‘बिकनी’ के 75 साल, हैरान हो जाएंगे इस परिधान के नाम का इतिहास जानकर

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मनीष आज़ाद

क्या आपको पता है की महिलाओं के टू पीस फैशन परिधान बिकनी का नाम ‘बिकनी’ क्यों पड़ा ? बिकनी के ‘आविष्कारक’ फ्रान्स के मशहूर फैशन डिजायनर ‘लुइस रीयर्ड’ ने इसका नाम प्रशांत महासागर में स्थित एक द्वीप ‘बिकनी एटोल’ के नाम पर बड़े धूमधाम से रखा था।

लेख का विषय शायद पहले आपको अजीब लगे। महिलाओं के अंत:वस्त्र का मामला है, इसलिए खुलकर इस शब्द को बोला तक नहीं जाता। लेकिन चुपचाप ही सही, परिवार से अलग होकर ही सही, इस परिधान के नाम के पीछे की हकीकत जानना चाहिए। चलिए आपको बताते हैं, धैर्य से पढ़िए।

आज से 75 साल पहले 1 जुलाई 1946 को अमरीका ने बिकनी एटोल द्वीप पर ‘हिरोशिमा-नागासाकी’ पर गिराए परमाणु बम से भी कई गुना शक्तिशाली परमाणु बम परीक्षण किया था। वर्ष 1946 से 1958 तक इस द्वीप पर और आसपास कुल 67 परमाणु बमों का परीक्षण किया गया। इसमें से कई की ताकत हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराए गए बमों से 1000 गुना ज्यादा थी। बताया जाता है कि 1954 में इसी द्वीप पर पहली बार हाईड्रोजन बम का भी ‘सफल’ परीक्षण किया गया।

जिस बिकनी एटोल पर यह सब किया गया, वहां एक पूरी सभ्यता निवास करती थी। इतिहास बताता है कि 17वीं शताब्दी में स्पेन की इस द्वीप पर नज़र पड़ी और उसने यहां कब्जा जमा लिया। उसके बाद जर्मनी और फिर द्वितीय विश्व युद्ध में यह जापान के कब्जे में रहा। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के हार जाने के बाद यह फिर अमरीका के कब्जे में आ गया।

परीक्षण शुरु करने से पहले अमरीका ने यहां के आदिवासी समाज के मुखियाओं की एक बैठक बुलाई। उनसे कहा गया कि उन्हें यह द्वीप खाली करना पड़ेगा। यहां ‘मानवता की बेहतरी’ के लिए कुछ परीक्षण किए जाएंगे। इसके बाद उन्हें जबर्दस्ती जहाजों पर लादकर 200 किलोमीटर दूर एक निर्जन द्वीप ‘रोन्गेरिक एटोल’ पर भेज दिया गया। उन्हें महज कुछ सप्ताह का राशन मुहैया कराया गया।

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जिस द्वीप पर उन्हें भेजा गया, वह रहने लायक नहीं था। राशन खत्म होने के बाद आदिवासी भुखमरी का शिकार होने लगे। विश्व मीडिया में अमरीका की आलोचना होने के बाद उन्हें फिर कुछ हफ्तों के राशन के साथ एक दूसरे निर्जन द्वीप पर भेजा गया। तब से लेकर आज तक वे आसपास के द्वीपों पर भटक रहे हैं। उनमें से अधिकांश परमाणु विकिरण के घातक असर से भी जूझ रहे हैं। उनका अपना देश ‘बिकनी एटोल’ पूरी तरह तबाह हो गया। यहां विकिरण स्तर समान्य से कई गुना ज्यादा है।

‘बिकनीएटोलडाटकाम’ [www.bikiniatoll.com]ने परमाणु परीक्षण वाले दिन और उसके तुरन्त बाद की स्थितियों को इन शब्दों में कैद किया है-

‘‘रोन्गेरिक एटोल पर विस्थापित लोगों को नहीं पता था कि वहां क्या हो रहा है। उन्होंने उस दिन आसमान में दो सूरज देखे। उन्होंने आश्चर्य से देखा कि उनके द्वीप के ऊपर दो इंच मोटा रेडियोएक्टिव धूल के बादल छा गये। उनका पीने का पानी खारा हो गया और उसका रंग बदलकर पीला पड़ गया।

बच्चे रेडियोऐक्टिव राख के बीच खेल रहे थे, मांए भय से यह सब देख रही थी। रात होते होते उनके शरीर पर इसका असर साफ दिखने लगा। लोगों को उल्टियां और दस्त पड़ने लगे, बाल झड़ने लगे। पूरे द्वीप पर आतंक की लहर दौड़ पड़ी। इन लोगों को कुछ नहीं बताया गया था और ना ही अमरीका द्वारा किसी तरह की चेतावनी ही जारी की गयी थी। परीक्षण के दो दिन बाद उन्हें ‘इलाज’ के लिए पास के ‘क्वाजालेन द्वीप’ पर ले जाया गया।’’

बिकनी एटोल पर इस परीक्षण के लिए आसपास कुल 42 हजार अमरीकी सैनिक तैनात थे। इसके अलावा परीक्षण का असर जानने के लिए 5400 चूहे, बकरी और सूअरों को भी इस द्वीप पर लाया गया।

1980 के आसपास ‘सीआइए’ की एक स्रीक्रेट रिपोर्ट ‘डिक्लासीफाइड’ हुई। बिकनी एटोल के निवासी और बिकनी एटोल की घटना पर नज़र रखने वाले लोग इस रिपोर्ट से बुरी तरह सकते में आ गए। इसमें साफ साफ बताया गया था कि चूहों, बकरियों और सूअरों के साथ ही बिकनी एटोल के निवासी भी परमाणु परीक्षण के औजार थे। इसलिए उन्हें जानबूझकर बिकनी एटोल से इतनी दूरी पर विस्थापित किया गया था कि वे परमाणु विस्फोट से मरे भी ना और पूरी तरह से परमाणु विकिरण की जद में रहें ताकि उन पर इसके प्रभावों का अध्ययन किया जा सके।

इस रिपोर्ट के बाद ही बिकनी एटोल के लोगों और इस पर नज़र रखने वाले लोगों को यह समझ में आया कि क्यों अमरीका के डाॅक्टर नियमित अंतराल पर उनके बीच आते थे और उनका ‘मुफ्त’ ‘इलाज’ करते थे। यही नहीं उन 42000 अमरीकी सैनिकों में से भी कई इस विकिरण की जद में आ गए, जिनमें से कई कैंसर जैसी घातक बीमारियों के शिकार हो गए।

रेडिएशन से प्रभावित सैनिकों ने बाद में अपना संगठन बनाकर अमरीकी सरकार पर केस भी दायर किया है। हालांकि यह पता नहीं चल सका है कि क्या ये सैनिक भी इस प्रोजेक्ट में ‘गिनी पिग’ की तरह इस्तेमाल किए गए या यह अमरीकी साम्राज्यवाद का ‘कोलैटरल डैमेज’ था।

इसी से जुड़ा यह तथ्य कम लोगों को ही पता होगा कि ‘हिरोशिमा-नागासाकी’ पर गिराए गये बम में लाखों जापानियों के साथ ही वहां की जेलों में बंद 100 के करीब अमरीकी युद्धबंदी भी मारे गए थे। अमरीका को यह तथ्य अच्छी तरह पता था कि वहां की जेलों में अमरीकी भी कैद हैं।

इस विवरण को पढ़कर हैरानी होती है कि कैसे इस त्रासद कहानी से ‘टू पीस बिकनी’ को जोड़ा गया। बाद में पता चला कि ‘सेक्स बम’ जैसे शब्द भी हमारे शब्दकोश में इस समय जुड़े। बिकनी एटोल की कहानी बताती है कि अमेरिकी-यूरोपीय फैशन के विध्वंसक और अमानवीय स्वरुप के कारण यह शब्द फैशन का हिस्सा बने।

बिकनी एटोल के निवासियों के साथ हुई इस त्रासद अमानवीय घटना के रुपक को यदि फैशन पर लागू करें तो हम देखेंगे कि इसी समय से विशेषकर अमेरिका और यूरोप में महिलाओं पर फैशन का ‘आक्रमण’ होना शुरू हुआ। प्रयास किया जाने लगा कि उनकी मानवीय रूह को विस्थापित करके उन्हे महज ’फैशन डाॅल’ में बदल दिया जाए।

सोवियत संघ और चीन में समाजवाद और तीसरी दुनिया में राष्ट्रीय मुक्ति युद्धों के कारण जो चेतना पैदा हो रही थी, उसका मुकाबला करने के लिए उनके लिए यह ज़रूरी था कि सामूहिकता के बरअक्स व्यक्ति को स्थापित किया जाय, व्यक्तिवाद को बढ़ाया दिया जाय।

इस संदर्भ में फैशन उस परमाणु बम की तरह था जिससे महिलाओं में आ रही ‘मुक्ति की चेतना’ को तबाह किया जा सकता था और उन्हें सामूहिकता के द्वीप से विस्थापित करके अलग-अलग निर्जन द्वीपों पर विस्थापित किया जा सकता था। वर्ष 2005 में आई ‘एडम कुरटिस’ की मशहूर डाक्यूमेन्ट्री ‘सेन्चुरी आफ दि सेल्फ’ में इस परिघटना को बेहद बारीकी से दिखाया गया है।

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