Poems Of Amrita Pritam)

शहर

मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें – बेतुकी दलीलों-सी…
और गलियाँ इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के साँस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस ख़तम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….

कुफ़्र

आज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन ख़रीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की
सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली
आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली
यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे

राजनीति

सुना है राजनीति एक क्लासिक फिल्म है
हीरो: बहुमुखी प्रतिभा का मालिक
रोज अपना नाम बदलता है
हीरोइन: हकूमत की कुर्सी वही रहती है
ऐक्स्ट्रा: लोकसभा और राजसभा के मैम्बर
फाइनेंसर: दिहाड़ी के मज़दूर,
कामगर और खेतिहर
(फाइनांस करते नहीं,
करवाये जाते हैं)
संसद: इनडोर शूटिंग का स्थान
अख़बार: आउटडोर शूटिंग के साधन
यह फिल्म मैंने देखी नहीं
सिर्फ़ सुनी है
क्योंकि सैन्सर का कहना है —
‘नॉट फॉर अडल्स।’

चुप की साजिश

रात ऊँघ रही है…
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।
चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है।

मजबूर

मेरी माँ की कोख मज़बूर थी…
मैं भी तो एक इन्सान हूँ
आज़ादियों की टक्कर में
उस चोट का निशान हूँ
उस हादसे की लकीर हूँ
जो मेरी माँ के माथे पर
लगनी ज़रूर थी
मेरी माँ की कोख मज़बूर थी
मैं वह लानत हूँ
जो इन्सान पर पड़ रही है
मैं उस वक़्त की पैदाइश हूँ
जब तारे टूट रहे थे
जब सूरज बुझ गया था
जब चाँद की आँख बेनूर थी
मेरी माँ की कोख मज़बूर थी
मैं एक ज़ख्म का निशान हूँ,
मैं माँ के जिस्म का दाग हूँ
मैं ज़ुल्म का वह बोझ हूँ
जो मेरी माँ उठाती रही
मेरी माँ को अपने पेट से
एक दुर्गन्ध-सी आती रही
कौन जाने कितना मुश्किल है
एक ज़ुल्म को अपने पेट में पालना
अंग-अंग को झुलसाना
और हड्डियों को जलाना
मैं उस वक़्त का फल हूँ –
जब आज़ादी के पेड़ पर
बौर पड़ रहा था
आज़ादी बहुत पास थी
बहुत दूर थी
मेरी माँ की कोख मज़बूर थी…
(1947)

एक सोच

भारत की गलियों में भटकती हवा
चूल्हे की बुझती आग को कुरेदती
उधार लिए अन्न का
एक ग्रास तोड़ती
और घुटनों पे हाथ रखके
फिर उठती है…
चीन के पीले
और ज़र्द होंटों के छाले
आज बिलखकर
एक आवाज़ देते हैं
वह जाती और
हर गले में एक सूखती
और चीख मारकर
वह वीयतनाम में गिरती है…
श्मशान-घरों में से
एक गन्ध-सी आती
और सागर पार बैठे –
श्मशान-घरों के वारिस
बारूद की इस गन्ध को
शराब की गन्ध में भिगोते हैं।
बिलकुल उस तरह, जिस तरह –
कि श्मशान-घरों के दूसरे वारिस
भूख की एक गन्ध को
तक़दीर की गन्ध में भिगोते हैं
और लोगों के दुःखों की गन्ध को –
तक़रीर की गन्ध में भिगोते हैं।
और इज़राइल की नयी-सी माटी
या पुरानी रेत अरब की
जो खून में है भीगती
और जिसकी गन्ध –
ख़ामख़ाह शहादत के जाम में है डूबती…
छाती की गलियों में भटकती हवा
यह सभी गन्धें सूंघती और सोचती –
कि धरती के आंगन से
सूतक की महक कब आएगी?
कोई इड़ा – किसी माथे की नाड़ी
– कब गर्भवती होगी?
गुलाबी माँस का सपना –
आज सदियों के ज्ञान से
वीर्य की बूंद मांगता…

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